मेरा महबूब नजर से दूर
नजारों में कहीं खोया
ये था मंजूर मगर अब वो
सितारों में कहीं खोया.
चमन बदले, वतन बदले
मगर एहसास रहता है
मेरा महबूब, मेरा साथी
शरारों में कहीं खोया.
शिकायत क्यूँ खिजाँ से हो
सहारा दे रही है जो
मेरा महबूब, भरे मौसम
बहारों में कहीं खोया.
भँवर में डूबने वालों को
किस्मत से गिला कैसा
मेरा महबूब बहुत नजदीक
किनारों में कहीं खोया.
न ये पूछो कि कब्रों में
भटकता है अरुण क्यूंकर
हकीकत है मेरा साथी
मजारों में कहीं खोया.
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर ,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
{ प्रिय गायक मुकेश की स्मृति में 27 अगस्त 1976 को रचित }
यादों में बसे हैं महान गायक मुकेश ..अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteअरुण भाई... बहुत ही प्यारे, सुन्दर ढंग से आपने याद किया है महान गायक को.... एकदम गुनगुनाने को आमंत्रित करती है आपकी रचना...
ReplyDeleteसादर बधाई...
स्वर साधक स्व. मुकेश को भावभीनी श्रद्धांजली...