पंचों
की बैठक बुलवा कर , क्यों शामत बुलवाई है
जिसके
दिल में चोर छुपा हो , देता वही सफाई है |
ना समझी
है दुनियादारी , जिसका दिल बच्चे जैसा
वही कैद होता जेलों में
, घूम रहा दंगाई है |
भीड़
बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
समझ
नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है |
अदल
बदल कर पहन रहा है , दो कुरते पखवाड़े भर
इक दिन
हँस कर बोला मुझसे, महँगी बहुत धुलाई है |
हंसों
से कछुवों ने गुपचुप कुछ सौदे हैं कर डाले
पूछे
कौन समंदर से तुझमें कितनी गहराई है |.
अरुण
कुमार निगम
आदित्य
नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय
नगर, जबलपुर (म.प्र.)
(ओपन बुक्स ऑन लाइन के तरही मुशायरा में शामिल मेरी गज़ल)
भीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
ReplyDeleteसमझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है |
वाह ... हर बात सटीक ...खूबसूरत गजल
सटीक ।।
ReplyDeleteआभार ।।
ना समझी है दुनियादारी,जिसका दिल बच्चे जैसा
ReplyDeleteवही कैद होता जेलों में,घूम रहा दंगाई है|
बेहतरीन ग़ज़ल !!!
बहुत सुन्दर और सटीक रचना..अरुण जी..आभार..
ReplyDeleteभीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
ReplyDeleteसमझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है,
बहुत नायाब अभिव्यक्ति ,,,सुंदर गजल ,,,,
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,
सार्थकता लिए बेहतरीन रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर:-)
वाह! सटीक चोट ...महंगाई की गहराई पर !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर...
ReplyDeleteपंचों की बैठक बुलवा कर , क्यों शामत बुलवाई है
जिसके दिल में चोर छुपा हो , देता वही सफाई है |
बेहतरीन..........
सादर
वाह! बहुत सुंदर... मुशायरे के अंतिम पड़ाव में नेट की परेशानी के चलते शामिल नहीं हो पाया था....
ReplyDeleteसादर बधाई स्वीकारें सुंदर गजल के लिए....
जिसके दिल में छोर छुपा हो देता वही सफाई है
ReplyDeleteबहुत बहुत सच्चाई लिए रचना |
आशा
भीड़ बढ़ी है बाजारों में, यार जरा सा आ जाना |
ReplyDeleteगम खाया है बहुत दिनों तक, इक मुस्कान खिला जाना |
मंहगाई बेजार किये जब, विरह गीत बेजा गाई-
दूरभाष बेतार किये पर , तार तार अरमान मिटाई-
पिछली मुलाक़ात मंहगी अति, सालों ने क्या करी धुलाई -
नजर बचा आ मन्दिर पीछे, घूम रहे हैं दंगाई -
सावन भी प्यासा का प्यासा, मन-मयूर हरसा जाना |
गम खाया है बहुत दिनों तक, इक मुस्कान खिला जाना ||
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,सुंदर गजल ,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST....काव्यान्जलि...:चाय
क्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 02-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-928 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
क्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 02-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-928 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
हंसों से कछुवों ने गुपचुप कुछ सौदे हैं कर डाले
ReplyDeleteपूछे कौन समंदर से तुझमें कितनी गहराई है |.
बहुत सुन्दर है . बहुत बढ़िया प्रस्तुति .. .कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
रविवार, 1 जुलाई 2012
कैसे होय भीति में प्रसव गोसाईं ?
डरा सो मरा
http://veerubhai1947.blogspot.com/
वाह ... ...खूबसूरत गजल
ReplyDeleteनिगम जी कि ये वाली कविता वास्तव मे बहुत सुन्दर है ,
ReplyDeleteअदल बदल कर पहन रहा है , दो कुरते पखवाड़े भर
इक दिन हँस कर बोला मुझसे, महँगी बहुत धुलाई है |
हंसों से कछुवों ने गुपचुप कुछ सौदे हैं कर डाले
पूछे कौन समंदर से तुझमें कितनी गहराई है |.
आभार
सामाजिक व्यंगात्मक रचना ....
ReplyDeleteना समझी है दुनियादारी , जिसका दिल बच्चे जैसा
ReplyDeleteवही कैद होता जेलों में , घूम रहा दंगाई है | ye line sabse acchi lagi
वाह ...बहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कटाक्ष. इशारों इशारों में बहुत गहरी बातें कह डाली.
ReplyDeleteमुझे तो हर एक पंक्ति बहुत खूबसूरत एवं लाजवाब लगी kanu :)सटीक बात कहती सार्थक रचना...बहुत बढ़िया लिखा है सर आपने शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया....सुंदर कटाक्ष.....
ReplyDeleteभीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
ReplyDeleteसमझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है ...
Surprisingly a great contradiction is prevailing in air, which is keeping us confused...
.
हर शेर में दुनिया की वास्तविकता पर गहरी नज़र. शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteभीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
ReplyDeleteसमझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है ।
गहरा कटाक्ष है, निगम जी,
बधाई।
bahut sundar ghazal arun ji
ReplyDeleteगजल की हर लाईन गंभीर चोट कर रही है
ReplyDeleteउम्दा रचना है