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Friday, January 6, 2012

घर......मकान ????


सोचता हूँ
यह घर है या मकान
क्यों हर घड़ी
घुटन-घुटन सी लगती है

मैंने बनाया था
एक बड़ा सा दरवाजा
लगा रखी थी तख्ती
लिखा था जिसपर
जुनूं की जिसको लगी हो
यहाँ चले आये.

बना रखी थी
हवादार बड़ी खिड़कियाँ
कि हवा भी यहाँ आये
तो उसे सुकून मिले.

बना रखी थी छत
कवेलू की
रोशनी भी आये
तो छन-छन कर.

कब, क्यों और कैसे
दीवारें ऊग आई
घर को तब्दील कर दिया
आलीशान मकान में
अंदर तो अंदर
दरवाजे के बाहर भी
खड़ी हो गई दीवारें.

छत भी पक्की हो गई.
भटक गई रोशनी
पलट गई हवा
और मैं बाहर ही रह गया
सोचने के लिए
कि यह 
घर है या मकान.

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (मध्य-प्रदेश)


15 comments:

  1. कब, क्यों और कैसे
    दीवारें ऊग आई
    घर को तब्दील कर दिया
    आलीशान मकान में
    अंदर तो अंदर
    दरवाजे के बाहर भी
    खड़ी हो गई दीवारें.
    .....जो हवा बह रही है ख्वाहिशों से अनजान , उसका असर है

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  2. बहुत ही अच्छा लिखे हैं सर!


    सादर

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  3. आपकी पोस्ट पढ़कर किसी का एक शेर याद आ गया:-

    एक वीराना जहाँ उम्र गुज़ारी मैंने,
    तेरी तस्वीर लगा ली है तो घर लगता है.

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  4. वाह वाह...
    अति सुन्दर..

    बना रखी थी
    हवादार बड़ी खिड़कियाँ
    कि हवा भी यहाँ आये
    तो उसे सुकून मिले....
    बहुत खूब सर...

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  5. khoobsoorat udgaar vyakt kiye hai .achchaa laga

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  6. बेहतरीन अभिव्यक्ति ..

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  7. भावपूर्ण बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर रचना!!!!वाह अरुण जी,,बधाई
    welcome to new post--जिन्दगीं--

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  8. शानदार रचना अरुण भाई....
    सादर बधाई...

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  9. ख़ूबसूरत रचना ! शानदार प्रस्तुती!

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  10. @@ रश्मि प्रभा... has left a new comment on your post "घर......मकान ????":

    कब, क्यों और कैसे
    दीवारें ऊग आई
    घर को तब्दील कर दिया
    आलीशान मकान में
    अंदर तो अंदर
    दरवाजे के बाहर भी
    खड़ी हो गई दीवारें.
    .....जो हवा बह रही है ख्वाहिशों से अनजान , उसका असर है
    Posted by रश्मि प्रभा... to अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ) at January 6, 2012 10:10 AM

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  11. @@@@चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ has left a new comment on your post "घर......मकान ????":

    बहुत ख़ूब!!
    Posted by चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ to अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ) at January 7, 2012 8:07 AM

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  12. बेजोड़ भावाभियक्ति....

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  13. आज कल घर का एहसास खत्म होता जा रहा है ..मकान ही मिलते हैं ..सुन्दर अभिव्यक्ति

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  14. बहुत ऊंचे पाए की रचना क्वार्टर कहानी याद आ गई .घर कहाँ बिला गए इस दौर में यहाँ तो सब बेगाने हैं .सबके सब अजनबी से भी हैं हरकारे भी .

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