"तब के गीत और अब के गीत"
मित्रों का सहमत होना जरूरी नहीं है किंतु मेरा मानना यह है कि
श्वेत-श्याम फिल्मों के दौर में जिंदगी के रंगों को सिनेमा के पर्दे पर सजीव करने के लिए गायक, गीतकार, संगीतकार, निर्देशक और कलाकार बेहद परिश्रम करते थे। परिश्रम का यह रंग ही श्वेत-श्याम फिल्मों को सिनेमा के पर्दे पर ऐसे उतारता था कि दर्शकों को उनमें जीवन के सभी रंग दिखाई देते थे। इन्हीं रंगों के बीच वह अपनी जिंदगी को भी देख लेता था। इसीलिए श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर अमर हो गया।
विज्ञान ने तरक्की की और रंगीन फिल्मों का दौर आ गया। श्वेत-श्याम फिल्मों के परिश्रम करने वाले कलाकार, अपने संस्कार नहीं भूले और इस दौर में भी अपने परिश्रम के रंगों से जिंदगी को रंगते रहे और अपनी कला को अमर करते रहे।
विज्ञान की तरक्की निरंतर होती ही गई। समय के साथ श्वेत-श्याम फिल्मों वाली पीढ़ी धीरे धीरे लुप्त होती गई। ऐसी नई पीढ़ी सामने आ गई जिन्होंने अपना कैरियर रंगीन फिल्मों से ही शुरू किया। इस पीढ़ी में जिन्होंने पुरानी पीढ़ी के संस्कारों को आत्मसात करते हुए परिश्रम से मुख नहीं मोड़ा, वे भी अपनी कला को अमर कर रहे हैं किन्तु जिन्होंने पुरानी पीढ़ी के संस्कारों को आत्मसात न करते हुए कमाई को ही अपना लक्ष्य मान लिया, उनकी कृतियाँ अल्प समय में ही दम तोड़ रही हैं। कला के प्रति समर्पण, कठिन साधना के अभाव में कालजयी गीतों का बन पाना मुश्किल ही नहीं, शत प्रतिशत नामुमकिन ही है।
सदाबहार गीतों के कुछ रंगीन संस्करण भी तैयार हो रहे हैं, इनमें भी वही माधुर्य है क्योंकि ये गीत कालजयी बन चुके हैं।
अरुण कुमार निगम
🙏🙏🙏🙏🙏
मित्रों का सहमत होना जरूरी नहीं है किंतु मेरा मानना यह है कि
श्वेत-श्याम फिल्मों के दौर में जिंदगी के रंगों को सिनेमा के पर्दे पर सजीव करने के लिए गायक, गीतकार, संगीतकार, निर्देशक और कलाकार बेहद परिश्रम करते थे। परिश्रम का यह रंग ही श्वेत-श्याम फिल्मों को सिनेमा के पर्दे पर ऐसे उतारता था कि दर्शकों को उनमें जीवन के सभी रंग दिखाई देते थे। इन्हीं रंगों के बीच वह अपनी जिंदगी को भी देख लेता था। इसीलिए श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर अमर हो गया।
विज्ञान ने तरक्की की और रंगीन फिल्मों का दौर आ गया। श्वेत-श्याम फिल्मों के परिश्रम करने वाले कलाकार, अपने संस्कार नहीं भूले और इस दौर में भी अपने परिश्रम के रंगों से जिंदगी को रंगते रहे और अपनी कला को अमर करते रहे।
विज्ञान की तरक्की निरंतर होती ही गई। समय के साथ श्वेत-श्याम फिल्मों वाली पीढ़ी धीरे धीरे लुप्त होती गई। ऐसी नई पीढ़ी सामने आ गई जिन्होंने अपना कैरियर रंगीन फिल्मों से ही शुरू किया। इस पीढ़ी में जिन्होंने पुरानी पीढ़ी के संस्कारों को आत्मसात करते हुए परिश्रम से मुख नहीं मोड़ा, वे भी अपनी कला को अमर कर रहे हैं किन्तु जिन्होंने पुरानी पीढ़ी के संस्कारों को आत्मसात न करते हुए कमाई को ही अपना लक्ष्य मान लिया, उनकी कृतियाँ अल्प समय में ही दम तोड़ रही हैं। कला के प्रति समर्पण, कठिन साधना के अभाव में कालजयी गीतों का बन पाना मुश्किल ही नहीं, शत प्रतिशत नामुमकिन ही है।
सदाबहार गीतों के कुछ रंगीन संस्करण भी तैयार हो रहे हैं, इनमें भी वही माधुर्य है क्योंकि ये गीत कालजयी बन चुके हैं।
अरुण कुमार निगम
🙏🙏🙏🙏🙏
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-10-2019) को "झूठ रहा है हार?" (चर्चा अंक- 3482) पर भी होगी। --
ReplyDeleteचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
श्री रामनवमी और विजयादशमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक चिंतन।
ReplyDelete