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Sunday, July 1, 2012

भीड़ बढ़ी है बाजारों में


पंचों  की  बैठक  बुलवा कर , क्यों शामत  बुलवाई है
जिसके  दिल  में  चोर  छुपा  हो  ,  देता वही सफाई है |

ना  समझी है  दुनियादारी , जिसका दिल बच्चे जैसा
वही    कैद    होता   जेलों  में   ,   घूम   रहा  दंगाई   है  |

भीड़  बढ़ी  है  बाजारों  में ,  कितने   चाँदी   काट  रहे
समझ  नहीं  मैं  पाया  यारों  ,  कहाँ  छुपी  महँगाई  है  |

अदल बदल कर पहन रहा है , दो  कुरते पखवाड़े भर
इक दिन हँस कर बोला मुझसे, महँगी बहुत धुलाई है  |

हंसों  से  कछुवों  ने  गुपचुप  कुछ  सौदे  हैं  कर डाले
पूछे   कौन   समंदर   से   तुझमें   कितनी  गहराई  है  |.

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)

(ओपन बुक्स ऑन लाइन के तरही मुशायरा में शामिल मेरी गज़ल) 

28 comments:

  1. भीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
    समझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है |


    वाह ... हर बात सटीक ...खूबसूरत गजल

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  2. सटीक ।।

    आभार ।।

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  3. ना समझी है दुनियादारी,जिसका दिल बच्चे जैसा
    वही कैद होता जेलों में,घूम रहा दंगाई है|

    बेहतरीन ग़ज़ल !!!

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  4. बहुत सुन्दर और सटीक रचना..अरुण जी..आभार..

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  5. भीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
    समझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है,

    बहुत नायाब अभिव्यक्ति ,,,सुंदर गजल ,,,,

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,

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  6. सार्थकता लिए बेहतरीन रचना..
    बहुत सुन्दर:-)

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  7. वाह! सटीक चोट ...महंगाई की गहराई पर !

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  8. बहुत बढ़िया सर...
    पंचों की बैठक बुलवा कर , क्यों शामत बुलवाई है
    जिसके दिल में चोर छुपा हो , देता वही सफाई है |
    बेहतरीन..........

    सादर

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  9. वाह! बहुत सुंदर... मुशायरे के अंतिम पड़ाव में नेट की परेशानी के चलते शामिल नहीं हो पाया था....
    सादर बधाई स्वीकारें सुंदर गजल के लिए....

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  10. जिसके दिल में छोर छुपा हो देता वही सफाई है
    बहुत बहुत सच्चाई लिए रचना |
    आशा

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  11. भीड़ बढ़ी है बाजारों में, यार जरा सा आ जाना |
    गम खाया है बहुत दिनों तक, इक मुस्कान खिला जाना |

    मंहगाई बेजार किये जब, विरह गीत बेजा गाई-
    दूरभाष बेतार किये पर , तार तार अरमान मिटाई-
    पिछली मुलाक़ात मंहगी अति, सालों ने क्या करी धुलाई -
    नजर बचा आ मन्दिर पीछे, घूम रहे हैं दंगाई -

    सावन भी प्यासा का प्यासा, मन-मयूर हरसा जाना |
    गम खाया है बहुत दिनों तक, इक मुस्कान खिला जाना ||

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  12. बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,सुंदर गजल ,,,

    MY RECENT POST....काव्यान्जलि...:चाय

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  13. क्या बात है!!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 02-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-928 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  14. क्या बात है!!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 02-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-928 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  15. हंसों से कछुवों ने गुपचुप कुछ सौदे हैं कर डाले
    पूछे कौन समंदर से तुझमें कितनी गहराई है |.
    बहुत सुन्दर है . बहुत बढ़िया प्रस्तुति .. .कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai

    रविवार, 1 जुलाई 2012
    कैसे होय भीति में प्रसव गोसाईं ?

    डरा सो मरा
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  16. वाह ... ...खूबसूरत गजल

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  17. निगम जी कि ये वाली कविता वास्तव मे बहुत सुन्दर है ,

    अदल बदल कर पहन रहा है , दो कुरते पखवाड़े भर
    इक दिन हँस कर बोला मुझसे, महँगी बहुत धुलाई है |

    हंसों से कछुवों ने गुपचुप कुछ सौदे हैं कर डाले
    पूछे कौन समंदर से तुझमें कितनी गहराई है |.

    आभार

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  18. सामाजिक व्यंगात्मक रचना ....

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  19. ना समझी है दुनियादारी , जिसका दिल बच्चे जैसा
    वही कैद होता जेलों में , घूम रहा दंगाई है | ye line sabse acchi lagi

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  20. वाह ...बहुत खूब।

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  21. बहुत सुंदर कटाक्ष. इशारों इशारों में बहुत गहरी बातें कह डाली.

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  22. मुझे तो हर एक पंक्ति बहुत खूबसूरत एवं लाजवाब लगी kanu :)सटीक बात कहती सार्थक रचना...बहुत बढ़िया लिखा है सर आपने शुभकामनायें।

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  23. बहुत बढ़िया....सुंदर कटाक्ष.....

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  24. भीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
    समझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है ...

    Surprisingly a great contradiction is prevailing in air, which is keeping us confused...

    .

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  25. हर शेर में दुनिया की वास्तविकता पर गहरी नज़र. शुभकामनाएँ.

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  26. भीड़ बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
    समझ नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है ।

    गहरा कटाक्ष है, निगम जी,
    बधाई।

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  27. गजल की हर लाईन गंभीर चोट कर रही है
    उम्दा रचना है

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