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Friday, July 16, 2021

"छत्तीसगढ़ की गजलें"

 मेरी नज़र में…….

संकलन - "छत्तीसगढ़ की गजलें"

संपादक - श्री रामेश्वर वैष्णव

प्रकाशक - समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद




प्रकाशन वर्ष - 2019


साहित्य के दो अंग है, गद्य और पद्य। पद्य में छन्द और ग़ज़ल, ये दो ही विधाएँ ऐसी हैं जो शास्त्र-आधारित हैं। इन विधाओं के आधार है, छन्द शास्त्र और ग़ज़ल का अरूज़। दोनों ही विधाओं का अपना एक पूर्व-निर्धारित विधान होता है जिसका पालन करते हुए रचनाएँ की जाती हैं। यह विधान बंधन-सा प्रतीत होता है किंतु यह बंधन नहीं अपितु अनुशासन होता है। इसी अनुशासन के कारण दोनों ही विधाओं में बरसों पूर्व लिखी गयी रचनाएँ आज भी लोकप्रिय हैं। 


गजल की विधा अरबी, फारसी और उर्दू से होती हुई भारतीय भाषाओं तक पहुँची। शब्दों की क्लिष्टता धीरे-धीरे बोलचाल के शब्दों में ढलने लगी। हिन्दी फिल्मों ने ग़ज़लों को लोकप्रिय बनाने की पहल की लेकिन सामान्यतः लोग इन्हें फिल्मी गीत ही समझते रहे। रेडियो सिलोन और विविध भारती ने गैर फिल्मी गजलों को काफी हद तक लोकप्रिय बनाया फिर भी यह प्रयास विशिष्ट वर्ग के श्रोताओं तक सीमित रहा। जब जगजीत सिंह की गैरफिल्मी ग़ज़लों के रिकार्ड बाजार में आये तब गजलें गाँवों, कस्बों, शहरों और महानगरों के चप्पे-चप्पे में गूँजने लगीं। कैसेट के आ जाने से तो ग़ज़लें घर-घर तक पहुँच गईं। जगजीत सिंह की लोकप्रियता से उस दौर में मेहंदी हसन, गुलाम अली, पंकज उदास, चंदन दास आदि की गजलों ने धूम मचा दी। भजन गायक अनूप जलोटा ने भी गजलें गानी शुरू कर दी। 


साहित्य के क्षेत्र में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने और जनमानस तक पहुँचाने का श्रेय दुष्यन्त कुमार को जाता है। उन्हें हिन्दी गजलों का जनक भी कहा जाता है। दुष्यन्त कुमार ने न केवल सरल व बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया बल्कि गजल की परंपरागत विषय-वस्तु से हट कर ऐसी विषय-वस्तु को चुना जो जन-मानस की रोजमर्रा की जिंदगी से काफी करीब से जुड़ी रही हैं। वर्तमान समय की विसंगतियाँ, सामाजिक सरोकार जैसे विषयों में लिखी गयी हिन्दी गजलें जनमानस को झकझोरने लगीं। गजल लिखने वालों की संख्या बढ़ी और गजलों के संग्रह और संकलन प्रकाशित होने लगे। 


किसी संकलन के संपादन का कार्य श्रम-साध्य कार्य होता है और यदि वह संकलन किसी विधा-विशेष की रचनाओं का हो तब वह और भी अधिक कठिन हो जाता है। विधा-विशेष के रचनाकारों की सूची तैयार कर सुपात्र का चयन, उनके पास व्यक्तिगत रूप से जाना या उनके संपर्क नम्बर प्राप्त कर संपर्क करना, उनकी रचनाएँ प्राप्त करना, उन रचनाओं का संपादन करना, उनका क्रम निर्धारित करके उसे प्रकाशक को सौंपना फिर प्रूफ-राइडिंग। ऐसी अनेक प्रक्रियाओं से गुजरना बहुत आसान नहीं होता है। इस कार्य में श्रम लगता है, समय लगता है, धन लगता है, धैर्य लगता है। किसी संपादक की पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने कभी किसी विधा-विशेष पर आधारित संकलन का संपादन किया हो। 


अंचल के वरिष्ठ कवि और गजलकार श्री रामेश्वर वैष्णव जी ने उम्र के इस पड़ाव में युवकों जैसा उत्साह दिखाते हुए इस बात को प्रमाणित कर दिया कि किसी कार्य के प्रति लगन और निष्ठा हो तो उम्र कोई मायने नहीं रखती। इस दुरूह कार्य के सफल निष्पादन हेतु मैं श्री रामेश्वर वैष्णव जी को शुभकामनाएँ देता हूँ। 


उनके कुशल  संपादन में संकलन "छत्तीसगढ़ की गजलें" आज पुस्तकाकार में उपलब्ध हैं। इसके प्रकाशक समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद हैं। पुस्तक आकर्षक कलेवर में है। कागज व छपाई भी गुणवत्तापूर्ण है। नयनाभिराम आवरण शशि ने तैयार किया है तथा श्री अनिरुद्ध सिन्हा ने "आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल-शिल्प और कथ्य" शीर्षक से सार्थक भूमिका लिखी है। चयनित गजलों में यथासंभव हिन्दीनिष्ठता का ध्यान रखा गया है। 


इस संकलन में छत्तीसगढ़ के चौबीस गजलकारों की गजलों का संकलन है। प्रत्येक गजलकार की चार से पाँच गजलें इसमें संकलित की गयी हैं। गजलों की संख्या अधिक होने के कारण प्रत्येक गजलकार का केवल एक प्रतिनिधि शेर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। परखने के लिए तो चावल का एक दाना ही पर्याप्त होता है। हाथ कंगन को आरसी क्या? "छत्तीसगढ़ की गजलें" संकलन की एक झलक सुधि-पाठकों के लिए प्रस्तुत है -


दोष इसका दोष उसका मूल बातें गौण सारी

तालियाँ जब तक बजेंगी चोंचले होते रहेंगे।

(अरुण कुमार निगम)


कौन कर पाएगा तेरे प्रश्न हल 

अपने प्रश्नों के स्वयं उत्तर बना।

(अशोक कुमार नीरद)


चटपटी हैं अटपटी हैं या फकत अफवाह हैं 

बस खबर जी अब नहीं हैं आजकल अखबार में।

(अशोक शर्मा)


वहाँ गजल के शेर कैसे अपनी बात कहें 

जहाँ की महफ़िल वाचालों ने सजाई हैं।

(आलोक शर्मा)


मेरी ग़ज़ल कहानी भी है 

आग भी है तो पानी भी है।

(डॉक्टर चितरंजन कर)


शक्ल हर एक की बताती है 

वायु में ही घुला जहर होगा।

(देवधर महंत)


कितने मासूमों को दंगों के हवाले करके 

फिर शिकारी मचान पर है ग़ज़ल कहने दो।

(घनश्याम शर्मा)


जो शब्दों की जलेबी बेचता फिरता सभाओं में 

वह होगा कोई हलवाई या कोई मसखरा होगा।

(जीवन यदु)


मिल जाए बस आराम से दो वक्त की रोटी 

मैं तुझसे हुकूमत तो नहीं माँग रहा हूँ।

(काविश हैदरी)


ऊँचे मुक्त गगन में उड़ते देख खुशी ही होती है 

हाथ पकड़कर कलम चलाना हमने उन्हें सिखाया है।

(महेश कुमार शर्मा)


आपको अच्छा नहीं लगता करूँ क्या 

यह मेरा अंदाज है अभिनय नहीं है। 

(डॉक्टर माणिक विश्वकर्मा नवरंग)


आपसे दिल की बात कर डाली 

और दे दी किताब की सूरत।

(मीना शर्मा मीन)


देश का यौवन यहाँ लंबे समय से 

सह रहा संत्रास फिर भी लोग चुप हैं।

(मुकुंद कौशल)


घर का भेदी संसद में 

घर में शकुनि मामा क्यों।

(नरेंद्र मिश्र धड़कन)


मजबूर पर क्यों हँसता है क्यों कसता है फिक्रे 

लगता है कि गर्दिश ने तेरा घर नहीं देखा।

(डॉक्टर नौशाद अहमद सिद्दीकी)


प्यार की मंडी में जब कोहराम होता है बहुत 

इक ग़ज़ल सुनकर मेरी अक्सर बहल जाते हैं लोग।

(रामेश्वर शर्मा)


कोई आकाश से फरिश्ता नहीं आएगा 

होना है तुम से ही उद्धार तुम चलो तो सही।

(रामेश्वर वैष्णव)


आवाम को कई तरह से बाँटकर अलग-अलग 

यह एक जैसे दिख रहे हैं हुकमराँ जुदा-जुदा।

(रंजीत भट्टाचार्य)

 

रहा गीत संगीत से जिसका नाता नहीं कभी कोई 

उसके आगे जान बूझकर अपनी बीन बजाओ मत।

(संतोष झांझी)


वैलेंटाइन जब से आया 

तब से ढाई आखर बदले।

(सतीश कुमार सिंह)


शब्द खोखले हो जाएंगे 

अपनों से अभिनय मत करना।

(श्याम कश्यप बेचैन)


जिंदगी में कामयाबी के लिए 

ख्वाब पलकों पर सजाना चाहिए। 

(सुखनवर हुसैन)


हिटलर या कि सिकंदर जितनी ताकत का वरदान न दे

सच को सच कहने का साहस हो इतना बलवान बना।

(विजय राठौर)


अमीरों के हक में हैं मैदान सारे 

और फुटपाथ पर मुफलिसी खेलती है।

(युसूफ सागर)


प्रस्तुतकर्ता - अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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