"विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस"- एक चिन्तन दिवस
"सावन"
देखो सावन की कंजूसी, गिन-गिन कर बूँदें बाँट रहा।
कुछ नगर-गाँव को छोड़ रहा, चुन-चुन अंचल को छाँट रहा।।
सौदामिनी रूठी बैठी है, बदली सिमटी सकुचायी है।
हतप्रभ है मेंढक की टोली, मोरों की शामत आयी है।।
गुमसुम-गुमसुम है पपीहरा, झींगुर के मुख पर ताले हैं।
अनमनी खेत की मेड़ें हैं, कृषकों के दिल पर छाले हैं।।
इस नन्हीं-मुन्नी रिमझिम में, कैसे हो काम बियासी का।
अब के सावन का रूखापन, है कारण बना उदासी का।।
मत छेड़ प्रकृति के वैभव को, मत कर मानव यूँ मनमानी।
अस्तित्व रहेगा शेष नहीं, यदि रूठ गयी बरखा-रानी।।
अपना महत्व बतलाने को, संकेतों में समझाने को।
शायद यह सावन आया है, बस शिष्टाचार निभाने को।।
रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग, छत्तीसगढ़
शिष्टाचार निभाता सावन
ReplyDeleteपर मानव भूल गया है
ये प्रभावी चिंतन
बहुत कुछ कह गया है ।
खूबसूरत चिंतन
अरुण जी,
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग आपका इंतजार कर रहा है । इन दस वर्षों में भूल तो नहीं गए न ?
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-07-2021को चर्चा – 4,140 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
कहीं गिन-गिनकर बूँदें बाँटता सावन
ReplyDeleteकहीं बरसकर सुख की नींदें छाँटता सावन
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सुंदर सारगर्भित रचना।
सादर।
सटीक चित्र खिंचा है आपने चल रहे पावस काल पर।
ReplyDeleteशब्द चयन बहुत ही सुंदर, मनभावन प्रकृति का मनभावन चित्र पर सावन उदास।
सुंदर रचना।
इस गंभीर चिंतन में भी कथ्य शिल्प अत्यंत मुखर है । अति सुन्दर सृजन ।
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