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Friday, January 20, 2012

उस पार ही तेरा खाता है....


ये गठरी संग न जायेगी, क्यों बोझ बढ़ाते जाता है
इस पार नहीं लेखा-जोखा, उस पार ही तेरा खाता है.

गठरी में जितना जोड़ेगा, नामे होगा उस खाते में
गठरी से जितना बाँटेगा, उतना पायेगा जाते में
दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है.............

कितनी विशाल धरती तेरी, सागर तेरे ,ये वन तेरे
क्यों तेरी प्यास नहीं बुझती, आषाढ़ तेरे, सावन तेरे
तू प्यार लुटाकर देख जरा, कण-कण से तेरा नाता है....................

किस वृक्ष ने खाये खुद के फल, कब छत को देख के बरसा घन
कब भेद-भाव से पवन चली, कब धूप ने देखा धनी-निर्धन
तू देख कमा कर प्रेम-प्यार, क्या कागज के टुकड़े कमाता है................

अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है................

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (मध्य प्रदेश)



29 comments:

  1. जीवन का सत्य बहुत सरलता से समझाया है सर!




    सादर

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  2. अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
    अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
    उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है.........शानदार अभिव्यक्ति

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  3. किस वृक्ष ने खाये खुद के फल, कब छत को देख के बरसा घन
    कब भेद-भाव से पवन चली, कब धूप ने देखा धनी-निर्धन
    तू देख कमा कर प्रेम-प्यार, क्या कागज के टुकड़े कमाता है....gajab ke bhaav.atiuttam kavita.....vaah

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  4. परम शक्ति से परिचय करके ही अपना भाग्य-विधाता बना जा सकता है . अनमोल रचना ..

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  5. बेहद सार्थक व सटीक प्रस्‍तुति।

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  6. अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
    अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला

    सत्य की ओर ले जाती रचना ..बहुत सुन्दर है

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  7. सच है...खाली हाथ आए थे..खाली हाथ जाना है...
    बहुत बढ़िया..

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  8. गठरी में जितना जोड़ेगा, नामे होगा उस खाते में
    गठरी से जितना बाँटेगा, उतना पायेगा जाते में
    दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है.............बेहद उम्दा प्रस्तुति।

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  9. जीवन का सच्चा लेखा-झोखा दिखाया आपने .....
    शुभकामनाएँ!

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  10. जीवन के कटु सच की सच्ची अभिवयक्ति......

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  11. पूरे जीवन का लेखा -जोखा सरलता से बता दिया है आपने ...

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    1. satya vachan...

      ये गठरी संग न जायेगी, क्यों बोझ बढ़ाते जाता है
      इस पार नहीं लेखा-जोखा, उस पार ही तेरा खाता है.

      shubhkaamnaayen.

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  12. ये गठरी संग न जायेगी, क्यों बोझ बढ़ाते जाता है
    इस पार नहीं लेखा-जोखा, उस पार ही तेरा खाता है....अरुण जी ! बिल्कुल सही कहा ,प्रेरित करती सच्ची अभिव्यक्ति..

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  13. aapke blog par sari rachnaye mene padi hai ...bahut hi parbhavshali hai ...aapki post ka intajar rahta hai !!

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  14. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

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  15. कोशिश करते है, बहुत गंभीर। आभार

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  16. सटीक पंक्तियाँ रची हैं..... सच तो यही है....

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  17. गठरी में जितना जोड़ेगा, नामे होगा उस खाते में
    गठरी से जितना बाँटेगा, उतना पायेगा जाते में
    दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है..........

    बहुत खूब , लाजबाब ! बहुतेरे कमीने तो कफ़न में भी जेब लगाने का जुगाड़ ढूढ़ रहे है :)

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  18. Har ek pankti kamaal ki hai sir..
    kho sa gaya tha padhte hue..
    bahut bahut bahut sundar rachna.. :)

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  19. सुन्दर रचना आपकी निगम जी बहुत बहुत बधाई हो आपको

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  20. कितनी विशाल धरती तेरी, सागर तेरे ,ये वन तेरे
    क्यों तेरी प्यास नहीं बुझती, आषाढ़ तेरे, सावन तेरे
    तू प्यार लुटाकर देख जरा, कण-कण से तेरा नाता है....................
    Bahut khoob Arun ji .... sach kah ahi pyaar ka saagar khaali nahi hota .... ati sundar ...

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  21. सार्थक रचना निगम जी बहुत ही अच्छा लिखा है आपने जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करती खूबसूरत रचना

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  22. कण कण से तेरा नाता है सच्चिदानंद परंमानंद वाली अभिव्यक्ति है.
    अरुण भाई आपकी यह कविता सर्वश्रेष्ठ है|इसे राजभाषा मास में
    भोपाल सर्किल में पुरष्कृत भी किया गया था.ब्लाग में देकर
    आपने उपकार ही किया है.

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  23. अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
    अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
    उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है................

    adhyatmik chetana ko jagrit karane wali rachan .....abhar Nigam ji

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  24. बिल्कुल सही कहा आपने, आलस्य और पहचान की अक्षमता ही हमारी तड़प और ओढ़ी गयी कठिनाइयों का कारण है. भावनाओं और प्रतिपाद्य से पूर्णतः सहमत. आभार इस प्रस्तुति के लिए.

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  25. बिल्कुल सही कहा आपने, आलस्य और पहचान की अक्षमता ही हमारी तड़प और ओढ़ी गयी कठिनाइयों का कारण है. भावनाओं और प्रतिपाद्य से पूर्णतः सहमत. आभार इस प्रस्तुति के लिए.

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  26. अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
    अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
    उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है................

    आपकी प्रस्तुति अनुपम,प्रेरक और शिक्षाप्रद है.
    पढकर आनन्दित हो गया है मन.
    खुबसूरत संग्रहणीय प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार,अरुण जी.

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  27. अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
    अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
    उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है

    अंतस् में ही सब कुछ है, हमें महसूस करने की जरूरत है।
    एक सशक्त रचना।

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