Followers

Thursday, February 21, 2019

“विश्व महतारी भाषा दिवस” - छत्तीसगढ़ी

“विश्व महतारी भाषा दिवस” - छत्तीसगढ़ी

घर के जोगी जोगड़ा, आन गाँव के सिद्ध - तइहा के जमाना के हाना आय। अब हमन नँगत हुसियार हो गे हन, गाँव ला छोड़ के शहर आएन, शहर ला छोड़ के महानगर अउ महानगर ला छोड़ के बिदेस मा जा के ठियाँ खोजत हन। जउन मन बिदेस नइ जा सकिन तउन मन विदेसी संस्कृति ला अपनाए बर मरे जात हें। बिदेसी चैनल, बिदेसी अत्तर, बिदेसी पहिनावा, बिदेसी जिनिस अउ बिदेसी तिहार, बिदेसी दिवस वगैरा वगैरा। जउन मन न बिदेस जा पाइन, न बिदेसी झाँसा मा आइन तउन मन ला देहाती के दर्जा मिलगे।

हमन दू ठन दिवस ला जानत रहेन - स्वतंत्रता दिवस अउ गणतन्त्र दिवस। आज वेलेंटाइन दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस, राजभाषा दिवस, पर्यावरण दिवस अउ न जाने का का दिवस के नाम सुने मा आवत हे। ये सोच के हमू मन झपावत हन कि कोनो हम ला देहाती झन समझे। काबर मनावत हन ? कोन जानी, फेर सबो मनावत हें त हमू मनावत हन। बैनर बना के, फोटू खिंचा के फेसबुक मा डारबो तभे तो सभ्य, पढ़े लिखे अउ प्रगतिशील माने जाबो।

एक पढ़े लिखे संगवारी ला पूछ पारेंव कि विश्व मातृ दिवस का होथे ? एला दुनिया भर मा काबर मनाथें? वो हर कहिस - मोला पूछे त पूछे अउ कोनो मेर झन पूछ्बे, तोला देहाती कहीं। आज हमन ला जागरूक होना हे। जम्मो नवा नवा बात के जानकारी रखना हे। जमाना के संग चलना हे। लम्बा चौड़ा भाषण झाड़ दिस फेर ये नइ बताइस कि विश्व मातृ दिवस काबर मनाथे। फेर सोचेंव कि महूँ अपन नाम पढ़े लिखे मा दर्ज करा लेथंव।
फेसबुक मा कुछु काहीं लिख के डार देथंव।

भाषा ला जिंदा रखे बर बोलने वाला चाही। खाली किताब अउ ग्रंथ मा छपे ले भाषा जिंदा नइ रहि सके। पथरा मा लिखे कतको लेख मन पुरातत्व विभाग के संग्रहालय मा हें फेर वो भाषा नँदा गेहे। पाली, प्राकृत अउ संस्कृत के कतको ग्रंथ मिल जाहीं फेर यहू भाषा मन आज नँदा गे हें  । माने किताब मा छपे ले भाषा जिन्दा नइ रहि सके, वो भाषा ला बोलने वाला जिन्दा मनखे चाही।

भाषा नँदाए के बहुत अकन कारण हो सकथे। नवा पीढ़ी के मनखे अपन पुरखा के भाषा ला छोड़ के दूसर भाषा ला अपनाही तो भाषा नँदा सकथे। रोजी रोटी के चक्कर मा अपन गाँव छोड़ के दूसर प्रदेश जाए ले घलो भाषा के बोलइया मन कम होवत जाथें अउ भाषा नँदा सकथे। बिदेसी आक्रमण के कारण जब बिदेसी के राज होथे तभो भाषा नँदा सकथे। कारण कुछु हो, जब मनखे अपन भाषा के प्रयोग करना छोड़ देथे, भाषा नँदा जाथे।

छत्तीसगढ़ी भाषा ऊपर घलो खतरा मंडरावत हे। समय रहत ले अगर नइ चेतबो त छत्तीसगढ़ी भाषा घलो नँदा सकथे। छत्तीसगढ़ी भाषा के बोलने वाला मन छत्तीसगढ़ मा हें, खास कर के गाँव वाले मन एला जिंदा रखिन हें। शहर मा हिन्दी अउ अंग्रेजी के बोलबाला हे। शहर मा लोगन छत्तीसगढ़ी बोले बर झिझकथें कि कोनो कहूँ देहाती झन बोल दे। छत्तीसगढ़ी के संग देहाती के ठप्पा काबर लगे हे ? कोन ह लगाइस ? आने भाषा बोलइया मन तो छत्तीसगढ़ी भाषा ला नइ समझें, ओमन का ठप्पा लगाहीं ? कहूँ न कहूँ ये ठप्पा लगाए बर हमीं मन जिम्मेदार हवन।

हम अपन महतारी भाषा गोठियाए मा गरब नइ करन। हमर छाती नइ फूलय। अपन भीतर हीनता ला पाल डारे हन। जब भाषा के अस्मिता के बात आथे तब तुरंत दूसर ला दोष दे देथन। सरकार के जवाबदारी बता के बुचक जाथन। सरकार ह काय करही ? ज्यादा से ज्यादा स्कूल के पाठ्यक्रम मा छत्तीसगढ़ी लागू कर दिही। छत्तीसगढ़ी लइका मन के किताब मा आ जाही। मानकीकरण करा दिही। का अतके उदिम ले छत्तीसगढ़ी अमर हो जाही?

मँय पहिलिच बता चुके हँव कि किताब मा छपे ले कोनो भाषा जिंदा नइ रहि सके, भाषा ला जिन्दा रखे बर वो भाषा ला बोलने वाला जिन्दा मनखे चाही। किताब के भाषा, ज्ञान बढ़ा सकथे, जानकारी दे सकथे, आनंद दे सकथे फेर भाषा ला जिन्दा नइ रख सके। मनखे मरे के बादे मुर्दा नइ होवय, जीयत जागत मा घलो मुर्दा बन जाथे। जेकर छाती मा अपन देश बर गौरव नइये तउन मनखे मुर्दा आय। जेकर छाती मा अपन गाँव के गरब नइये तउन मनखे मुर्दा आय। जेकर छाती मा अपन समाज बर सम्मान नइये, तउन मनखे मुर्दा आय। जेकर छाती मा अपन भाषा बर मया नइये, तउन मनखे मुर्दा आय। जेकर स्वाभिमान मर गेहे, तउन मनखे मुर्दा आय।
जउन मन अपन छत्तीसगढ़िया होए के गरब करथें, छत्तीसगढ़ी मा गोठियाए मा हीनता महसूस नइ करें तउने मन एला जिन्दा रख पाहीं।

अइसनो बात नइये कि सरकार के कोनो जवाबदारी नइये। सरकार ला चाही कि छत्तीसगढ़ी ला अपन कामकाज के भाषा बनाए। स्कूली पाठ्यक्रम मा एक भाषा के रूप मा छत्तीसगढ़ी ला अनिवार्य करे। अइसन करे ले छत्तीसगढ़ी बर एक वातावरण तैयार होही। शहर मा घलो हीनता के भाव खतम होही। छत्तीसगढ़ी ला रोजगार मूलक बनावय। रोजगार बर पलायन, भाषा के नँदाए के एक बहुत बड़े कारण आय। इहाँ के प्रतिभा ला इहें रोजगार मिल जाही तो वो दूसर देश या प्रदेश काबर जाही? छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार, लोक कलाकार ला उचित सम्मान देवय, उनकर आर्थिक विकास बर सार्थक योजना बनावय।

छत्तीसगढ़ी भाव-सम्प्रेषण बर बहुत सम्पन्न भाषा आय। हमन ला एला सँवारना चाही। अनगढ़ता, अस्मिता के पहचान नइ होवय। भाषा के रूप अलग-अलग होथे। बोलचाल के भाषा के रूप अलग होथे, सरकारी कामकाज के भाषा के रूप अलग होथे अउ साहित्य के भाषा के रूप अलग होथे। बोलचाल बर अउ साहित्यिक सिरजन बर मानकीकरण के जरूरत नइ पड़य, इहाँ भाषा स्वतंत्र रहिथे फेर सरकारी कामकाज अउ स्कूली पाठ्यक्रम बर भाषा के मानकीकरण अनिवार्य होथे। मानकीकरण के काम बर घलो ज्यादा विद्वता के जरूरत नइये, भाषा के जमीनी कार्यकर्ता, साहित्यकार मन घलो मानकीकरण करे बर सक्षम हें।

छत्तीसगढ़ मा अब छत्तीसगढ़िया सरकार आए ले हमर उम्मीद घलो बाढ़ गेहे। मोला लगथे कि अभी नवा सरकार के ध्यान लोक-सभा चुनाव के रणनीति डहर ज्यादा हे, स्वाभाविक भी हे। ये सब निपटे के बाद हमर उम्मीद नवा सरकार ले ज्यादा रही। सरकार छत्तीसगढ़ी बर जो कुछ भी करही वो एक सहयोग रही लेकिन छत्तीसगढ़ी ला समृद्ध करे के अउ जिन्दा रखे के जवाबदारी असली मा छत्तीसगढ़िया मन के रही। यहू ला झन भुलावव कि जब भाषा मरथे तब भाषा के संगेसंग संस्कृति घलो मर जाथे।

“स्वाभिमान जगावव, छत्तीसगढ़ी मा गोठियावव”

लेखक - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

🙏    🙏    🙏    🙏    🙏

Thursday, February 14, 2019

“प्रेम सप्ताह का अंत (वेलेंटाइन डे) बनाम जोड़ों का दर्द”

आलेख -

“प्रेम सप्ताह का अंत (वेलेंटाइन डे) बनाम जोड़ों का दर्द”

एक फिल्मी गीत याद आ रहा है -

सोमवार को हम मिले, मंगलवार को नैन
बुध को मेरी नींद गई, जुमेरात को चैन
शुक्र शनि कटे मुश्किल से,आज है ऐतवार
सात दिनों में हो गया जैसे सात जनम का प्यार।।

अब इससे ज्यादा शॉर्टकट और भला क्या हो सकता है ?

गुलजार साहब ने लिखा -

हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू
हाथ से छू के इसे, रिश्तों का इल्जाम न दो
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।।

गीतकार भरत व्यास के शब्दों में कहें तो,

पिया आधी है प्यार की भाषा
आधी रहने दो मन की अभिलाषा
आधे छलके नयन आधे ढलके नयन
आधी पलकों की भी है बरसात आधी
आधा है चंद्रमा…..

कबीर दास जी ने भी तो कहा है -

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

इश्क़, मोहब्बत, प्यार, उल्फ़त, प्रीति, प्रणय, प्रेम सारे पर्यायवाची तो आधे शब्द को लेकर ही बने हैं। कहा भी जाता है कि प्रेम आधा ही होता है। अब अंग्रेजी के LOVE को ही देख लें V अक्षर इसीलिए डाला गया है ताकि “लव्ह” के उच्चारण में आधापन कायम रहे वरना LAW स्पेलिंग भी बना कर उच्चारण “लव” रखा जा सकता था लेकिन LAW कहने से प्रेम का संचार कहाँ हो पाता ? कानून का डंडा डराता रहता। शायद इसीलिए प्रेम के love स्पेलिंग को मान्यता दी गई होगी।

छत्तीसगढ़ राज्य की भाषा छत्तीसगढ़ी इस मामले में सम्पन्न है। इस भाषा में प्रेम का पर्यायवाची शब्द है “मया”, अर्थात आधे अक्षर को तिलांजलि। मया में पूर्णता है, इसीलिए यहाँ सात जन्मों की वेलिडिटी तय नहीं की गई है, मया को जन्म जन्मांतर का बंधन कहा गया है। मेरे अपने एक गीत में यही पूर्णता कही गई है-

हमर मया मा दू आखर हे, इही हमर चिन्हारी जी
तुम्हर प्रेम के ढाई आखर ऊपर परही भारी जी।।

तुम्हर प्रेम बस सात जनम के, मया जनम-जन्मांतर के
प्रीत किए दुःख होवै संगी, मया मूल सुख-सागर के।।

छत्तीसगढ़ के जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया जी ने तो मया को परिभाषित ही कर दिया है -

मया नइ चीन्हे जी देसी-बिदेसी, मया के मोल न तोल
जात-बिजात न जाने रे मया, मया मयारुक बोल।।

गीतों में वर्णित प्रेम को यहीं विराम देते हुए अब आज के यथार्थ के धरातल पर चला जाय। गुलाब, प्रस्ताव,चॉकलेट, टेडी बियर, प्रॉमिस, चुम्बन-आलिंगन, वेलेंटाइन डे के सात चोंचलों में किसी मार्केटिंग कम्पनी के सुनियोजित विज्ञापन का आभास होता है। शायद टेडीबियर निर्माता या चॉकलेट कंपनी की चाल हो सकती है कि उनके उत्पाद की बिक्री बढ़े ! चुम्बन और आलिंगन को वासना से मुक्त नहीं कहा जा सकता, यह हमारी संस्कृति से खिलवाड़ के अलावा कुछ नहीं है। प्रस्ताव और प्रॉमिस भी एक दिवस का मौसमी बुखार है, चढ़ता है और तुरंत उतर जाता है। इन सभी क्रियाकलापों की अंत्येष्टि 14 फरवरी को हो जाती है।

आज सोशल मीडिया पर “मातृ-पितृ सेवा दिवस” की बधाइयों का दौर भी चल रहा है, भले ही यह वेलेंटाइन के समानांतर एक अच्छे भाव को लेकर चालू किया गया है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं दिख रहे हैं। मातृ-पितृ सेवा के तो साल में 365 दिन हैं फिर इसे वन डे इंटरनेशनल क्यों बनाया जा रहा है ? क्या आनेवाले समय में मातृ-पितृ सेवा दिवस एक दिन की फार्मेलिटी नहीं बन जायेगा ? वैसे भी माता पिता के प्रति सेवा भाव अब बिरला ही नजर आता है। ऐसा दिवस मनाने से 14 सितंबर के राजभाषा दिवस के रूप में रह जाएगा। सब कर रहे हैं इसीलिए हम भी करें, ऐसा सोचकर करने से हमारी मौलिक सोच मर जाएगी। हमारी तर्क शक्ति मर जाएगी। इस तरह के दिवस मनाने से पहले इन्हें तर्क की कसौटी पर कसें, भीड़ के साथ मत भागें।

जब आलेख लिखने बैठा था तो सोचा था कि वेलेंटाइन डे पर कुछ व्यंग लिखूँ लेकिन मन का दर्द उतर आया। हाँ ! दर्द शब्द से प्रेमी जोड़ों का दर्द याद आया गया। इस आधुनिक दिवस को मनाने के लिए प्रेमी जोड़ों को बहुत दर्द सहना पड़ता है। । प्रेम के दर्द को छिड़ कर कई  प्रकार के दर्द सहने पड़ते हैं। आकर्षक पैकिंग में रोज़ की पीड़ा (गुलाब कहने से सस्तेपन का भान होता है अतः रोज़ कहना ही ठीक रहेगा), महंगे चॉकलेट की पीड़ा (बच्चों वाली चॉकलेट देके लल्लू कौन कहलाना पसंद करेगा), प्रपोज़ की पीड़ा ( महंगा होटल या बाप की कार में लांग ड्राइव ले जाने के कारण पेट्रोल व्यय) आदि आदि।

मुहावरा भी तो है - “सस्ता रोये बार-बार, महंगा रोये एक बार”. बाग बगीचे में प्रपोज़ करना सस्ता जरूर पड़ता है लेकिन पुलिस का जब डंडा पड़ता है तब ये माध्यम बहुत महंगा पड़ जाता है। अगर महंगे होटल में न जाकर किसी मॉल का प्रोग्राम बनाया जाए तो वहाँ का स्वल्पाहार बहुत महंगा पड़ जाता है और दुर्भाग्य से वहाँ प्रेमिका के भाई या बाप से सामना हो गया तब तो अस्पताल का खर्च भी शामिल हो जाता है। कुल मिला कर वेलेंटाइन हफ्ते में प्रेमी - जोड़ों को बहुत दर्द सहना पड़ता है। लेख शायद लम्बा हो गया है, मुझे भी लिखते लिखते उम्र-जनित जोड़ों का दर्द होने लगा है। इसीलिए कलम को यहीं विराम देता हूँ।

लेखक - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Saturday, February 2, 2019

अन्नदाता याद आया

गजल - अन्नदाता याद आया

गजल - अन्नदाता याद आया

गाँव का इक सर्वहारा छटपटाता याद आया।
पाँवों से खिसकी जमीं तो अन्नदाता याद आया।।

एक तबका है रईसी मुफलिसी के बीच में भी
यकबयक उससे जुड़ा कुछ तो है नाता याद आया।।

काठ की हाँडी दुबारा चढ़ रही चूल्हे पे देखो
बीरबल फिर से कहीं खिचड़ी पकाता याद आया।।

सुख में राजाओं की संगत रास आती थी हमेशा
डूबते में कौन है सच्चा विधाता याद आया।।

आजकल बच्चे बहलते ही नहीं हैं झुनझुनों से
क्यों ‘अरुण’ बूढा तुम्हें सीटी बजाता याद आया।।

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)