रोजी रोटी की जुगाड़ में -चल पड़े हैं कमाने को
छोटा-बड़ा कोई काम मिले -इन हाथों के पैमाने को
हमको खुद
पर नाज नहीँ-जीने का है अंदाज
यही
जो मिल जाए रूखी-सूखी-पेट की आग बुझाने को
जो मिल जाए रूखी-सूखी-पेट की आग बुझाने को
कल की फिकर कभी
करते नही-बारिश धूप
से डरते नही
फुटपाथ पर कटती हैं रातें-अगली अल सुबह जगाने को
फुटपाथ पर कटती हैं रातें-अगली अल सुबह जगाने को
आँखो में
ख्वाब जगाये थे-जब
गाँव छोड़कर आये थे
शहरों की भीड़ में खोए ऐसे-मिले धूल धुआँ ही खाने को
शहरों की भीड़ में खोए ऐसे-मिले धूल धुआँ ही खाने को
कहने को घर होता
है प्यारा-झुग्गी में होता
है गुजारा
हम मेहनतकश मजदूर चले-फिर औरों का घर बनाने को ।
हम मेहनतकश मजदूर चले-फिर औरों का घर बनाने को ।
सपना-निगम---------
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-05-2015) को "सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं" (चर्चा अंक-1963) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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