तुम्हीं प्रेरणा कवि ह्रदय की
कविता का अधिकार न छीनो
तुम पर ही अब गीत रचूंगा
मुझसे यह अधिकार न छीनो.
सावन बनकर छा जाओगे
ह्रदय पपीहा नृत्य करेगा
घुंघरू तो टकरायेंगे ही
तुम इनकी झंकार न छीनो.
जब ऋतुराज विहँस आयेगा
कलम-कोकिला कूक उठेगी
वरना होगा केवल पतझर
तुम इनका अभिसार न छीनो.
बिना छिद्र बाँसुरिया कैसी
बिना साधना कैसी सरगम
बिना प्रेरणा के कवि कैसा
वीणा से तुम तार न छीनो.
कहीं भावना की आँधी से
सौगंधों का बाँध न टूटे
अरी बावरी ! हठ छोड़ो तुम
जीवन का आधार न छीनो.
कठिन साधना के प्रतिफल में
तुमसे निश्छल प्यार मिला है
जीवन छीनो , धड़कन छीनो
तुम अपना उपहार न छीनो.
जलने दो तुम “अरुण – हृदय” को
तब ही जग आलोकित होगा
आदिकाल से नियति यही है
तुम मेरे संस्कार न छीनो.
-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग
(छत्तीसगढ़)
क्या बात है निगम जी !१९७७ कि कविता हमारे जैसे श्रवनसाधकों के होते हुवे आज तलक तक कहाँ छुपा कर रखे थे|कविता आपकी भावनाओ के साथ अलंकारों से सुसज्जित है प्रकृति के प्रति आप का निःश्च्छल प्रेम -सावन बनकर छा जाओगे
ReplyDeleteह्रदय पपीहा नृत्य करेगा ....आदिकाल से नियति यही है
तुम मेरे संस्कार न छीनो. कबीले तारीफ कि है धन्यवाद
इस कविता में एक किताब लिखी जा सकती है
ReplyDeleteप्राचीन काल में यह प्रथा थी कि कविता में कहीं न कही कवि का नाम आता था। उर्दू गजल में आज भी अन्त की लाइन में शायर का नाम आता है शायद उसे मक्ता या ऐसा ही कुछ कहते है। हां एक और विशेषता कि जो नाम आता था उसे रचना से मेल भी खाना चाहिये । आपकी रचना में यह देखने को मिला । यहंा अरुण व्दिअर्थी है । सुन्दर कविता
ReplyDeleteकठिन साधना के प्रतिफल में
ReplyDeleteतुमसे निश्छल प्यार मिला है
जीवन छीनो , धड़कन छीनो
तुम अपना उपहार न छीनो.
बहुत सुन्दर भावों से रची है यह रचना ... छंदबद्ध रचना अच्छी लगी .
बिना छिद्र बाँसुरिया कैसी
ReplyDeleteबिना साधना कैसी सरगम
बिना प्रेरणा के कवि कैसा
वीणा से तुम तार न छीनो
कवि तो प्रेरणा के बिना पंगु है।
नए प्रतीकों का प्रयोग कविता की सम्प्रेषणीयता में वृद्धि कर रहा है।
बहुत खूब...बहुत खूब....बहुत खूब....
ReplyDeleteतुम्हीं प्रेरणा कवि ह्रदय की
ReplyDeleteकविता का अधिकार न छीनो
तुम पर ही अब गीत रचूंगा
मुझसे यह अधिकार न छीनो...
अरुण जी ,
बहुत सुन्दर रचना है। कोमल भावों से सजी , उम्दा अभिव्यक्ति।
बधाई।
.
प्रिय बंधुवर अरुण कुमार निगम जी
ReplyDeleteसादर अभिवादन !
क्या बात है जी … क्या कहूं आपकी प्रशंसा में ?
बहुत सुंदर सृजन करते हैं आप …
कठिन साधना के प्रतिफल में
तुमसे निश्छल प्यार मिला है
जीवन छीनो , धड़कन छीनो
तुम अपना उपहार न छीनो.
जलने दो तुम “अरुण – हृदय” को
तब ही जग आलोकित होगा
आदिकाल से नियति यही है
तुम मेरे संस्कार न छीनो.
पूरा चुरा लिया हमें आपने हृदय के साथ ! :)
आपके यहां बहुत बहुत देर से मंत्रमुग्ध –सा आपकी कई रचनाएं पढ़ रहा था …
आनन्द आता है श्रेष्ठ सृजन देख कर …
मां सरस्वती कि कृपा बनी रहे ।
हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत बेहतरीन रचना....बधाई.
ReplyDeleteबिना छिद्र बाँसुरिया कैसी
ReplyDeleteबिना साधना कैसी सरगम
बिना प्रेरणा के कवि कैसा
वीणा से तुम तार न छीनो...
लाजवाब पंक्तियाँ! सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति से शानदार रचना लिखा है आपने ! आपकी लेखनी को सलाम!
बिना छिद्र बाँसुरिया कैसी
ReplyDeleteबिना साधना कैसी सरगम
बिना प्रेरणा के कवि कैसा
वीणा से तुम तार न छीनो.
भावमयी ...प्रभावित करती पंक्तियाँ .......
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDeleteपरखना मत ,परखने से कोई अपना नहीं रहता ,कुछ चुने चिट्ठे आपकी नज़र
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वाह अरुणजी, क्या बढ़िया कविता रची है आपने ... मन मोह लिए ..!
ReplyDeleteumda evam manmohak rachana ke liye dhanyavad
ReplyDeleteजलने दो तुम अरूण ह्रिदय को,
ReplyDeleteआदिकाल से नियति यही है,
तुम मे्रे संकार न छीनो।
बेहतरीन रचना , अरूण भाई को मुबारकबाद।
कठिन साधना के प्रतिफल में
ReplyDeleteतुमसे निश्छल प्यार मिला है
जीवन छीनो , धड़कन छीनो
तुम अपना उपहार न छीनो.
बहुत सुन्दर...कविता के भाव और उनका सम्प्रेषण मन को मुग्ध कर देता है और वह कविता में आकंठ डूब जाता है..बधाई..
बड़ी मनमोहक रचना ......
ReplyDeleteकिस-किस बंद को कोट करूँ जब पूरी की पूरी रचना ने मन मुग्ध कर दिया
अरुण जी छंदबद्ध रचना ने मन मोह लिया।
ReplyDeleteआदिकाल से नियति यही है
ReplyDeleteतुम मेरे संस्कार न छीनो.
परिष्कृत भाव!
जलने दो तुम “अरुण – हृदय” को
ReplyDeleteतब ही जग आलोकित होगा
आदिकाल से नियति यही है
तुम मेरे संस्कार न छीनो.
सुन्दर अरुण भाई... धारा सी प्रवाहित रचना...
सादर...