प्रेम पात सब झर गये , चढ़-चढ़ जावै साँस
चढ़- चढ़ जावै साँस , कहाँ वह हरियाली है
आँख मोतियाबिंद , उसी की अब लाली है
छाँह गहे अब कौन , नहीं रहि छाया शीतल
रहा रात भर खाँस, अब सठिया गया पीपल ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (म.प्र.)
बहुत अच्छे से समझ आई आपकी कही बात :):) बेहतरीन कुंडली
ReplyDeleteसठिया जाने पर मिले, यही रोग बेचैन
ReplyDeleteखांसी सुन कर हो रहे, उनके क्रोधित नैन
उनके क्रोधित नैन , नहीं कोई ठाँव बची
प्रेम - पात के लिए , नहीं कोई आंच बची
चलना दूभर हो गया ,हुआ जबसे गठिया
चुप रहना ही बेहतर , गए हैं हम सठिया ।
:-)
Deleteवाह वाह संगीता दी........
बहुत बढ़िया...
अनु
गीला आटा कर गया, बैरी गठिया वात
Deleteहर कोई करने लगा,जली कटी सी बात
जलीकटी सी बात,रही ना इज्जत बाकी
चलनी करती सूप , संग ही टोकाटाकी
झर जाए अब राम,उम्र का पत्ता पीला
बैरी गठिया वात, कर गया आटा गीला ||
बेहद खूबसूरत रचना सर बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (8-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
बेहतरीन ...
ReplyDeleteलाजवाब कुंडली अरुण जी..
सादर
अनु
ReplyDeleteपीपल के जर जर उम्र दराज़ वृक्ष का जबरजस्त मानवीकरण ,उम्र के निशाँ छिपाए न छिपे यह निखार है काव्य में बिम्बों का जो एक बूढ़े को ला बिठाएं हैं पीपल की छाँव तले जहां अब छाँव कहाँ .
उमर पारकर साठ की,लगता सबको रोग
ReplyDeleteसठियाएगे वो सभी ,कहते है जो लोग,,,,,
recent post: बात न करो,
समय के साथ आए परिवर्तन को लिखा है ... जीवन के बदलाव को भी बाखूबी दिखा दिया साथ ही ...
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