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Wednesday, July 29, 2020

"मोर संग चलव........" (भाग - 1)


#  मधुर छत्तीसगढ़ी गीतों का स्वर्णिम इतिहास #

"मोर संग चलव........" (भाग - 1)

इन तीन शब्दों के साथ ही कवि-गीतकार-गायक लक्ष्मण मस्तुरिया की साँवली-सलोनी सूरत आँखों के सामने झूलने लगती है। मैं सोचने लगता हूँ कि क्या यह सूरत केवल लक्ष्मण मस्तुरिया की है ? तो दिल से आवाज आती है - नहीं , यह सूरत तो मेरे छत्तीसगढ़ की है। वही छत्तीसगढ़ जिसके दामन में खनिज, जल, वन-संपदा, वनोपज, अनाज, ऊर्जा, संस्कृति, साहित्य, संगीत और न जाने कितने अनमोल रत्नों का विपुल भंडार भरा है। हाँ-हाँ, वही छत्तीसगढ़ जिसने अपनी गोद में न जाने कितने अनजान अतिथियों को शरण दे दी, वही छत्तीसगढ़ जिसके शरणार्थी ही उसके मालिक बन बैठे। बिल्कुल वही छत्तीसगढ़ जिसे उसके अपनों ने ही लूटा। जी हाँ ! वही छत्तीसगढ़ जिसके हिस्से में सदैव उपेक्षा के दंश आए फिर भी वह कहता रहा - "दया मया ले जा रे मोर गाँव ले। वही छत्तीसगढ़  जो अपना सर्वस्व लुटा कर भी गर्व से गाता रहा है - "मैं घर हारे जग जीता अंव"। मोर संग चलव रे, मोर संग चलव....

"मोर संग चलव" केवल गीत नहीं है, यह एक आह्वान है जो सोयी हुई आत्मा को जगाता है। यह गीत स्वाभिमान का रक्षा-कवच है। यह गीत छत्तीसगढ़ की अस्मिता का प्रतीक है। यह गीत गिरे-थके-परे-डरे लोगों की ओर सहारे के लिए बढ़ा हुआ हाथ है। यह गीत सर्वहारा वर्ग की सूनी आँखों में रंगीन स्वप्नों के बीज बोने का प्रयास है। यह गीत पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के आंदोलन का प्रेरणा गीत है। यह गीत दिल्ली के लाल किले की प्राचीर से गूँजती छत्तीसगढ़ी भाषा की बुलंदी है। और तो और यह गीत सियासी चुनावों का विजय-मंत्र है। चुनावी जीत के लिए "मोर संग चलव" का भरपूर प्रयोग किये और सत्ता पाते ही भूल गए। क्या लक्ष्मण मस्तुरिया को भूल गए ? नहीं, नहीं वे तो छत्तीसगढ़ को भूल गए। लक्ष्मण मस्तुरिया तो जनमानस के हृदय में बसेरा बना चुके हैं। छत्तीसगढ़िया-दिल की सत्ता पर उनका एक-छत्र राज्य है अउ यह राज्य हमेशा रहेगा।

20 जनवरी 1974 को दिल्ली के लाल किले से लक्ष्मण मस्तुरिया के स्वरों में छत्तीसगढ़ी भाषा बुलंद हुई थी एक आह्वान के साथ - "मोर संग चलव रे"। इस गीत ने चंदैनी गोंदा के मंच से जनमानस को उद्वेलित किया था। "मोर संग चलव" शीर्षक से लक्ष्मण मस्तुरिया के गीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ था।  - मोर संग चलव" , जी हाँ ! इसी नाम से एक छत्तीसगढ़ी फ़िल्म भी बनी थी। कथा, संवाद और गीत लक्ष्मण मस्तुरिया के थे। निर्माता रमेश अग्रवाल और निर्देशक रवि चौधरी थे। इस फ़िल्म के गीतों को लक्ष्मण मस्तुरिया, अनुराधा पौड़वाल, अभिजीत, साधना सरगम, सुनील सोनी, अल्का चंद्रकार, पल्लवी, सुमन मिश्रा, सूरज और दिलीप षडंगी ने स्वरों से सजाया था। मोर संग चलव का शीर्षक गीत सुप्रसिद्ध गायक सुरेश वाडकर ने बहुत की मधुर आवाज में गाया था लेकिन सुरेश वाडकर का गाया गीत, लक्ष्मण मस्तुरिया के गाए गीत पर छाने में असमर्थ रहा। छत्तीसगढ़ के श्रोताओं ने मोर संग चलव गीत को मस्तुरिया जी की आवाज में ही सुनना स्वीकार किया क्योंकि उनकी आवाज में छत्तीसगढ़ की माटी की सोंधी सुगंध समायी थी। 

"मोर संग चलव" गीत ने वर्ष 1982 में छत्तीसगढ़ी गीत और संगीत को न केवल  छत्तीसगढ़ के गाँव-गाँव तक पहुँचाने में क्रांतिकारी भूमिका निभायी बल्कि देश की सीमाओं से दूर सात समुन्दर पार तक पहुँचा दिया।

आपके मन में एक प्रश्न जरूर आएगा - कैसे ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए आप इस श्रृंखला के भाग - 2 की प्रतीक्षा कीजिये। 

आलेख - अरुण कुमार निगम

(चित्र फ़िल्म मोर संग चलव के कैसेट निर्माता KK से साभार)

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