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[ दुर्मिल सवैया – 8 सगण यानि 8 IIS ]
लछमी घर की अति नाज पली , मुख-माथ मनोहर तेज रहे
कल की कलिका ससुराल चली,नम नैनन से सब भेज रहे
मनुहार करें मनमोहन से , सँवरी सजती सुख-सेज रहे
बिटिया भगिनी भयभीत भई , पितु भ्रात दहेज सहेज रहे ||
तन मानव का मति दानव की,धन-लोलुप निर्मम दुष्ट बड़े
उजले कपड़े नकली मुखड़े , मुँह फाड़ खड़े अकड़े-अकड़े
बन हाट बजार बियाह गये , विधि नीति कुछेक गये पकड़े
कुछ युक्ति करो भय मुक्त करो,यह रीत बुरी जड़ से उखड़े ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (म.प्र.)
अरुण निगम के ब्लॉग पर, होता वाद विवाद ।
ReplyDeleteविगत पोस्टों पर हुआ, पाठक मन क्या याद ?
पाठक मन क्या याद, सशक्तिकरण नारी का ।
बाल श्रमिक पर काव्य, करो अब दाहिज टीका ।
रचे सवैया खूब, लीजिये हिस्सा जम के ।
रहें तीन दिन डूब, पोस्ट पर अरुण निगम के ।।
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Deleteहोता वाद विवाद पर ,आनंद है आता
Deleteसब रखते अपनी बात,एक समा छा जाता,,,
दाहिज पर टीका करें,हम तुम मिलजुल आज
Deleteकसें कसौटी पर जरा , कितना सभ्य समाज
कितना सभ्य समाज , बढ़े हैं कितना आगे
कितने नींद में अबतक, कितने अबतक जागे
बिटिया हो खुशहाल , न होवे पिता अपाहिज
जीना करे हराम , दैत्य - दानव है दाहिज ||
बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,
ReplyDeleteबन हाट बजार बियाह गये , विधि नीति कुछेक गये पकड़े
कुछ युक्ति करो भय मुक्त करो,यह रीत बुरी जड़ से उखड़े,,,,,
अरुण जी,,,,आप समाज में व्याप्त कुरीतियों को अपनी रचनाओं के माध्यम से रखते है,जिस पर चर्चा करना अच्छा लगता है,,आपका प्रयास प्रसंसनीय है,,,,बधाई,,,
RECENT POST ...: यादों की ओढ़नी
MY RECENT POST: माँ,,,
आ.धीरेंद्र जी ,
Deleteआये समय निकाल कर ,भ्राता सम्माननीय
स्वागत मैं मन से करूँ ,आप हैं आदरणीय
आप हैं आदरणीय , लाभ अनुभव का दीजे
बेशकीमती सीख , यहाँ दे उपकृत कीजे
हो दहेज का अंत , किस तरह दियो बताये
किस विधि मिटे कलंक,सुखद दिन कैसे आये ||
भाई रही संभालती, उसे डांट स्वीकार्य ।
ReplyDeleteदो संतानों में बड़ी, सुता करे गृह कार्य ।
सुता करे गृह कार्य, करे वर्षों वह सेवा ।
दोयम दर्जा मिला, मिले कब सेवा मेवा ।
जाती अब ससुरारि, बुजुर्गों बाँट कमाई ।
करो चवन्नी खर्च, बचा पाए सब भाई ।।
उसको बढते देख पिता का , दिल दुःखों से भर जाता.
Deleteलाऊं कहाँ से दहेज सोचकर,पिताका मन है घबराता!
सारी दुनिया कहती है आज, कि भेद नही बेटा- बेटी में,
यही सोच कर लुटा दिया ,पिता ने जो धन था गठरी में!
पाई - पाई जोड़ता , बाबुल टूटो जाय
Deleteये दहेज दानव भया,बिटिया-मन अकुलाय
बिटिया-मन अकुलाय,बनी क्यों ऐसी रीतें
लालच की बुनियाद ,खड़ी घर में ही भीतें
माँ शंकित चुपचाप , परेशानी में भाई
बाबुल टूटो जाय , जोड़ता पाई - पाई ||
एक पक्ष यह भी --
Deleteदाहिज दुल्हन माँग रही, अपनी जननी ढिग माँग सुनावे |
माँग भरी जब जाय रही, वह माँग रही तब जो मन भावे |
जो मइके कम मान मिले, भइया जियरा कसके तड़पावे |
दाहिज का यह रोग बुरा, पहिले ज़र बाँट जमीन बटावे | |
बेटी को ससुराल भेजने का जेवन्त चित्र खींच दिया है .... दहेज प्रथा को लोग खत्म कहाँ कर रहे हैं और पोषित कर रहे हैं ....
ReplyDeleteदाहिज यदि सच में बुरा, बदल दीजिये रीत |
Deleteकन्या को छूछे विदा, कर दो मेरे मीत |
कर दो मेरे मीत, मगर यह तो बतलाओ |
जायदाद अधिकार, बीच में क्यूँकर लाओ |
अजब गजब कानून, दोगला दिखे अपाहिज |
या तो दोनों गलत, अन्यथा सच्चा दाहिज ||
करना बात दहेज की,पहले लेना छोड
Deleteतभी बात बन पायगी,देने से मुख मोड,,,,
मानी जाये हार क्यों,क्यों तोड़ें हम आस
Deleteकामयाब होंगे अगर , करते रहें प्रयास
करते रहें प्रयास ,दिवस सुख के आयेंगे
मन में है विश्वास,बुरे दिन मिट जायेंगे
लेंगे नहीं दहेज , नहीं लेंगे कुर्बानी
सब लेवें संकल्प,न होगी अब मनमानी ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteक्या कहने..
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति...
बेहद प्रभावशाली...
:-)
ReplyDeleteदुर्मिल सवैया रूप अर्थ गाम्भीर्य में भी उत्तम है रूप में भी .भाई साहब हिंदी में तो यह शब्द सुसराल है क्या ससुराल जन रूप है आंचलिक प्रयोग है .सास
सुसर ,सुसरा आदि बोली खड़ी बोली में प्रचलित हैं .
अभियंता की सर्जना,जग में उत्तम होत
ReplyDeleteहै मेरी शुभकामना , रहे सुमंगल जोत |
बहुत बढ़िया अरुण जी.... छंद युक्त कविता अपना अलग ही मज़ा है.
ReplyDeletebehad prabhavi savaiyaan.
ReplyDeleteदुर्मिल सवैया में रची सुन्दर सार्थक रचना प्रस्तुति हेतु आभार ..
ReplyDeleteजानती हूँ बहुत कठिन काम है यह..नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें
वाह! बहुत ही सुन्दर अरुण जी.
ReplyDeleteआपकी काव्य प्रतिभा लाजबाब है.
आप एक एक करके समाज के बुराइयों पर जो सटीक प्रहार कर रहे हैं काबिले तारीफ है । दहेज़ के लोभियों को वापिस घर भेज देना चाहिये बिना दुल्हिन के ।
ReplyDeleteछा गए भाव अभिव्यंजना और रागात्मक अभिव्यक्ति में अरुण भाई निगम
ReplyDeleteठेस
दर्शकदीर्घा में खड़े, वृद्ध पिता अरु मात
बेटा मंचासीन हो , बाँट रहा सौगात
वक्रोक्ति / विरोधाभास
बाँटे से बढ़ता गया ,प्रेम विलक्षण तत्व |
दुख बाँटे से घट गया,रहा शेष अपनत्व ||
हास्य-व्यंग्य
छेड़ा था इस दौर में , प्रेम भरा मधु राग
कोयलिया दण्डित हुई , निर्णायक हैं काग
विलक्षण व्यंग्य आज की खान्ग्रेस पर हम तो कहते ही काग रेस हैं जहां काग भगोड़ा प्रधान है .
सौंदर्य
कुंतल कुण्डल छू रहे , गोरे - गोरे गाल
लज्जा खंजन नैन में,सींचे अरुण गुलाल
कान्हा(काना ) ने कुंडल ल्यावो रंग रसिया ,
म्हार हसली रत्न जड़ावो सा ओ बालमा .
नायिका का तो नख शिख वर्रण और श्रृंगार ही होगा ......
"--- श्रीमती जी हिन्दी में एम् ए हैं -हाँ सामान्य घरेलू महिला हैं---यूँही उनकी नज़र एक दोहे पर पडी ..अनायास ही बोल पड़ीं ..
" हैं! ये क्या दोहा है...-- कुंतल तो कुंडल छूएंगे ही यह क्या बात हुई |"ख़ुशी की बात हैं हम तो कहतें हैं डी .लिट होवें भाभी श्री .पर डिग्री का साहित्य से क्या सम्बन्ध हैं
?पारखी दृष्टि से क्या सम्बन्ध है है तो कोई बताये और प्रत्येक सम्बन्ध सौ रुपया पावे .
सौन्दर्य देखने वाले की निगाह में है ,और महिलायें कब खुलकर दूसरी की तारीफ़ करतीं हैं वह तो कहतीं हैं साड़ी बहत स्मार्ट लग रही है यह कभी नहीं
कहेंगी यह साड़ी आप पर बहुत फब रहीं हैं साड़ी को भी आप अपना सौन्दर्य प्रदान कर रहीं हैं मोहतरमा ..तो साहब घुंघराले बाल ,गोर गाल ,लातों में
उलझा मेरा लाल -
घुंघराले बाल ,
गोर गाल ,
गोरी कर गई कमाल ,
गली मचा धमाल ,
मुफ्त में लुटा ज़माल .
दोहे भाव जगत की रचना है जहां कम शब्दों में पूरी बात कहनी होती है एक बिम्ब एक चित्र बनता है ,ओपरेशन टेबिल पर लिटा कर स्केल्पल चलाने की
चीज़ नहीं हैं .
पढ़ो ! अरुण जी के दोहे और भाव गंगा, शब्द गंगा में डुबकी लगाओ .
@ कल की कलिका ससुराल चली,नम नैनन से सब भेज रहे
ReplyDeleteआजकल यही सब महसूस कर रहा हूँ भाई ...
आभार !
तन मानव का मति दानव की,धन-लोलुप निर्मम दुष्ट बड़े
ReplyDeleteउजले कपड़े नकली मुखड़े , मुँह फाड़ खड़े अकड़े-अकड़े
क्लिष्ट रिदमिक छंद में एक सशक्त और भावप्रवण रचना।
शुभकामनाएं, निगम जी।
आपके ब्लाग पर आज आने का सौभाग्य मिला, आपकी काव्य प्रतिभा को नमन। बहुत अच्छा लिखते हैं आप , बहुत शास्त्रीय भी ।
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