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Tuesday, May 28, 2019

कोचिंग सेंटर

कोचिंग सेंटर पर शायद एक दकियानूसी विचार.......

हमने साठ के दशक में प्राथमिक शाला के पाठ्यक्रम में बालभारती के अलावा सुलभ बाल कहानियाँ भी पढ़ीं। इनमें नैतिक शिक्षा देती हुई कहानियाँ हुआ करती थीं। इस युग में नैतिकता को पाठ्यक्रम में स्थान शायद नहीं है।

पहले हम बाजार की दुकान जाकर समान लाते थे, अब दुकानें घर पहुँच सेवाएँ दे रही हैं। विदेशी कंपनियों के आगमन ने उपभोक्तावाद को जन्म दिया। वस्तु और सेवा के साथ-साथ शिक्षा का भी बाजारीकरण हो गया। बाजार में दुकानें बढ़ीं तो प्रतिस्पर्धाएँ बढ़ीं। इसी कारण घर पहुँच सेवा ने जन्म लिया। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुले, विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी। प्रतिस्पर्धा बढ़ी। कोचिंग की दुकानें खुलीं। स्कूल और कोचिंग सेंटर ने बाजार का रूप ले लिया। और फिर...

सपने झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए श्रृंगार सभी, बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

बच्चों का कैरियर बनाने में माँ बाप कैरियर विहीन हो गए। चेहरे पर मुखौटा लगा कर गर्व से बता रहे हैं कि बेटा कनाडा में है, बेटी ऑस्ट्रेलिया में है, वगैरह वगैरह। लेकिन उनका दिल जानता है कि कैरियर बखान के मखमली पर्दे के पीछे दीमक लगा हुआ एक जर्जर दरवाजा है।

हरक्यूलिस, एटलस, हीरो सायकिल के जमाने में एक बच्चे को हैंडिल में पिंजरा फँसा कर और दूसरे बच्चे को कैरियर में बिठा कर शहर और बाग की सैर कराने वाला पिता अब केयर के लिए तरस रहा है। फिर भी स्कूल और कोचिंग सेंटर फल फूल रहे हैं क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में प्रगतिशील विचार ही तो काम आते हैं। दकियानूसी विचारों को भला कौन अपनाता है।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग
छत्तीसगढ़

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 29/05/2019 की बुलेटिन, " माउंट एवरेस्ट पर मानव विजय की ६६ वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. करे भी क्या अभिभावक...एक दौड़ सी लगी है!

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