हमर भाखा ला खा डारिन….
लहू चुहकिन हमर तन के, हमर हाड़ा ला खा डारिन।
हमर जंगल हमर खेती, हमर नदिया ला खा डारिन।
हमीं मन मान के पहुना, उतारेन आरती जिनकर,
उही मन मूड़ मा चघ के, हमर भाषा ला खा डारिन।।
अरुण कुमार निगम
हमर भाखा ला खा डारिन….
लहू चुहकिन हमर तन के, हमर हाड़ा ला खा डारिन।
हमर जंगल हमर खेती, हमर नदिया ला खा डारिन।
हमीं मन मान के पहुना, उतारेन आरती जिनकर,
उही मन मूड़ मा चघ के, हमर भाषा ला खा डारिन।।
अरुण कुमार निगम
"पढ़ना मत ऐसे अखबार"
राजाओं पर जान निसार
उनको बतलाते अवतार
जिनको पाल रही सरकार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
पाठक को कर दें बीमार
द्वेष बढ़ाने को तैयार
जुमले छापें, छोड़ विचार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
झूठी खबरों की भरमार
नित्य मचाते हाहाकार
हर दिन उगल रहे अंगार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
विज्ञापन की लगी कतार
करते हैं खालिस व्यापार
दिखती नहीं कलम की धार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
धन देती है जो सरकार
उसकी करते जय-जयकार
उग आये ज्यों खरपतवार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
सच को कहते भ्रष्टाचार
और झूठ को शिष्टाचार
बाँट रहे जग को अँधियार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
जिसका मालिक हो मक्कार
नहीं देश से जिसको प्यार
बढ़ा रहे धरती पर भार
पढ़ना मत ऐसे अखबार।
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़
"गजल"
झूठ के दौर में ईमान कहाँ दिखता है
शह्र में भीड़ है इंसान कहाँ दिखता है
फ्लैट उग आये हैं खेतों में कई लाखों के
लहलहाता हुआ अब धान कहाँ दिखता है
लोग खामोश हैं सहके भी सितम राजा के
राज दिल पे करे सुल्तान कहाँ दिखता है
छप रहे रोज ही दीवान गजलकारों के
लफ़्ज़ दिखते तो हैं अरकान कहाँ दिखता है
ज़ुल्फ़ रुखसार की बातों का जमाना तो गया
दिल में उठता हुआ तूफान कहाँ दिखता है
हाथ में जिसके है हथियार सियासत उसकी
देह से वो भला बलवान कहाँ दिखता है
जाल सड़कों का 'अरुण' जब से बिछा गाँवों में
संदली प्यार का खलिहान कहाँ दिखता है
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़
"महँगाई"
पक्ष-विपक्ष के समीकरण में, महँगाई के दो चेहरे हैं
एक समर्थन में मुस्काता और दूसरे पर पहरे हैं।।
एक राष्ट्र-हित में बतलाता, वहीं दूसरा बहुत त्रस्त है
एक प्रशंसा के पुल बाँधे, दूजे का तो बजट ध्वस्त है।।
रोजगार की बात न पूछो, वह गलियों में भटक रहा है
उसको कल की क्या चिंता है, डीजे धुन पर मटक रहा है।।
उच्च-वर्ग की सजी रसोई, मिडिल क्लास का चौका सूना
कार्पोरेटी रेट बढ़ा कर, कमा रहे हैं हर दिन दूना।।
मध्यम-वर्ग अकेला भोगे, महँगाई की निठुर यातना
कौन यहाँ उसका अपना है, जिसके सम्मुख करे याचना।।
सत्ता-सुख की मदिरा पीकर, मस्त झूमता है सिंहासन
उसे समस्या से क्या लेना, उसको प्यारा केवल शासन।।
अंकुश से है मुक्त तभी तो, सुरसा-सी बढ़ती महँगाई
अंक-गणित, प्रतिशत से बोलो, कभी किसी की हुई भलाई।।
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग छत्तीसगढ़
गजल : खेतों में बनी बस्ती
शहरों में नजर आती है खूब धनी बस्ती
गाँवों में मगर क्यों है अश्कों से सनी बस्ती।
कई लोग पलायन कर घर छोड़ गये सूना
मेरे गाँव में भी कल तक थी खूब घनी बस्ती।
भू-माफिया बिल्डर के चंगुल में फँसी जब से
बेमोल बिकी है फिर हीरे की कनी बस्ती।
फुटपाथ मिला कुछ को, कुछ को है मिली कुटिया
कुछ किस्मत वालों की आकाश तनी बस्ती।
बरसात भरोसे में खेती हो "अरुण" कब तक
मजबूर किसानों के खेतों में बनी बस्ती।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़
आज से ठीक 60 वर्ष पूर्व दुर्ग नगर में नगर पालिका द्वारा संचालित "बैथर्स्ट प्राथमिक शाला" और "नरेरा कन्या शाला" के संयुक्त तत्वाधान में "श्री गणेशोत्सव" का आयोजन किया गया था। इन दोनों ही शालाओं के भवन परस्पर जुड़े हुए हैं तथा शनिचरी बाजार में स्थित हैं। बैथर्स्ट प्राथमिक शाला एक ऐतिहासिक शाला है जिसकी स्थापना सन् 1903 में हुई थी और इस शाला परिसर में सन् 1933 में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी पधारे थे। मुझे भी इसी प्राथमिक शाला में पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त है।
14 सितम्बर 1961 को गणेश चतुर्थी के दिन इसी शाला के परिसर में प्रातः 8 बजे गणेश जी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की गयी थी। रात के 9 बजे श्री अजगर प्रसाद जी द्वारा जल-तरंग वादन तथा बाँसुरी वादन प्रस्तुत किया गया था। वैसे श्री अजगर प्रसाद जी का नाम राजनारायण कश्यप था किन्तु शहर और तत्कालीन संगीत जगत के लोग उन्हें अजगर प्रसाद कश्यप के नाम से जानते थे। उन्होंने एक नये वाद्य-यंत्र के रूप में "आरी-तरंग" को स्थापित किया था। श्री अजगर प्रसाद कश्यप जी के बारे में विस्तृत जानकारी फिर कभी पोस्ट करूंगा।
आइये पुनः लौट आते हैं 1961 के गणेशोत्सव की ओर-
15 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे स्थानीय भजन मंडलियों द्वारा भजन प्रस्तुत किये गए थे।
16 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे "सरस्वती कला मंदिर, राजनाँदगाँव" द्वारा सांगीतिक प्रस्तुतियाँ दी गयी थीं।
17 सितम्बर 1961 को रात्रि 9 बजे "मानस-मंडली, दुर्ग द्वारा रामायण-प्रवचन की प्रस्तुति दी गयी थी।
18 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे शाला के बालक-बालिकाओं द्वारा "प्रहसन" प्रस्तुत किये गए थे।
19 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे "जांजगीर के श्री जगदीश चंद्र जी तिवारी" (अभिवक्ता) द्वारा रामायण की प्रस्तुति दी गयी थी।
20 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे पुनः
बालक-बालिकाओं द्वारा प्रहसन प्रस्तुत किये गये थे।
21 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे "विविध मनोरंजन" का कार्यक्रम रखा गया था।
22 सितम्बर 1961 को रात्रि के 9 बजे "झाँकी-प्रदर्शन" का आयोजन हुआ था।
23 सितम्बर 1961 को अपराह्न 3 बजे पारितोषिक वितरण व पान-सुपारी का आयोजन सम्पन्न हुआ था।
इसी दिन रात्रि 8 बजे से रामबन, सतना के पं. श्री रामरक्षित जी शुक्ल द्वारा रामायण-प्रवचन प्रस्तुत किया गया था। जिसके पश्चात विसर्जन हुआ था।
"श्री गणेशोत्सव समारोह" को सुचारू रूप से सम्पन्न करने के लिए "गणेशोत्सव समिति" बनायी गयी थी जिसके प्रधान श्री दीनानाथ नायक थे। स्वागताध्यक्ष श्री कोदूराम "दलित" थे। सुश्री सोनकुँवर बाई ने कोषाध्यक्ष का दायित्व निभाया था। व्यवस्थापक श्री गंगासिंह ठाकुर और सचिव श्री पारखत सिंह ठाकुर थे।
60 वर्ष पूर्व 4 पन्नों में प्रकाशित यह "छोटा सा निमंत्रण पत्र" उस काल-खण्ड का जीता-जागता दस्तावेज है जो प्रमाणित करता है कि उस दौर में शालाओं में सार्वजनिक गणेशोत्सव हुआ करते थे, जिसमें स्थानीय के अलावा अन्य शहरों की विभूतियों द्वारा भी सांस्कृतिक सहयोग प्रदान किया जाता था। शाला के विद्यार्थियों की प्रतिभाओं को भी निखरने के अवसर प्रदान किये जाते थे और सामाजिक समरसता को अक्षुण्ण रखा जाता था, इसीलिए मैंने शीर्षक में दुर्ग नगर को साहित्य और संस्कृति के नगर के विशेषण से अलंकृत किया है।
आप सब को गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ।
प्रस्तुतकर्ता - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
ग़ज़ल
सियासतदां की सोहबत में कभी हम रह नहीं पाये
किसी दरबार में जा के गजल हम कह नहीं पाये।
भले दिखने में हैं इक खंडहर दुनिया की नजरों में
गमों के जलजले आये मगर हम ढह नहीं पाये।
कभी खूं से कभी अश्कों से लिख देते हैं अपना ग़म
मगर लफ़्ज़ों की ऐय्याशी कभी हम सह नहीं पाये।
हमारा नाम देखोगे हमेशा हाशिये में तुम
है कारण एक, राजा की कभी हम शह नहीं पाये।
हमारे दिल की गहराई में मोती का खजाना है
किनारे तैरने वाले हमारी तह नहीं पाये।
हमारे भी तो सीने में धड़कता है "अरुण" इक दिल
मगर जज़्बात की रौ में कभी हम बह नहीं पाये।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग छत्तीसगढ़
"विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस"- एक चिन्तन दिवस
"सावन"
देखो सावन की कंजूसी, गिन-गिन कर बूँदें बाँट रहा।
कुछ नगर-गाँव को छोड़ रहा, चुन-चुन अंचल को छाँट रहा।।
सौदामिनी रूठी बैठी है, बदली सिमटी सकुचायी है।
हतप्रभ है मेंढक की टोली, मोरों की शामत आयी है।।
गुमसुम-गुमसुम है पपीहरा, झींगुर के मुख पर ताले हैं।
अनमनी खेत की मेड़ें हैं, कृषकों के दिल पर छाले हैं।।
इस नन्हीं-मुन्नी रिमझिम में, कैसे हो काम बियासी का।
अब के सावन का रूखापन, है कारण बना उदासी का।।
मत छेड़ प्रकृति के वैभव को, मत कर मानव यूँ मनमानी।
अस्तित्व रहेगा शेष नहीं, यदि रूठ गयी बरखा-रानी।।
अपना महत्व बतलाने को, संकेतों में समझाने को।
शायद यह सावन आया है, बस शिष्टाचार निभाने को।।
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग, छत्तीसगढ़
रोला छन्द - गुरु
गुरु की महिमा जान, शरण में गुरु की जाओ।
जीवन बड़ा अमोल, इसे मत व्यर्थ गँवाओ।।
दूर करे अज्ञान, वही गुरुवर कहलाये।
हरि से पहले नाम, हमेशा गुरु का आये।।
अरुण कुमार निगम
देखो तो !!!!!!!!!
आकाओं ने दिया निमंत्रण, बिना विचारे; देखो तो !
पूँजीवादी परम्परा ने, पैर पसारे; देखो तो !
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी हो, जनता गजट-बजट पलटे
पूँजीपतियों की चाँदी है, साँझ-सकारे; देखो तो !
गैस रसोई की तन-तन कर, गृहिणी को ताने मारे
डीजल औ' पेट्रोल दिखाते, दिन में तारे; देखो तो !
निजी अस्पतालों के मालिक, दोहरे होकर बैठे हैं
दया-हीन इन संस्थाओं के, वारे-न्यारे; देखो तो !
जिनके सीने में पत्थर हैं, उनसे कैसे कहे "अरुण"
निर्धन की आँखों से बहते, आँसू खारे; देखो तो!
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग, छत्तीसगढ़
मेरी नज़र में…….
संकलन - "छत्तीसगढ़ की गजलें"
संपादक - श्री रामेश्वर वैष्णव
प्रकाशक - समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद
प्रकाशन वर्ष - 2019
साहित्य के दो अंग है, गद्य और पद्य। पद्य में छन्द और ग़ज़ल, ये दो ही विधाएँ ऐसी हैं जो शास्त्र-आधारित हैं। इन विधाओं के आधार है, छन्द शास्त्र और ग़ज़ल का अरूज़। दोनों ही विधाओं का अपना एक पूर्व-निर्धारित विधान होता है जिसका पालन करते हुए रचनाएँ की जाती हैं। यह विधान बंधन-सा प्रतीत होता है किंतु यह बंधन नहीं अपितु अनुशासन होता है। इसी अनुशासन के कारण दोनों ही विधाओं में बरसों पूर्व लिखी गयी रचनाएँ आज भी लोकप्रिय हैं।
गजल की विधा अरबी, फारसी और उर्दू से होती हुई भारतीय भाषाओं तक पहुँची। शब्दों की क्लिष्टता धीरे-धीरे बोलचाल के शब्दों में ढलने लगी। हिन्दी फिल्मों ने ग़ज़लों को लोकप्रिय बनाने की पहल की लेकिन सामान्यतः लोग इन्हें फिल्मी गीत ही समझते रहे। रेडियो सिलोन और विविध भारती ने गैर फिल्मी गजलों को काफी हद तक लोकप्रिय बनाया फिर भी यह प्रयास विशिष्ट वर्ग के श्रोताओं तक सीमित रहा। जब जगजीत सिंह की गैरफिल्मी ग़ज़लों के रिकार्ड बाजार में आये तब गजलें गाँवों, कस्बों, शहरों और महानगरों के चप्पे-चप्पे में गूँजने लगीं। कैसेट के आ जाने से तो ग़ज़लें घर-घर तक पहुँच गईं। जगजीत सिंह की लोकप्रियता से उस दौर में मेहंदी हसन, गुलाम अली, पंकज उदास, चंदन दास आदि की गजलों ने धूम मचा दी। भजन गायक अनूप जलोटा ने भी गजलें गानी शुरू कर दी।
साहित्य के क्षेत्र में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने और जनमानस तक पहुँचाने का श्रेय दुष्यन्त कुमार को जाता है। उन्हें हिन्दी गजलों का जनक भी कहा जाता है। दुष्यन्त कुमार ने न केवल सरल व बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया बल्कि गजल की परंपरागत विषय-वस्तु से हट कर ऐसी विषय-वस्तु को चुना जो जन-मानस की रोजमर्रा की जिंदगी से काफी करीब से जुड़ी रही हैं। वर्तमान समय की विसंगतियाँ, सामाजिक सरोकार जैसे विषयों में लिखी गयी हिन्दी गजलें जनमानस को झकझोरने लगीं। गजल लिखने वालों की संख्या बढ़ी और गजलों के संग्रह और संकलन प्रकाशित होने लगे।
किसी संकलन के संपादन का कार्य श्रम-साध्य कार्य होता है और यदि वह संकलन किसी विधा-विशेष की रचनाओं का हो तब वह और भी अधिक कठिन हो जाता है। विधा-विशेष के रचनाकारों की सूची तैयार कर सुपात्र का चयन, उनके पास व्यक्तिगत रूप से जाना या उनके संपर्क नम्बर प्राप्त कर संपर्क करना, उनकी रचनाएँ प्राप्त करना, उन रचनाओं का संपादन करना, उनका क्रम निर्धारित करके उसे प्रकाशक को सौंपना फिर प्रूफ-राइडिंग। ऐसी अनेक प्रक्रियाओं से गुजरना बहुत आसान नहीं होता है। इस कार्य में श्रम लगता है, समय लगता है, धन लगता है, धैर्य लगता है। किसी संपादक की पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने कभी किसी विधा-विशेष पर आधारित संकलन का संपादन किया हो।
अंचल के वरिष्ठ कवि और गजलकार श्री रामेश्वर वैष्णव जी ने उम्र के इस पड़ाव में युवकों जैसा उत्साह दिखाते हुए इस बात को प्रमाणित कर दिया कि किसी कार्य के प्रति लगन और निष्ठा हो तो उम्र कोई मायने नहीं रखती। इस दुरूह कार्य के सफल निष्पादन हेतु मैं श्री रामेश्वर वैष्णव जी को शुभकामनाएँ देता हूँ।
उनके कुशल संपादन में संकलन "छत्तीसगढ़ की गजलें" आज पुस्तकाकार में उपलब्ध हैं। इसके प्रकाशक समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद हैं। पुस्तक आकर्षक कलेवर में है। कागज व छपाई भी गुणवत्तापूर्ण है। नयनाभिराम आवरण शशि ने तैयार किया है तथा श्री अनिरुद्ध सिन्हा ने "आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल-शिल्प और कथ्य" शीर्षक से सार्थक भूमिका लिखी है। चयनित गजलों में यथासंभव हिन्दीनिष्ठता का ध्यान रखा गया है।
इस संकलन में छत्तीसगढ़ के चौबीस गजलकारों की गजलों का संकलन है। प्रत्येक गजलकार की चार से पाँच गजलें इसमें संकलित की गयी हैं। गजलों की संख्या अधिक होने के कारण प्रत्येक गजलकार का केवल एक प्रतिनिधि शेर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। परखने के लिए तो चावल का एक दाना ही पर्याप्त होता है। हाथ कंगन को आरसी क्या? "छत्तीसगढ़ की गजलें" संकलन की एक झलक सुधि-पाठकों के लिए प्रस्तुत है -
दोष इसका दोष उसका मूल बातें गौण सारी
तालियाँ जब तक बजेंगी चोंचले होते रहेंगे।
(अरुण कुमार निगम)
कौन कर पाएगा तेरे प्रश्न हल
अपने प्रश्नों के स्वयं उत्तर बना।
(अशोक कुमार नीरद)
चटपटी हैं अटपटी हैं या फकत अफवाह हैं
बस खबर जी अब नहीं हैं आजकल अखबार में।
(अशोक शर्मा)
वहाँ गजल के शेर कैसे अपनी बात कहें
जहाँ की महफ़िल वाचालों ने सजाई हैं।
(आलोक शर्मा)
मेरी ग़ज़ल कहानी भी है
आग भी है तो पानी भी है।
(डॉक्टर चितरंजन कर)
शक्ल हर एक की बताती है
वायु में ही घुला जहर होगा।
(देवधर महंत)
कितने मासूमों को दंगों के हवाले करके
फिर शिकारी मचान पर है ग़ज़ल कहने दो।
(घनश्याम शर्मा)
जो शब्दों की जलेबी बेचता फिरता सभाओं में
वह होगा कोई हलवाई या कोई मसखरा होगा।
(जीवन यदु)
मिल जाए बस आराम से दो वक्त की रोटी
मैं तुझसे हुकूमत तो नहीं माँग रहा हूँ।
(काविश हैदरी)
ऊँचे मुक्त गगन में उड़ते देख खुशी ही होती है
हाथ पकड़कर कलम चलाना हमने उन्हें सिखाया है।
(महेश कुमार शर्मा)
आपको अच्छा नहीं लगता करूँ क्या
यह मेरा अंदाज है अभिनय नहीं है।
(डॉक्टर माणिक विश्वकर्मा नवरंग)
आपसे दिल की बात कर डाली
और दे दी किताब की सूरत।
(मीना शर्मा मीन)
देश का यौवन यहाँ लंबे समय से
सह रहा संत्रास फिर भी लोग चुप हैं।
(मुकुंद कौशल)
घर का भेदी संसद में
घर में शकुनि मामा क्यों।
(नरेंद्र मिश्र धड़कन)
मजबूर पर क्यों हँसता है क्यों कसता है फिक्रे
लगता है कि गर्दिश ने तेरा घर नहीं देखा।
(डॉक्टर नौशाद अहमद सिद्दीकी)
प्यार की मंडी में जब कोहराम होता है बहुत
इक ग़ज़ल सुनकर मेरी अक्सर बहल जाते हैं लोग।
(रामेश्वर शर्मा)
कोई आकाश से फरिश्ता नहीं आएगा
होना है तुम से ही उद्धार तुम चलो तो सही।
(रामेश्वर वैष्णव)
आवाम को कई तरह से बाँटकर अलग-अलग
यह एक जैसे दिख रहे हैं हुकमराँ जुदा-जुदा।
(रंजीत भट्टाचार्य)
रहा गीत संगीत से जिसका नाता नहीं कभी कोई
उसके आगे जान बूझकर अपनी बीन बजाओ मत।
(संतोष झांझी)
वैलेंटाइन जब से आया
तब से ढाई आखर बदले।
(सतीश कुमार सिंह)
शब्द खोखले हो जाएंगे
अपनों से अभिनय मत करना।
(श्याम कश्यप बेचैन)
जिंदगी में कामयाबी के लिए
ख्वाब पलकों पर सजाना चाहिए।
(सुखनवर हुसैन)
हिटलर या कि सिकंदर जितनी ताकत का वरदान न दे
सच को सच कहने का साहस हो इतना बलवान बना।
(विजय राठौर)
अमीरों के हक में हैं मैदान सारे
और फुटपाथ पर मुफलिसी खेलती है।
(युसूफ सागर)
प्रस्तुतकर्ता - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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गीत - "क्या जाने कितने दिन बाकी"
क्या जाने कितने दिन बाकी
छक कर आज पिला दे साकी।।
आगे पीछे चले गए सब, मधुशाला में आने वाले
धीरे-धीरे मौन हो गए, झूम-झूम के गाने वाले।
अपनी बारी की चाहत में, बैठा हूँ मैं भी एकाकी।।
क्या जाने कितने दिन बाकी
छक कर आज पिला दे साकी।।
जाने वाले हर साथी को, घर तक है मैंने पहुँचाया
जर्जर काया पग डगमग थे, फिर भी मैंने फर्ज निभाया।
आने वाले को जाना है, रीत यही तो है दुनिया की।।
क्या जाने कितने दिन बाकी
छक कर आज पिला दे साकी।।
गीतकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग. छत्तीसगढ़
"वासंती फरवरी"
कम-उम्र बदन से छरहरी
लाई वसंत फिर फरवरी।
शायर कवियों का दिल लेकर
शब्दों का मलयानिल लेकर
गाती है करमा ब्याह-गीत
पंथी पंडवानी भरथरी
लाई वसंत फिर फरवरी।
गुल में गुलाब का दिवस लिए
इक प्रेम-दिवस भी सरस लिए
है पर्यावरण प्रदूषित पर
बातें इसकी हैं मदभरी
लाई वसंत फिर फरवरी।
इसकी भी अपनी हस्ती है
इसमें मेलों की मस्ती है
नमकीन मधुर कुछ खटमीठी
थोड़ी तीखी कुछ चरपरी
लाई वसंत फिर फरवरी।
यह बारह भाई-बहनों में
इकलौती सजती गहनों में
यूँ आती यूँ चल देती है
बस नजर डाल कर सरसरी
लाई वसंत फिर फरवरी।
सुख शेष कहाँ अब जीवन में
घुट रही साँस वातायन में
कुछ राहत सी दे जाती है
बन स्वप्न-लोक की जलपरी
लाई वसंत फिर फरवरी।
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़