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Thursday, October 31, 2019

"ग़ज़लनुमा दोहा छन्द"-

"ग़ज़लनुमा दोहा छन्द"-

इर्द गिर्द उनके फिरें, ऐसे वैसे लोग
सम्मानित होने लगे, कैसे कैसे लोग ।।

मूल्यवान पत्थर हुआ, हुए रत्न बेभाव
गुदड़ी में ही रह गए, हीरे जैसे लोग।।

चन्दा लेकर हो रहा, प्रायोजित सम्मान
वहाँ लुटाने जा रहे, अपने पैसे लोग।।

कुछ हंसों के बीच में, बगुले भी रख साथ
खुशियों की सौगात दें, जैसे तैसे लोग।।

दरबारों से दूर हैं, जाने उनको कौन?
सम्मानित होते नहीं, अक्सर ऐसे लोग ।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, October 28, 2019

अब की बार दीवाली में........

अब की बार दीवाली में........

(विष्णु पद छन्द)

अब की बार दीवाली में हम, कुछ नूतन कर लें
किसी दीन के घर में जाकर, उसका दुख हर लें ।

अब की बार दीवाली में हम, देशी अपनाएँ
लुप्त हो रही परम्परा को, फिर से सिरजाएँ ।

अब की बार दीवाली में हम, यह संकल्प करें
दूषित वातावरण हो रहा, कायाकल्प करें।

अब की बार दीवाली में हम, श्रम का मान करें
अपने कारीगर-श्रमिकों पर, नित अभिमान करें ।

 अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Saturday, October 26, 2019

दीप पर्व की शुभकामनाएँ


"दीप-पर्व की शुभकामनाएँ" - "अप्प दीपो भव"

मशीखत के जहाँ जेवर वहाँ तेवर नहीं होते
जमीं से जो जुड़े होते हैं उनके पर नहीं होते।

जिन्हें शोहरत मिली वो व्यस्त हैं खुद को जताने में
वरगना आपकी नजरों में हम जोकर नहीं होते।

अहम् ने इल्म पर कब्जा किया तो कौन पूछेगा
हरिक दिन एक जैसे तो कभी मंजर नहीं होते।

बसेरा हो जहाँ भी प्यार की दौलत लुटा डालो
मकां कहती जिसे दुनिया वो ढाँचे घर नहीं होते।

"अरुण" संदेश देता है जगत को "अप्प दीपो भव"
उजाले दिल में होते हैं सुनो बाहर नहीं होते।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग (छत्तीसगढ़)

( मशीखत - बड़प्पन, इल्म - ज्ञान, अरुण - सूर्य, अप्प दीपो भव - अपना दीपक आप बनो)

Thursday, October 17, 2019

दोहा छन्द - सम्मान

दोहा छन्द - सम्मान

मांगे से जो मिल रहा, वह कैसा सम्मान।
सही अर्थ में सोचिये, यह तो है अपमान।।

राजाश्रय जिसको मिला, उसे मिला सम्मान।
किसे आज के दौर में, हीरे की पहचान।।

आज पैठ अनुरूप ही, होता है गुणगान।
अनुशंसा से मिल रहे, इस युग में सम्मान।।

मूल्यांकन करता समय, कर्म न जाता व्यर्थ।
अमर उसी का नाम है, जिसकी कलम समर्थ।।

कई सदी के बाद ही, आँका जाता काम।
गुणवत्ता मरती नहीं, जीवित रखती नाम ।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Friday, October 11, 2019

"अलविदा अमन"



 "अलविदा अमन"

अपनी लाश का बोझ उठाऊं, नामुमकिन
मौत से पहले ही मर जाऊं, नामुमकिन
- अमन चाँदपुरी

आज मन बहुत ही विचलित है। कल ही कुंवर कुसुमेश जी ने उनकी हालत का जिक्र किया था। शाम को मुकेश कुमार मिश्र ने फोन पर हालत का नाजुक होना बताया था और आज सुबह अमन के निधन के अविश्वसनीय समाचार ने हतप्रभ कर दिया। विचित्र स्थिति है कि जिस ईश्वर ने उसे हमसे छीना, उसी से हम आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। एक प्रशंसक होकर हम इस तरह विचलित हैं तो उसके परिवार की क्या हालत होगी, अकल्पनीय है। नियति के निर्णय के सम्मुख हम सब नतमस्तक हैं। ईश्वर अमन की आत्मा को शांति प्रदान करे।

अभी बाईस वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे और नियति ने "अमन चाँदपुरी" को हमसे छीन लिया। साहित्याकाश  का एक उभरता सितारा समय से बहुत पहले ही टूट गया। दो वर्ष पूर्व की ही तो बात है जब मैं अंजुमन प्रकाशन की किताब "विविध प्रसंग" (छन्द प्रसंग) का संपादन कर रहा था तब अमन ने मेल द्वारा मुझे कुण्डलिया छन्द भेजे थे। परिचय यहीं से हुआ था। एक दो बार इसी संग्रह बाबत फोन पर चर्चा हुई थी। फिर फेसबुक के माध्यम से जुड़े थे। फेसबुक पर अमन के दोहे, मुक्तक, गजलें आदि देख कर मैं आश्चर्य चकित रह जाता था कि इतनी कम उम्र में कैसे कोई इतनी परिपक्व रचनाएँ लिख सकता है ? लेकिन अमन की कलम में चमत्कार था। उसकी हर रचना को मैं पढ़ा करता था। अमन न मेरा मित्र था, न रिश्तेदार। न वह मेरा शिष्य था न कोई व्यक्तिगत घनिष्ठता। बस एक ही रिश्ता था - कलम का रिश्ता। रचना उत्कृष्ट हो तो पाठक ढूँढने की जरूरत ही नहीं होती।

30 सितम्बर को उसने फेसबुक पर पोस्ट डाली थी कि डेंगू की वजह से वह लखनऊ आ गया है और उसे रक्त की जरूरत है। इसी दिन की एक अन्य पोस्ट में यह शेर था -

तीरगी से बच गए तो रौशनी लड़ने लगी
क्या बताऊँ मुझसे मेरी ज़िंदगी लड़ने लगी

27 सितम्बर को अमन ने अपनी 2 साल पुरानी गजल पोस्ट की थी -

दश्त में प्यासी भटक कर तश्नगी मर जाएगी
ये हुआ तो ज़िंदगी की आस भी मर जाएगी

रोक सकते हैं तो रोकें मज़हबी तकरार सब
ख़ून यूँ बहता रहा तो ये सदी मर जाएगी

फिर उसी कूचे में जाने के लिए मचला है दिल
फिर उसी कूचे में जाकर बेख़ुदी मर जाएगी

आँख में तस्वीर बनकर आज भी रहता है वो
आ गए आँसू तो ये तस्वीर ही मर जाएगी

बोलना बेहद ज़रुरी है मगर ये सोच लो
चीख़ जब होगी अयाँ तो ख़ामुशी मर जाएगी

नफ़रतों की तीरगी फैली हुई है हर तरफ़
प्यार के दीपक जलें तो तीरगी मर जाएगी

ख़त्म करना चाहते हैं आपसी रंजिश अगर
सबकी हाँ में हाँ मिलाएं दुश्मनी मर जाएगी

रंजो-ग़म से राब्ता मेरा न टूटे ऐ ख़ुदा
यूँ हुआ तो मेरी सारी शायरी मर जाएगी

दोस्तों से बेरुखी अच्छी नहीं होती 'अमन'
दूरियाँ ज़िन्दा रहीं तो दोस्ती मर जाएगी

~ अमन चाँदपुरी

अमन के ये मिसरे दिल को छू जाते हैं -

एक   मुद्दत    से मेरे    हाथों में
है    क़लम और   न रौशनाई है
जिनको अश'आर कह रहा है जहाँ
ये    मेरे   हिज्र की   कमाई है
~ अमन चाँदपुरी

हाल अपना है पुराने घर के आँगन की तरह
टूटना ही था मुकद्दर जिसका दर्पन की तरह
~ अमन चाँदपुरी

दुनिया छोड़ के जिस दुनिया में आया हूँ
उस दुनिया से बाहर आऊँ, नामुमकिन
~ अमन चाँदपुरी

मैं जिसे अपना समझता था, उसी ने छीन ली
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी ख़ुद ज़िन्दगी ने छीन ली

हम सुखनवर हैं कि हम पे नाज़ करता है जहाँ
हाँ मगर रोटी हमारी शायरी ने छीन ली

~ अमन चाँदपुरी

अमन के दोहों में कबीर की गहराई दिखाई दे जाती है -

अमन चाँदपुरी के दोहे -

'अमन' तुम्हारी चिठ्ठियाँ, मैं रख सकूँ सँभाल।
इसीलिए संदूक से, गहने दिये निकाल।।

एक पुत्र ने माँ चुनी, एक पुत्र ने बाप।
माँ-बापू किसको चुनें, मुझे बताएँ आप?

प्रेम किया तो फिर सखे! पूजा-पाठ फ़ुज़ूल।
ढाई आखर में निहित, सकल सृष्टि का मूल।।

मानवता के मर्म का, जब समझा भावार्थ।
मधुसूदन से भी बड़े, मुझे दिखे तब पार्थ।।

मुझे अकेला मत समझ, पकड़ न मेरा हाथ।
मैं तन्हा चलता नहीं, दोहे चलते साथ।।

आँसू, आहें, कल्पना, प्रणय, प्यास औ' पीर।
यार बता देखा कभी, मुझ-सा कहीं अमीर।

आँसू, आहें, कल्पना, प्रणय, प्यास औ' पीर।
यार बता देखा कभी, मुझ-सा कहीं अमीर।।

जमे नहीं क्या शहर में, 'अमन' तुम्हारे पाँव।
मेड़ खेत की पूछती, जब-जब जाता गाँव।।

  • अमन चाँदपुरी

इन झलकियों से ही अमन के लेखन की ऊँचाइयाँ पता चल जाती है। हिन्दी और उर्दू साहित्य के लिए अमन का जाना निश्चय ही अपूरणीय क्षति है। उत्कृष्ट साहित्य पढ़ने वालों को अमन की रचनाएँ अवश्य ही पढ़नी चाहिए। फेसबुक में aman chandpuri सर्च करके या कविता कोश में ये रचनाएँ पढ़ी जा सकती हैं।

अमन का परिचय -

साहित्यिक नाम - अमन चाँदपुरी
मूल नाम- अमन सिंह
जन्मतिथि- 25 नवम्बर 1997
पिता – श्री सुनील कुमार सिंह
माता - श्रीमती चंद्रकला सिंह
शिक्षा – परास्नातक (अध्ययनरत)

लेखन विधाएँ– दोहा, ग़ज़ल, गीत, हाइकु, क्षणिका, कवित्त, मुक्तक, कुंडलिया, समीक्षा, लघुकथा एवं मुक्त छंद कविताएँ आदि

सम्पादित पुस्तक – ‘दोहा दर्पण‘

प्रकाशन – विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पर विभिन्न विधाओं में हज़ारों रचनाएँ प्रकाशित

प्रकाशित पुस्तकें (समवेत संग्रह)

कारवान-ए-ग़ज़ल, दोहा कलश, यादों के दरीचे, गुनगुनाएँ गीत फिर से, ग़ज़ल-प्रसंग, कविता-प्रसंग,
दोहा-प्रसंग, विविध प्रसंग, कविता अभिराम-3, स्वर धारा, दोहा दर्पण, दोहा दर्शन

पुरस्कार एवं सम्मान –

1- प्रतिभा मंच फाउंडेशन द्वारा ‘काव्य रत्न सम्मान‘
2- साहित्य शारदा मंच (उत्तराखंड) द्वारा ‘दोहा शिरोमणि' की उपाधि
3- समय साहित्य सम्मेलन, पुनसिया (बांका, बिहार) द्वारा 'कबीर कुल कलाधर' सम्मान
4- कामायनी संस्था (भागलपुर, बिहार) द्वारा 'कुंडलिया शिरोमणि' की मानद उपाधि
5- उन्मुख साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था द्वारा 'ओमका देवी सम्मान'
6- नवसृजन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था तथा अधीश कुमार विचार मंच द्वारा 'हिन्दी सेवा सम्मान'
7- अखिल भारतीय साहित्य उत्थान परिषद द्वारा 'साहित्य गौरव सम्मान'
8- तुलसी शोध संस्थान, लखनऊ द्वारा 'संत तुलसी सम्मान'
9- सृजन संस्था द्वारा लखनऊ में 'सृजन युवा सम्मान'
विशेष - फोटोग्राफी में रुचि। विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं तथा वेब पर फोटोग्राफस प्रकाशित
निवास  – ग्राम व पोस्ट- चाँदपुर,तहसील - टांडा
जिला- अम्बेडकर नगर (उ.प्र.)- 224230

प्रशंसक - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Tuesday, October 8, 2019

पिछले साल किसे मारा था ?

पिछले साल किसे मारा था ?

फिर रावण को मार रहे हो !
पिछले साल किसे मारा था ?

देख सको तो देखो अब भी,
कितने रावण घूम रहे हैं।
धन-सत्ता की मदिरा पीकर,
अपने मद में झूम रहे हैं।।

अब भी रावण जीवित है तो
तुमने किसको संहारा था ?
फिर रावण को मार रहे हो !
पिछले साल किसे मारा था ?

विजयादशमी आई जब-जब
ऊँचे पुतले खूब बनाए।
बुला-बुला कर बड़ी हस्तियाँ
आतिशबाजी खूब जलाए।।

पुतले जल कर खाक हो गए,
क्या रावण सचमुच हारा था ?
फिर रावण को मार रहे हो !
पिछले साल किसे मारा था ?

लक्ष्मण-भरत सरीखे त्यागी
कहाँ दिखाई देते भाई।
रावण ही रावण दिखते हैं
राम नहीं देते दिखलाई ।

बाद मृत्यु के क्या रावण ने
फिर से तुमको ललकारा था?
फिर रावण को मार रहे हो !
पिछले साल किसे मारा था ?

कन्याएँ तक नहीं सुरक्षित
महिलाओं की बात ही छोड़ो।
मार सको तो पत्थर लेकर
इन दुष्टों का माथा फोड़ो।।

लेकिन वह रावण था ज्ञानी
प्रभु ने भी तो स्वीकारा था
फिर रावण को मार रहे हो !
पिछले साल किसे मारा था ?

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, October 7, 2019

"तब के गीत और अब के गीत"

"तब के गीत और अब के गीत"

मित्रों का सहमत होना जरूरी नहीं है किंतु मेरा मानना यह है कि

श्वेत-श्याम फिल्मों के दौर में जिंदगी के रंगों को सिनेमा के पर्दे पर सजीव करने के लिए गायक, गीतकार, संगीतकार, निर्देशक और कलाकार बेहद परिश्रम करते थे। परिश्रम का यह रंग ही श्वेत-श्याम फिल्मों को सिनेमा के पर्दे पर ऐसे उतारता था कि दर्शकों को उनमें जीवन के सभी रंग दिखाई देते थे। इन्हीं रंगों के बीच वह अपनी जिंदगी को भी देख लेता था। इसीलिए श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर अमर हो गया।

विज्ञान ने तरक्की की और रंगीन फिल्मों का दौर आ गया। श्वेत-श्याम फिल्मों के परिश्रम करने वाले कलाकार, अपने संस्कार नहीं भूले और इस दौर में भी अपने परिश्रम के रंगों से जिंदगी को रंगते रहे और अपनी कला को अमर करते रहे।

विज्ञान की तरक्की निरंतर होती ही गई। समय के साथ श्वेत-श्याम फिल्मों वाली पीढ़ी धीरे धीरे लुप्त होती गई। ऐसी नई पीढ़ी सामने आ गई जिन्होंने अपना कैरियर रंगीन फिल्मों से ही शुरू किया। इस पीढ़ी में जिन्होंने पुरानी पीढ़ी के संस्कारों को आत्मसात करते हुए परिश्रम से मुख नहीं मोड़ा, वे भी अपनी कला को अमर कर रहे हैं किन्तु जिन्होंने पुरानी पीढ़ी के संस्कारों को आत्मसात न करते हुए कमाई को ही अपना लक्ष्य मान लिया, उनकी कृतियाँ अल्प समय में ही दम तोड़ रही हैं। कला के प्रति समर्पण, कठिन साधना के अभाव में कालजयी गीतों का बन पाना मुश्किल ही नहीं, शत प्रतिशत नामुमकिन ही है। 

सदाबहार गीतों के कुछ रंगीन संस्करण भी तैयार हो रहे हैं, इनमें भी वही माधुर्य है क्योंकि ये गीत कालजयी बन चुके हैं।

अरुण कुमार निगम
🙏🙏🙏🙏🙏

Thursday, September 26, 2019

संगीतकार व गायक हेमन्त कुमार की 30 वीं पुण्यतिथि

आज 26 सितम्बर 2019 को भारतीय फिल्म संगीत के महान संगीतकार और गायक हेमन्त कुमार की पुण्यतिथि है। उनका निधन 26 सितम्बर 1989 को हुआ था। संजोग से उनमें निधन के समाचार की पेपर कटिंग मुझे मेरी फाइलों में मिली है, साझा कर रहा हूँ .....

हम अपने प्रिय संगीतकार व गायक हेमन्त कुमार की पुण्यतिथि पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग छत्तीसगढ़


Wednesday, September 18, 2019

क्या जाने कितने दिन बाकी - अरुण कुमार निगम

गीत - "क्या जाने कितने दिन बाकी"

क्या जाने कितने दिन बाकी
छक कर आज पिला दे साकी।।

आगे पीछे चले गए सब, मधुशाला में आने वाले
धीरे-धीरे मौन हो गए, झूम-झूम के गाने वाले।
अपनी बारी की चाहत में, बैठा हूँ मैं भी एकाकी।।
क्या जाने कितने दिन बाकी
छक कर आज पिला दे साकी।।

जाने वाले हर साथी को, घर तक है मैंने पहुँचाया
जर्जर काया पग डगमग थे, फिर भी मैंने फर्ज निभाया।
आने वाले को जाना है, रीत यही तो है दुनिया की।।
क्या जाने कितने दिन बाकी
छक कर आज पिला दे साकी।।

गीतकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग. छत्तीसगढ़

Sunday, September 8, 2019

छोटी सी ग़ज़ल - अरुण कुमार निगम

चुटकुलों से हँसाने लगे हैं।
मंच पे खूब छाने लगे हैं।।

इल्म तो है नहीं शायरी का।
खुद को ग़ालिब बताने लगे हैं।।

हुक्मरानों पे पढ़ के कसीदे।
खूब ईनाम पाने लगे हैं।।

मसखरे लॉबियों में परस्पर।
रिश्ते-नाते निभाने लगे हैं।।

जुगनुओं की हिमाकत तो देखो।
आँख "अरुण" को दिखाने लगे हैं।।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग, छत्तीसगढ़

Monday, August 19, 2019

विश्व फोटोग्राफी दिवस


विश्व फोटोग्राफी दिवस पर मेरे मोबाइल के कैमरे से खींची गई एक तस्वीर। यह वृक्ष न जाने कितने पंछियों का बसेरा है और न जाने कितने जीवों को शीतल छाँव प्रदान कर रहा है।

फोटो खींचने की तारीख - 08 जून 2019

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Friday, August 9, 2019

किस काम की तरक्की

221 2122 221 2122

होगा किसान भूखा किस काम की तरक्की
कागज के आँकड़ों में बस नाम की तरक्की।

खलिहान की फसल को तो ले गया महाजन
इस साल फिर हुई है गोदाम की तरक्की।

शहरों पे ध्यान सबका पनपे महानगर नित
हरदम रही उपेक्षित हर ग्राम की तरक्की।

नित भाषणों की खातिर पंडाल मंच सजते
देखी नहीं अभी तक ख़य्याम की तरक्की।

है नेट का जमाना चिट्ठी "अरुण" नदारद
चैटिंग ने खूब कर दी पैगाम की तरक्की।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग छत्तीसगढ़

Saturday, July 27, 2019

गजल - कहाँ ढूँढें

221 1222 221 1222

जो चैन से सोने दे उस धन को कहाँ ढूँढें
संसार में भटका है उस मन को कहाँ ढूँढें।

वन काट दिए सारे हर सू है पड़ा सूखा
अब पूछ रहे हो तुम सावन को कहाँ ढूँढें।

माँ-बाप की छाया में, बचपन को बिताया था
उस घर को कहाँ ढूँढें आँगन को कहाँ ढूँढें।

पढ़ने की न चिन्ता थी साथी थे खिलौने थे
नादान से भोले से बचपन को कहाँ ढूँढें।

निकले जो घरौंदे से सुख लूट गया कोई
जीवन है मशीनों सा धड़कन को कहाँ ढूँढें।

दर्पण में कई चेहरे देते हैं दिखाई क्यों
दरका तो कहीं होगा टूटन को कहाँ ढूँढें।

ये जीस्त 'अरुण' तुमको किस भीड़ में ले आई
हर शख़्स ये पूछ रहा दुश्मन को कहाँ ढूँढें।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़

Monday, July 8, 2019

गजल

ले के सहारा झूठ का सुल्तान बन गए
ज्यों ताज सिर पे आ गया हैवान बन गए।

आवाम के जज़्बात की तो कद्र ही नहीं
लाठी उठाई हाथ में भगवान बन गए।

सब को बड़ी उम्मीद थी फस्लेबहार की
सपनों के सब्जेबाग़ अब वीरान बन गए।

घर में हमारे आग के शोले भड़क उठे
उनको किया जो इत्तिला नादान बन गए।

किस्मत में तेरी गम लिखा है भोग ले "अरुण"
गदहे भी अब के दौर में विद्वान बन गए।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Saturday, June 22, 2019

"चंदैनी गोंदा के प्रमुख स्तंभ"

"चंदैनी गोंदा के प्रमुख स्तंभ"

*दाऊ रामचन्द्र देशमुख, खुमानलाल साव, लक्ष्मण मस्तुरिया और कविता वासनिक*

दाऊ रामचंद्र देशमुख की कला यात्रा "देहाती कला विकास मंच", "नरक और सरग", "जन्म और मरण", "काली माटी" आदि के अनुभवों से परिपक्व होती हुई 1971 में चंदैनी गोंदा के जन्म का कारण बनी। "चंदैनी गोंदा" के विचार को जनमानस तक पहुँचाने के लिए सिद्ध-हस्त प्रतिभाओं की खोज जरूरी थी। कला पारखी दाऊ रामचंद्र देशमुख को ऐसी प्रतिभाएँ दुर्लभ संयोग से मिलीं। राजनाँदगाँव में ठाकुर हीरा सिंह गौतम ने लोक संगीत में मर्मज्ञ खुमानलाल साव की सौगात दी। राजनाँदगाँव ने ही कोकिल कंठी कविता हिरकने (अब कविता वासनिक) जैसी प्रतिभा से परिचय कराया तो आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित कविसम्मेलन को सुनकर  दाऊ जी की नजर में गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया, आए।

यदि दाऊ रामचन्द्र देशमुख को जौहरी कहा जाए तो खुमान लाल साव, लक्ष्मण मस्तुरिया और कविता वासनिक को नैसर्गिक रत्न कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगा। कितना भी कुशल जौहरी हो, पत्थर को तराश कर रत्न नहीं बना सकता। तराशने के लिए अनगढ़ रत्न की ही जरूरत होती है। रत्न का मूल्य तभी बढ़ता है जब उसे कोई जौहरी तराशे। जौहरी का भी मान तभी बढ़ता है जब वह रत्न को तराश कर उसे कीमती बना दे। इस प्रकार दाऊ रामचन्द्र देशमुख, खुमानलाल साव, लक्ष्मण मस्तुरिया और कविता वासनिक एक दूसरे का सानिध्य पा कर चंदैनी गोंदा के चार प्रमुख स्तंभ बने। ये चारों ही एक दूसरे का पर्याय बन चुके हैं। इन चारों स्तंभों पर ही टिकी है चंदैनी गोंदा की गगनचुम्बी इमारत।

दाऊ जी के स्तंभ को उनकी वर्षों की कला यात्रा ने मजबूती दी। खुमान लाल साव के स्तंभ को मजबूती देने वाले गिरिजाशंकर सिन्हा, संतोष टाँक, महेश ठाकुर, पंचराम देवदास रहे। लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत तो उनकी स्वयं की बनाई लय के अनुरूप माधुर्य का भंडार समेटे थे किंतु ताल के अनुरूप लाने का श्रेय दाऊ जी और खुमान लाल साव को जाता है। इन्हीं दोनों की छत्रछाया में कविता वासनिक के सुर जनमानस को बाँधने में कामयाब हुए।

चंदैनी गोंदा की चर्चा हो और कवि रविशंकर शुक्ल, वरिष्ठ गायक व अभिनेता भैयालाल हेड़ाऊ, वरिष्ठ गायिका संगीता चौबे और अनुराग ठाकुर के जिक्र के बिना अधूरी ही रह जायेगी। शिव कुमार दीपक, संतोष झांझी, लीना महापात्र, केदार यादव, साधना यादव को भला कैसे बिसराया जा सकता है। चंदैनी गोंदा में छत्तीसगढ़ के तिरसठ कलाकार हुआ करते थे। रविशंकर शुक्ल और लक्ष्मण मस्तुरिया के साथ ही छत्तीसगढ़ के अनेक गीतकारों, कवियों की रचनाएँ चंदैनी गोंदा के लिए संगीतबद्ध की गई थीं। कोदूराम "दलित", द्वारिकप्रसाद तिवारी "विप्र", हनुमन्त नायडू, हरि ठाकुर, पवन दीवान, हेमनाथ यदु, रामरतन सारथी, रामेश्वर वैष्णव, मुकुंद कौशल आदि कवियों के गीत चंदैनी गोंदा में शामिल थे।

चंदैनी गोंदा का प्रथम प्रदर्शन 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में हुआ था। 1981 तक इसके 99 प्रदर्शन होने में बाद कहा जाता है कि दाऊ जी ने "कारी" के मंचन पर स्वयं को केंद्रित करते हुए अपनी सर्जना "चंदैनी गोंदा" का विसर्जन कर दिया। इसके पश्चात खुमानलाल साव ने स्वतंत्र रूप से चंदैनी गोंदा (छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक कार्यक्रम) का संचालन जीवन पर्यन्त किया।

चंदैनी गोंदा के विसर्जन के संबंध में एक साक्षात्कार के दौरान वीरेंद्र बहादुर सिंह ने प्रश्न किया था - "कुछ वर्ष पूर्व चंदैनी गोंदा के विसर्जन की खबर भी उड़ी थी, इस पर आपको क्या कहना है ? प्रत्युत्तर में खुमानलाल साव ने कहा था - "यह खबर कुछ विघ्न संतोषियों द्वारा उड़ाई गई थी। चंदैनी गोंदा कोई देव प्रतिमा नहीं है जिसका पूजन के बाद विसर्जन का दिया जाए। जब तक छत्तीसगढ़ के लोगों का स्नेह मिलता रहेगा, चंदैनी गोंदा की अविराम यात्रा जारी रहेगी"। इस उत्तर के अनुरूप चंदैनी गोंदा की अविराम यात्रा आज भी अविराम चल रही है।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, खुमानलाल साव ने स्वतंत्र रूप से चंदैनी गोंदा (छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मंच) का संचालन 1981 से जीवन पर्यन्त करते रहे। दाऊ रामचंद्र देशमुख के जीवन काल में भी इसका मंचन होता रहा है जिससे यह प्रतीत होता है कि दाऊ जी की भी सहमति रही होगी अन्यथा वे आपत्ति जरूर प्रकट करते।

मैं उस पीढ़ी से हूँ जिसे ग्राम बघेरा स्थित दाऊ जी की हवेली में चंदैनी गोंदा में कलाकारों को रिहर्सल करते हुए देखने का सौभाग्य प्राप्त है। मैंने दाऊजी द्वारा सृजित चंदैनी गोंदा के कई मंच रात भर जाग कर देखे हैं। मैंने खुमानलाल साव के संचालन में चंदैनी गोंदा (छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मंच) की प्रस्तुति देखी है। मुझे कविता वासनिक की कविता यामिनी और अनुराग-धारा
भी देखने का सौभाग्य प्राप्त है। चंदैनी गोंदा की टीम के साथ जबलपुर में जाकर दो आडियो कैसेट्स "मया-मंजरी" और "छत्तीसगढ़ के माटी अंव" की रिकार्डिंग भी करवाई है।

विगत पाँच दशकों से चंदैनी गोंदा को जान-सुन रहा हूँ। मैं सोचता हूँ कि यदि खुमानलाल साव ने चंदैनी-गोंदा का संचालन नहीं किया होता तो मेरे बाद की पीढ़ी "चंदैनी गोंदा" में नाम से अपरिचित ही रह जाती । धन्य हैं खुमानलाल साव जिन्होंने चंदैनी गोंदा को स्मृतियों में खोने नहीं दिया, किन्तु उनके जाने के बाद अब क्या होगा ? क्या चंदैनी गोंदा के कलाकार उसी गरिमा के साथ इसके अस्तित्व को बनाये रख पाएंगे ? या कविता विवेक वासनिक को ही एक नई जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। देखें आने वाला वक्त इन प्रश्नों का क्या उत्तर देता है।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Tuesday, June 4, 2019

अरुण के दुमदार दोहे

अरुण के दुमदार दोहे -

हमें लगे तो रीत है, उन्हें लगे तो चोट।
हम सस्ते-से नारियल, वे महँगे अखरोट।।
मगर हम मान दिलाते।
चोट हम नहीं दिखाते।।

हम दुर्बल से बाँस हैं, वे सशक्त सागौन।
जग के काष्ठागार में, हमें पूछता कौन ?
शोर हम नहीं मचाते।
बाँसुरी मधुर सुनाते।।

उनके सीने पर पदक, नयनों में है भेद।
हम रखते हैं प्रेम-दृग, सीने में हैं छेद।।
भले वे भाग्य विधाता।
किन्तु हम हैं निर्माता।।

हम अनुभव से जानते, किसकी क्या औकात।
लेकिन हम कहते नहीं, अपने मन की बात।।
मौन को समझो भाई।
मौन में शक्ति समाई।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Monday, June 3, 2019

"मैं की बीमारी" - अरुण कुमार निगम

"मैं की बीमारी" - अरुण कुमार निगम

मैं मैं मैं की बीमारी है
खुद का विपणन लाचारी है।

मीठी झील बताता जिसको
देखा चख कर वह खारी है।

पैर कब्र में लटके लेकिन
आत्म-प्रशंसा ही जारी है।

कई बार यह भ्रम भी होता
मनुज नहीं वह अवतारी है।

सभागार में लोग बहुत पर
माइक से उसकी यारी है।

है जुगाड़ मंत्री से उसका
इसीलिए तो दमदारी है।

"अरुण" निकट मत उसके जाना
उसको मैं की बीमारी है।।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Tuesday, May 28, 2019

कोचिंग सेंटर

कोचिंग सेंटर पर शायद एक दकियानूसी विचार.......

हमने साठ के दशक में प्राथमिक शाला के पाठ्यक्रम में बालभारती के अलावा सुलभ बाल कहानियाँ भी पढ़ीं। इनमें नैतिक शिक्षा देती हुई कहानियाँ हुआ करती थीं। इस युग में नैतिकता को पाठ्यक्रम में स्थान शायद नहीं है।

पहले हम बाजार की दुकान जाकर समान लाते थे, अब दुकानें घर पहुँच सेवाएँ दे रही हैं। विदेशी कंपनियों के आगमन ने उपभोक्तावाद को जन्म दिया। वस्तु और सेवा के साथ-साथ शिक्षा का भी बाजारीकरण हो गया। बाजार में दुकानें बढ़ीं तो प्रतिस्पर्धाएँ बढ़ीं। इसी कारण घर पहुँच सेवा ने जन्म लिया। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुले, विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी। प्रतिस्पर्धा बढ़ी। कोचिंग की दुकानें खुलीं। स्कूल और कोचिंग सेंटर ने बाजार का रूप ले लिया। और फिर...

सपने झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए श्रृंगार सभी, बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

बच्चों का कैरियर बनाने में माँ बाप कैरियर विहीन हो गए। चेहरे पर मुखौटा लगा कर गर्व से बता रहे हैं कि बेटा कनाडा में है, बेटी ऑस्ट्रेलिया में है, वगैरह वगैरह। लेकिन उनका दिल जानता है कि कैरियर बखान के मखमली पर्दे के पीछे दीमक लगा हुआ एक जर्जर दरवाजा है।

हरक्यूलिस, एटलस, हीरो सायकिल के जमाने में एक बच्चे को हैंडिल में पिंजरा फँसा कर और दूसरे बच्चे को कैरियर में बिठा कर शहर और बाग की सैर कराने वाला पिता अब केयर के लिए तरस रहा है। फिर भी स्कूल और कोचिंग सेंटर फल फूल रहे हैं क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में प्रगतिशील विचार ही तो काम आते हैं। दकियानूसी विचारों को भला कौन अपनाता है।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग
छत्तीसगढ़

Wednesday, May 22, 2019

"मैं" का मोह

"मैं" का मोह

जिस तरह किसी ब्याहता के हृदय में "मैका-मोह" समाया होता है, उसी तरह इस नश्वर संसार के हर क्षेत्र में "मैं-का" मोह चिरन्तन काल से व्याप्त है। जिसने इस मोह पर विजय प्राप्त कर ली, समझो कि उसने मोक्ष को प्राप्त कर लिया। एक अति बुजुर्ग साहित्यकार की रुग्णता का समाचार मिला तो उनकी खैरियत पूछने उनके घर चला गया। अस्वस्थ होने की हल्की सी छौंक देने के बाद वे दो घण्टे तक अविराम अपनी उपलब्धियाँ ही गिनाते रहे। शायद स्वस्थ व्यक्ति भी इस्टेमिना के मामले में इनसे हार जाए। मैंने ऐसा किया, मैंने वैसा किया। मैंने इसको बनाया, मैंने उसको बनाया। सुनकर ऐसा लगने लगा कि इनसे पहले साहित्य का संसार मरुस्थल रहा होगा। श्रीमान जी के प्रयासों से ही वह मरुस्थल, कानन कुंज में परिवर्तित हो पाया और इनके निपट जाने के बाद फिर से यह संसार, मरुभूमि में तब्दील हो जाएगा।

कैसी विडंबना है कि जिस उम्र में इनकी उपलब्धियों को संसार को गिनाना चाहिए उस उम्र में वे स्वयं की उपलब्धियाँ गिना रहे हैं। कहने को तो ऐसे शख्स यह भी कहते नहीं थकते कि नवोदित रचनाकारों के लिए मेरे घर के दरवाज़े चौबीसों घंटे खुले हैं किंतु भूले से भी कोई नवोदित उनके दरवाजे से अंदर चला गया तो सिखाना तो दूर, केवल अपनी उपलब्धियाँ ही गिनाते रहेंगे। वैसे अपनी उपलब्धियाँ गिनाना कोई बुरी बात नहीं है। जरूर गिनाना चाहिए तभी तो नई पीढ़ी उनके अभूतपूर्व योगदान से परिचित हो पाएगी वरना उनके समकालीन सभी तो खुद "मैं" के मोह में उलझे हुए हैं, भला वे किसी दूसरे की उपलब्धियाँ कैसे गिना पाएंगे ?

"मैं" के मोह की ही तरह कुछ लोगों का "माइक-मोह" भी नहीं छूट पाता। ऐसे लोग समारोह में तभी हाजिरी देते हैं जब उन्हें माइक में बोलने का मौका मिले। चाहे अतिथि के रूप में बुलाये जाएँ, चाहे वक्ता के रूप में, चाहे संचालक के रूप में बुलाये जाएँ। माइक मिलने के चांस हैं तो हाजिरी जरूर देते हैं चाहे जबरदस्ती ठसना क्यों न पड़े और ज्योंहि माइक हाथ में आता है, "मैं" का राग चालू हो जाता है। अगर विमोचन समारोह है तो लेखक गौण हो जाता है और ऐसा लगता है कि मैं-वादी ने ही लेखक को कलम पकड़ना सिखाया था। किसी का सम्मान हो रहा हो तो ऐसा लगता है कि इन्हीं मैं-वादी के सानिध्य में बेचारा गरीब सम्मानित होने योग्य बन पाया है। कभी-कभी शोक सभा तक में मैं का भूत ऐसा हावी रहता है कि दिवंगत ही गौण हो जाता है।

नीरज की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -

जिंदगी-भर तो हुई गुफ्तगू गैरों से मगर,
आज तक हमसे न हमारी मुलाकात हुई।

काश ! हम "मैं" से मिलने की कभी कोशिश तो करें फिर मैं-मैं मैं-मैं करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी और हाँ, "मैं" से संवाद करने के लिए किसी "माइक" की भी जरूरत नहीं पड़ती। "मैं" से साक्षात्कार अगर हो गया तब मैके की याद आएगी -

वो दुनिया मेरे बाबुल का घर (मैका), ये दुनिया ससुराल
जा के बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Monday, May 20, 2019

सुमित्रानंदन पंत की जयंती पर कुछ अरुण-दोहे


प्रकृति-सौंदर्य के कुशल चितेरे, छायावाद के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत की जयंती पर

कुछ अरुण-दोहे :

पतझर जैसा हो गया, जब ऋतुराज वसंत।
अरुण! भला कैसे बने, अब कवि कोई पंत।।

वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।

बहुमंजिला इमारतें, खातीं नित्य प्रभात।
प्रथम रश्मि अब हो गई, एक पुरानी बात।।

विधवा-सी प्राची दिखे, हुई प्रतीची बाँझ।
अम्लों से झुलसा हुआ, रूप छुपाती साँझ।।

खग का कलरव खो गया, चहुँदिश फैला शोर
सावन जर्जर हो गया, व्याकुल दादुर मोर।।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Monday, May 13, 2019

"छत्तीसगढ़ी भाखा महतारी - आरती गीत"

गीतकार - अरुण कुमार निगम, 

छत्तीसगढ़ी भाखा महतारी, पइयाँ लागँव तोर
पइयाँ लागँव तोर ओ दाई, पइयाँ लागँव तोर 

तहीं आस अस्मिता हमर अउ, तहीं आस पहिचान
आखर अरथ सबद के दे दे, तँय  मोला वरदान।।
खोर गली मा छत्तीसगढ़ के, महिमा गावँव तोर…
पइयाँ लागँव तोर ओ दाई पइयाँ लागँव तोर 

एक हाथ हे हँसिया बाली, दूसर दे वरदान
तीसर हाथ धरे हे पोथी, चौथा देवै ज्ञान।।
पढ़े लिखे बोले बर दाई, चरन पखारँव तोर...
पइयाँ लागँव तोर ओ दाई पइयाँ लागँव तोर

करमा सुआ ददरिया पंथी, गौरा-गौरी फाग
पंडवानी भरथरी तोर बिनकब, कइसे पावै राग।।
छमछम नाचँव राउत नाचा, दोहा पारँव तोर...
पइयाँ लागँव तोर ओ दाई पइयाँ लागँव तोर

कभू दानलीला रचवाये, कभू सियानी गोठ
मस्तुरिया के अन्तस बइठे, करे गीत ला पोठ।।
महूँ रात-दिन सेवा करहूँ, बेटा आवँव तोर
पइयाँ लागँव तोर ओ दाई पइयाँ लागँव तोर

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Tuesday, May 7, 2019

दुमदार दोहे -

(1)
शरशय्या पर आम-जन, अर्जुन अंतिम आस।
धरती से धारा बहे, तभी बुझेगी प्यास।।
ढूँढते फिरते संजय।
दिखें ना उन्हें धनंजय।।

(2)
दुर्योधन दिखते कई, दुःशासन के साथ।
राजा श्री धृतराष्ट्र का, उनके सिर पर हाथ।।
सत्य, द्रोही कहलाए।
झूठ नित तमगे पाए।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Friday, April 26, 2019

दुमदार दोहे -

दुमदार दोहे -

गर्मी का मौसम रहे, सिर पर रहे चुनाव।
अल्लू-खल्लू भी अकड़, गजब दिखाएँ ताव।।
राज आपस के खोलें
वचन सब कड़ुवे बोलें।।1।।

मंचों के भाषण लगें, ज्यों लू-झोंके गर्म।
इनकी गर्मी देखकर, ऋतु को आई शर्म।।
अजेंडा चुगली-चारी
भीड़ भाड़े की भारी।।2।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Thursday, April 4, 2019

एक गजल

जुगनुओं को क्या पड़ी है ?

दिन चुनावी चल रहे हैं
मोम में सब ढल रहे है।

प्रेम-प्याला है दिखावा
वस्तुतः सब छल रहे हैं।

छातियों की नाप छोड़ो
मूँग ही तो दल रहे हैं।

आस्तीनों में न जाने
साँप कितने पल रहे हैं।

घूमते कुछ हाथ जोड़े
हाथ भी कुछ मल रहे हैं।

जुगनुओं को क्या पड़ी है
बुझ रहे कुछ जल रहे हैं।

बोतलें मुँह तक छलकतीं
और प्यासे नल रहे हैं।

शेर उनको मान लें क्यों
अब कहाँ जंगल रहे हैं।

यकबयक चंदन बने, जो
कल तलक काजल रहे हैं।

अनुभवी हैं हाशिये पर
जो कभी पीपल रहे हैं।

नव ‘अरुण’ निस्तेज होकर
प्रात होते ढल रहे हैं।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)