पूर्ण
शून्य है,शून्य ब्रम्ह है
एक अंश
सबको हर्षाये
आधा और
अधूरा होवे,
शायद प्रेम
वही कहलाये
मिट जाये
तन का आकर्षण
मन चाहे बस
त्याग-समर्पण
बंद लोचनों
से दर्शन हो
उर में
तीनों लोक समाये
उधर पुष्प
चुनती प्रिय किंचित
ह्रदय-श्वास
इस ओर है सुरभित
अनजानी
लिपियों को बाँचे
शब्दहीन
गीतों को गाये
पूर्ण
प्रेम कब किसने साधा
राधा-कृष्ण
प्रेम भी आधा
इसीलिये
ढाई आखर के
ढाई ही
पर्याय बनाये .....
अरुण कुमार
निगम
आदित्य नगर, छत्तीसगढ़
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय
बहुत सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteप्रेम में क्या आधा क्या पूरा ... प्रेम तो सम्पूर्ण ही है ...
ReplyDeleteगज़ब का आकर्षण है इन पंक्तियों में अरुण जी ...
कल 27/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
सुन्दर रचना।।
ReplyDeleteनई चिट्ठियाँ : ओम जय जगदीश हरे…… के रचयिता थे पंडित श्रद्धा राम फिल्लौरी
नया ब्लॉग - संगणक