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Wednesday, March 9, 2022

डॉ. विद्यावती मालविका

 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर……



दुर्ग जिले की सुप्रसिद्ध महिला साहित्यकार - डॉ. विद्यावती 'मालविका'


दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन, पाटन के अध्यक्ष श्री पतिराम साव "विशारद" के अभिभाषण दिनांक 23 अप्रैल 1961 के एक अंश में "नारी समाज और साहित्य चेतना" शीर्षक के अंतर्गत उल्लेखित है -


"हर्ष की बात है कि अपने दुर्ग जिले में श्रीमती मनोरमा पाटणकर और श्रीमती सुधा राजपूत कविता लिखती हैं तथा कवि सम्मेलनों में भाग लेती हैं। महिला समाज को साहित्य क्षेत्र में उतरने का नेतृत्व प्राप्त है। "श्रीमती विद्यावती मालविका" भी दुर्ग जिले की हैं, उन्होंने अपनी कम अवस्था में ही अनेक पुस्तकें लिखी हैं। आप श्री पीलालाल चिनौरिया की सुपुत्री हैं।"


इसी प्रकार दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन 

पंचम अधिवेशन, बालोद के अध्यक्ष श्री दानेश्वर शर्मा ने अपने भाषण गुरुवार दिनांक 21 जून 1962 में "हमारे गौरव" शीर्षक के अन्तर्गत कहा था - 


श्री पीला लाल चिनौरिया (संत श्यामा चरण सिंह ), शिशुपाल सिंह यादव उदय प्रसाद "उदय" व पतिराम साव ने तो दुर्ग में साहित्य की ज्योति ही जलाई है।


इसी भाषण में "जगमगाते नक्षत्र "शीर्षक के अंतर्गत उल्लेखित है - 


श्रीमती मनोरमा पाटणकर, विद्यावती मालविका तथा विद्यावती खंडेलवाल इस जिले की महिला साहित्यकार हैं जिन्होंने अच्छी रचनाओं का सृजन किया है।


विशेष उल्लेखनीय है कि जनकवि कोदूराम "दलित" के शिक्षा गुरु तथा काव्य गुरु सन्त श्यामाचरण सिंह उर्फ श्री पीलालाल चिनौरिया जी थे।


श्री श्यामाचरण सिंह उर्फ पीलालाल चिनौरिया का विवाह सुमित्रा देवी "अमोला" से सन् 1925 में हुआ था। वे उन दिनों भिलाई, छत्तीसगढ़ में प्रधान-अध्यापक हुआ करते थे। उसी वर्ष उनका स्थानांतरण अर्जुन्दा में हुआ था। 13 मार्च सन् 1928 में विद्यावती मालविका का जन्म हुआ। श्री श्यामाचरण सिंह जी अध्यापक होने के साथ-साथ आशुकवि, एक उत्कृष्ट साहित्यकार, समाज सुधारक एवं गाँधीवादी विचारधारा के थे। विद्यावती की माता श्रीमती सुमित्रा देवी "अमोला" भी विदुषी महिला थीं। वे गृहणी होने के साथ भक्तिभाव की रचनाएँ लिखती थीं। विद्यावती ‘मालविका’ जी को अपने पिता श्यामाचरण सिंह एवं माता श्रीमती सुमित्रा देवी ‘अमोला’ से साहित्यिक संस्कार मिले थे। उन्होंने 12-13 वर्ष की आयु अर्थात चालीस के दशक से ही साहित्य सृजन आरम्भ कर दिया था।


शालेय शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने साहित्य रत्न तथा एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। तत्पश्चात "हिन्दी सन्त-साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव" विषय में आगरा विश्वविद्यालय से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की। इस दौरान पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनका वाईवा लिया था।


वे 1944 में धरमजयगढ़ (छत्तीसगढ़) में अध्यापिका बनीं।

1945 में  बौद्ध धर्म संबंधित उनकी पहली रचना "धर्मदूत" में प्रकाशित हुई थी।


विद्यावती मालविका जी अपने समय की ख्यातिलब्ध लेखिका एवं कवयित्री रही हैं। उन्होंने अनेक कृतियों का सृजन किया है। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - 


कामना, पूर्णिमा, बुद्ध अर्चना (कविता संग्रह), 

श्रद्धा के फूल, नारी हृदय (कहानी संग्रह), 

आदर्श बौद्ध महिलाएँ, भगवान बुद्ध (जीवनी), 

बौद्ध कलाकृतियाँ (पुरातत्व), 

सौंदर्य एवं साधिकाएँ (निबन्ध संग्रह), 

अर्चना (एकांकी संग्रह), 

मध्य युगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव, महामति प्राणनाथ - एक युगांतरकारी व्यक्तित्व (शोध प्रबंध) आदि। 


उनकी कुछ किताबों का अनुवाद बर्मी, नेपाली, नेवारी, मराठी और गुजराती भाषाओं में भी हुआ है। 


फैजाबाद से प्रकाशित साप्ताहिक "मानव जीवन", जोधपुर से प्रकाशित मासिक "राजपूत संदेश", प्रयाग से प्रकाशित "दीदी" की आप सह-संपादक भी रह चुकी हैं।

 

विद्यावती मालविका जी कुशल चित्रकार भी थीं। उनके चित्र धर्मदूत,त्रिपथगा, भारत, हिंदुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित भी हुआ करते थे।


"आदर्श बौद्ध महिलाएँ" पुस्तक में बुद्धकाल से वर्तमान तक की विश्व प्रसिद्ध बौद्ध महिलाओं का जीवन चरित्र है। यह किताब उत्तरप्रदेश शासन से पुरस्कृत है तथा इसका अनुवाद बर्मी और नेपाली भाषाओं में हुआ है। 


"अर्चना" जो पंद्रह एकांकी व रूपकों का संग्रह है, को सन् 1957 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा आयोजित साहित्य प्रतियोगिता में पुरस्कृत किया गया था।


"नारी-हृदय"  किताब में नारियों में नव-चेतना जगाने वाली तीस भावपूर्ण कहानियों का संकलन है।


"सौंदर्य और साधिकाएँ" किताब में नारी सौंदर्य तथा उनके श्रृंगार-प्रसाधनों के वर्णन के साथ-साथ कुछ महान नारियों का भी परिचय दिया गया है। 


"श्रद्धा के फूल" में धर्म-रस से भरी ओजस्विनी, स्फूर्तिदायक तथा भावपूर्ण नौ कहानियों का संकलन है। 


"बुद्ध अर्चना" में बौद्ध धर्म से संबंधित पंद्रह भावपूर्ण गीतों का संकलन है। विद्यावती मालविका जी ने वन, सरिता, पूर्णिमा आदि से भी बुद्ध गुणों को सुनने और जानने की आदर्श कल्पनाएँ की हैं। "उरुवेला" के वन-प्रान्तर में भी उन्हें तथागत की करुणा का ही मधुर राग सुनायी देता है - 


नभ में फैला स्वर्णिम पराग, 

ओ उरुवेला फिर जाग-जाग।।


हो चुका अरुण ऊषा अंचल, 

विहगों ने भी गाया मंगल

प्रतिध्वनित हो उठा कोलाहल, 

वन सरिता का छलछल, कलकल


जनहित के मृदु-मृदु भाव त्याग, 

तुम अब भी सोये ले विराग।।


कोमल कलिकाएँ नृत्य निरत

है रश्मि-रश्मि भी शोक विरत

परिमल पराग ले कण शत-शत

वन-लक्ष्मी सजती आज सतत।


गौतम करुणा का मधुर राग

तुम आज सुना दो सानुराग।।


"बुद्ध चरितावली" में विद्यावती मालविका जी द्वारा बनाये गए भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित छप्पन चित्र हैं। प्रत्येक चित्र के नीचे उन्होंने गद्य व पद्य में चित्र का विवरण भी लिखा है जैसे कुशीनगर स्तूप के चित्र के नीचे उन्होंने लिखा है - 


कुशीनगर सौन्दर्यमयी है, नगरी परम सुहानी।

जहाँ रमणियाँ हंस चुगातीं, कहते भूत कहानी।।


"बौद्ध कलाकृतियाँ" में भारतीय बौद्ध कलाकृतियों पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। यह किताब इक्कीस परिच्छेदों में है। 


विद्यावती मालविका जी की कविताएँ, उनकी काव्य-प्रतिभा का साक्षात प्रमाण हैं।      

कविता संग्रह "पूर्णिमा" से कुछ पंक्तियाँ देखिए  -

 

चन्द्रकिरण से विहँस-विहँस कर,

उतरो ओ सजनी !

पूनम की रजनी!!


इसी किताब से कुछ और पंक्तियाँ - 


जब भी चाह रहा उसको 

व्याकुल होकर सचराचर

पीयूषवर्षी           वाणी 

कर दे जीवन-पथ मनहर


करुणा की शान्त लहरियाँ 

वितरें अविरल जल पल-पल।।


अब कविता संग्रह "कामना" से कुछ पंक्तियाँ देखिए - 


सदा अपरिचित रहो न ओ प्रिय! 

परिचित बनकर आओ।।


सूनी साँझ दीप आशा का, 

सिहर-सिहर राह जाता।

एक मधुर विश्वास हृदय का, 

स्नेह लुटाता जाता।।


सदा अलख बन रहा न ओ प्रिय! 

मनहर बनकर आओ।

तुम सपने बन रहो न तो प्रिय! 

अपने बनकर आओ।।

कविता संग्रह ‘कामना’ में प्रकृति को बड़े ही सुंदर ढंग से वर्णित करती यह कविता प्रसाद-शैली का स्मरण कराती है -

समयचक्र चलता रहता है....

नीरव नीले अंबर में सखि, 

शुभ्र चंद्र मुस्काता है

सरिताओं के चंचल जल में 

नव-नव खेल रचाता है

फिर भी रजनी का आँसू

ओस बना पड़ता रहता है.....

डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ की कविताओं में मानवीय संवेगों की कोमल भावनाओं से ले कर वर्तमान की विषमताओं का चित्रण मिलता है। किसानों की पीड़ा और सूखे के संकट को बड़े ही सहज भाव से उन्होंने इन पंक्तियों में व्यक्त किया है 

अब तो नभ में आओ बादल, 

धरती को नहला दो

प्यासी आँखें सूख चली हैं, 

बूँदों से सहला दो।


सूख रही है खेती, 

कृषक उदासे हैं

बंजर जीवन में, 

स्वप्न जरा से हैं

रिमझिम के स्वर से

अब तो बहला दो।।


हमने त्रुटियाँ की हैं, 

काटे पेड़ निरंतर

हमने ही तो मौसम में, 

लाया है अंतर

तुम दयालु हो, गलती तो झुठला दो।

उस युग में ग्लोबल वार्मिंग और जल संरक्षण पर उनकी ये पंक्तियाँ - 

तप रही धरती से, 

मानव क्यों नहीं है सीख लेता

सूखती नदियाँ, कुओं को

काश ! संरक्षण तो देता।

डॉ. विद्यावती मालविका जी को अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया जिनमें से कुछ प्रमुख सम्मान -

मध्यप्रदेश शासन का साहित्य सृजन सम्मान 1957

उत्तरप्रदेश शासन का कथा लेखन सम्मान 1958

उत्तरप्रदेश शासन का जीवनी लेखन सम्मान 1959

मध्यप्रदेश शासन का कथासाहित्य सम्मान 1964

मध्यप्रदेश शासन का मीरा पुरस्कार 1966

नाट्यशोध संस्थान कोलकाता में एकांकी संग्रह अर्चना, संदर्भ ग्रंथ के रूप में पढ़ाया जाता है। 

नव नालंदा महाविहार, नालंदा, सम विश्वविद्यालय, बिहार के एम ए हिन्दी पाठ्यक्रम के चतुर्थ प्रश्नपत्र बौद्ध धर्म दर्शन तथा हिन्दी साहित्य के अंतर्गत "मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव" ग्रंथ पढ़ाया जाता है। 

आकाशवाणी इन्दौर, उज्जैन, भोपाल, छतरपुर से उनके रेडियो नाटकों का धारावाहिक प्रसारित होता रहा है। 

विद्यावती मालविका जी छत्तीसगढ़ से जाने के पश्चात मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थानों में सेवारत रहीं। शासकीय सेवा से वे 1988 में सेवानिवृत्त हुई। विगत तीस वर्षों से वे सागर में रह रही थीं। 20 अप्रैल 2021 को 93 वर्ष की आयु में वे ब्रह्मलीन हो गयीं। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश उनके साहित्यिक अवदानों को कभी भी भुला नहीं पायेगा। 

संकलन व आलेख - अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)


संदर्भ / साभार : 

भिक्षु धर्मरक्षित, सारनाथ

डॉ. वर्षा सिंह सुपुत्री डॉ. विद्यावती मालविका, सागर