दोहा छन्द
नैसर्गिक दिखते नहीं, श्यामल कुन्तल मीत
लुप्तप्राय हैं वेणियाँ, शुष्क हो गए गीत।।
पैंजन चूड़ी बालियाँ, बिन कैसा श्रृंगार
अलंकार बिन किस तरह, कवि लाये झंकार ।।
घट पनघट घूंघट नहीं, निर्वासित है लाज
बन्द बोतलों में तृषा, यही सत्य है आज ।।
प्रियतम की पाती गई, गए अबोले बैन
रहे न अब वे डाकिया, जिनको तरसें नैन ।।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
नैसर्गिक दिखते नहीं, श्यामल कुन्तल मीत
लुप्तप्राय हैं वेणियाँ, शुष्क हो गए गीत।।
पैंजन चूड़ी बालियाँ, बिन कैसा श्रृंगार
अलंकार बिन किस तरह, कवि लाये झंकार ।।
घट पनघट घूंघट नहीं, निर्वासित है लाज
बन्द बोतलों में तृषा, यही सत्य है आज ।।
प्रियतम की पाती गई, गए अबोले बैन
रहे न अब वे डाकिया, जिनको तरसें नैन ।।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " संभव हो तो समाज के तीन जहरों से दूर रहें “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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