तकलीफ :
लगभग एक माह
पूर्व बेटे का विदेश से फोन आया था कि वह मिलने आ रहा है. मन्नू लाल जी खुशी से
झूम उठे. पाँच वर्ष पूर्व बेटा नौकरी करने विदेश निकला था. वहीं शादी भी कर ली थी.
अब एक साल की बिटिया भी है. शादी करने की बात बेटे ने बताई थी. पहले तो माँ–बाप
जरा नाराज हुये थे, फिर यह सोच कर कि बेटे को विदेश
में अकेले रहने में कितनी तकलीफ होती होगी, फिर बहू भी तो भारतीय ही थी, अपने-आप को मना ही लिया था.
मन्नू लाल जी
और उनकी पत्नी दोनों ही साठ पार कर चुके थे. पेंशन में गुजारा आसानी से हो जाता
था. बेटे ने कभी पैसे नहीं भेजे तो क्या हुआ, विदेश में उसके अपने खर्च भी तो बहुत होंगे. भविष्य-निधि के पैसों
से बेटे की पढ़ाई पूरी की थी. नौकरी के समय भी कुछ पैसे खर्च हुये थे. फिर भी लगभग
पचास हजार बच ही गये थे. बैंक में फिक्स्ड
कर दिया था.
मन्नू लाल जी
ने अपनी धर्मपत्नी से कहा – बेटा बहू और बिटिया के साथ विदेश से आ रहे है. वहाँ
कितनी सुविधा में रहते होंगे अपने घर में उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी. सोच रहा हूँ
उनके लिये एक कमरा अच्छे से तैयार कर देते हैं. नये पलंग, नई चादरें ले लेते हैं और हाँ ! एक ए.सी. भी लगवा लेते हैं. उनकी
धर्मपत्नी ने भी सहर्ष हामी भर दी.
बस कमरे को
सजाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं. बैंक का फिक्स्ड डिपॉजिट गया, धर्मपत्नी की दो चूड़ियाँ भी गईं मगर यह सब बेटे के लिये ही तो
किया है, किसी तरह की तकलीफ भला क्यों होती ? नियत तिथि भी आई. बेटा, बहू और उनकी
बिटिया भी आये. द्वार पर ही आरती से उनका स्वागत हुआ. मन्नू लाल जी और उनकी
धर्मपत्नी की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा.
दोनों ने
बेटे-बहू को आशीर्वाद दिया. पोती को गोद में उठाते हुये मन्नूलाल जी चौंके, अरे ! बेटा तुम्हारा सामान कहाँ है ? बेटे ने कहा- पापा दर असल बात ये है कि हमने शहर मे होटल में एक
कमरा बुक करा लिया था ताकि आपको और माँ को कोई तकलीफ न हो. सामान वहीं है. मन्नूलाल
जी ने कुछ नहीं कहा और पोती को दुलारने लगी. उनकी धर्मपत्नी भी अधरों पर मुस्कान
बिखेरते हुये बहू को साथ में लेकर सोफे पर बैठ गई. बैठक में टंगे पिंजरे का तोता
मचल कर टें- टें करने लगा मानों आज उसने तकलीफ शब्द का सही अर्थ पा लिया हो.
अरुण कुमार
निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
तकलीप है तो भई बैब को जो ज्यादा पढ़ा दिया । सुंदर संदेश देने के लिये आपको बधाई
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1852 में दिया गया है
ReplyDeleteधन्यवाद
समय के साथ सब यों ही बदल जाता है - तकलीफ़ मता-पिता की या ख़ुद की!
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