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Sunday, November 17, 2013

कैसे कहूँ आजाद है...........

कैसे कहूँ आजाद है
पसरा हुआ अवसाद है

कण-कण कसैला हो गया,पानी विषैला हो गया
शब्द आजादी का पावन,  अर्थ मैला हो गया.
नि:शब्द हर संवाद है

अपनी अकिंचित भूल है,कुम्हला रहा हर फूल है
सींचा जिसे निज रक्त से, अंतस चुभाता शूल है
अब मौन अंतर्नाद है

कुछ बँध गये जंजीर से, कुछ बिंध गये हैं तीर से
धृतराष्ट क्यों देखे भला, कितने कलपते पीर से
सत्ता मिली, उन्माद है

संकल्प हितोपदेश का,अनुमान लो परिवेश का
तेरा नहीं मेरा नहीं , यह प्रश्न पूरे देश का      
तुममें छुपा प्रहलाद है

अब तो सम्हलना चाहिये,अंतस मचलना चाहिये
जागो युवा रण बाँकुरों,  मौसम बदलना चाहिये
अब विजय निर्विवाद है

अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

12 comments:

  1. अपने समूचे परिवेश को खंगालती अंत में आशावादी झलक लिए है ये रचना।

    संकल्प हितोपदेश का,अनुमान लो परिवेश का
    तेरा नहीं मेरा नहीं , यह प्रश्न पूरे देश का
    तुममें छुपा प्रहलाद है

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  2. अंग्रेज भारत आए, राज किया और चले गए। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, किन्तु भारत और भारतीय शिक्षा स्वतन्त्र न हुवे। स्वतंत्रता संग्राम अविराम है, अद्यावधि राजनीति, खेल और अभिनय के महारथी इन त्राणहिनों के सम्मुख हैं.....

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  3. अब तो सम्हलना चाहिये,अंतस मचलना चाहिये
    जागो युवा रण बाँकुरों, मौसम बदलना चाहिये
    अब विजय निर्विवाद है
    बहुत सुंदर.

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  4. बहुत बहुत बधाई -
    इस सुन्दर रचना पर-
    स्थानांतरण के बाद की पहली प्रस्तुति-
    धारदार-
    सादर

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  5. अब तो सम्हलना चाहिये,अंतस मचलना चाहिये
    जागो युवा रण बाँकुरों, मौसम बदलना चाहिये
    अब विजय निर्विवाद है...
    वाह !!! सर बहुत ही बढ़िया ...सार्थक भाव लिए सशक्त एवं प्रभावशाली रचना।

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  6. लाजवाब गुरुदेव
    नमस्कार !
    आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [18.11.2013]
    चर्चामंच 1433 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    सादर
    सरिता भाटिया

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार को (18-11-2013) कार्तिक महीने की आखिरी गुज़ारिश : चर्चामंच 1433 में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. बहुत बढ़िया....
    अपनी अकिंचित भूल है,कुम्हला रहा हर फूल है
    सींचा जिसे निज रक्त से, अंतस चुभाता शूल है
    अब मौन अंतर्नाद है
    वाह...
    बधाई इस सार्थक सृजन के लिए...
    सादर
    अनु

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  9. बहुत खूब ... सोचने को विवश करती .. इतिहास से भविष्य की और झांकती ... लाजवाब शशक्त रचना अरुण जी ...

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  10. बहुत ही बेहतरीन रचना...

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  11. ओजपूर्ण रचना...उठो जागो का सन्देश देती...

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