विगत दिनों छोटे बेटे बिट्टू की काउंसिलिंग के लिये धनबाद जाने का सुखद
संजोग बना. बिट्टू को दुर्गसे जबलपुर बुला लिया था. शक्ति पुंज से आरक्षण भी करवा लिया.
हम निर्धारित समय पर जबलपुर रेल्वे स्टेशन
पहुँचे. जबलपुर से शुरू होने वाली शक्तिपुंज रात को साढ़े बारह बजे छूटती है. ट्रेन
छूटने का समय रात्रि सवा दो बजे डिस्प्ले हो
रहा था. लेकिन ट्रेन रात के साढ़े तीन बजे छूटी. आधी रात को चार घंटे का समय प्लेटफार्म
पर बिताना बड़ा ही कष्टदायक होता है किंतु रेल्वे विभाग को इससे क्या ? ये तो अच्छा हुआ कि हमारी बोगी साफ सुथरी और मेंटेन्ड
थी. लगभग बाईस घंटे के बाद रात को डेढ़ बजे हम धनबाद पहुँचे. रविकर जी से मोबाईल पर
सम्पर्क किया, वे दस मिनट बाद ही अपनी कार लेकर आ गये. रविकर
जी प्रतीक्षा में जाग ही रहे थे. उनके घर पहुँचने के बाद भाभी जी ने गरमागरम स्वादिष्ट
भोजन खिलाया. खाना खाने के बाद हम सो गये.
दूसरे दिन सुबह रविकर जी के आंगन में बैठ कर सुंदर प्राकृतिक वातावरण
में नाश्ते के साथ चाय की चुस्कियाँ लीं. रविकर जी का क्वार्टर आई.एस.एम. कम्पाउंड
के अंतिम छोर पर है. ऐसा लग रहा था मानों हम किसी अभ्यारण्य में बैठे हों. चारों ओर
हरे भरे वृक्ष, उन्मुक्त पक्षियों के चहचहाने
की मधुर आवाज वातावरण में रस घोल रही थी. रविकर जी के आंगन में आम, जामुन, सहजन के बड़े बड़े पेड़ों के अलावा बहुत सारे नन्हें
नन्हें पौधे सुबह की शीतल पवन के संग मस्ती में झूम रहे थे. आम की एक मोटी सी शाखा
से दो रस्सियाँ लटक रही थीं जो शायद कभी झूले के साथ पेंग भरा करती होंगी.रस्सियों
की उदासी बता रहीं थी कि जब बच्चे बड़े होने के बाद कहीं पढ़ने या नौकरी करने के लिये
बाहर चले जाते हैं तब माँ बाप की तरह आंगन भी कितना सूनापन महसूस करता है.
हम तैयार होकर आई.एस.एम. कम्पाउंड में ही घूमने निकले. बहुतसे विभागों
की बिल्डिंग देखी. ब्रिटिश जमाने के लाल रंग के भवन हरियाली के बीच बहुत ही सुंदर दिखाई
देते हैं. कैम्पस में सुंदर साफ सुथरी पक्की सड़कें और चारों ओर हरियाली ही हरियाली.कहीं
पीले गुलमोहर के के छायादार वृक्ष,शांत वातावरण में दूर तक गूँजती कोयल की कूक और कई तरह के पक्षियों की चहचहाहट
मन को मोह रही थी. हमने रविकर
जी की लैब भी देखी. वह की बोर्ड देखा जिस पर
रविकर जी की उंगलियाँ न जाने कब से नर्तन कर रही हैं और उनके हृदय से झूम कर निकले
छंदों और कविताओं को अंतर्जाल के जरिये हम तक पहुँचाती हैं. इसी की बोर्ड से न जाने
कितनी बार चर्चा-मंच सजा है , कितने दोहे, कितनी कुंडलिया,कितनी कवितायें और नजाने कितनी ही सारगर्भित
टिप्पणियाँ देश-विदेश में कितने ही हिंदी प्रेमियों
तक पहुँच रही हैं. साढ़े ग्यारह बजे हम रविकर जी के क्वाटर में पुन: लौट आये.भोजन करने
के बाद कई तरह की साहित्यिक चर्चायें हुई.
दूसरे दिन की सुबह फिर से रविकर जी के मनोरम आंगन में चाय और नाश्ते
का आनंद लेने के बाद हम उनके लैब गये. वहाँ नेट में भिड़े रहे.मेरे धनबाद पहुँचने के
कारण रविकर जी नेट पर नहीं बैठ पा रहे थे. वहीं बैठ कर हम दोनों ने ओपन बुक्स ऑन लाइन
द्वारा आयोजित चित्र-काव्य प्रतियोगिता में अपने छंद पोस्ट किये , कुछ अन्यरचनाकारों के छंदों पर अपनी प्रतिक्रियायें
प्रकट की और बहुतसे ब्लॉग पढ़ते रहे. दोपहर को भोजन करने के उपरांत कई ब्लॉगर मित्रों
और उनकी रचनाओं के बारे में चर्चा करते रहे.
रविकर जी बहुत सरल और सहृदय इंसान हैं वैसी ही सरल और उदार हृदय की भाभी जी हैं. तीन दिनों
तक साथ रहकर मैंने जाना कि रविकर जी खाने के बहुत ही शौकीन हैं तो भाभी जी को खिलाने
का बड़ा शौक है. मेरे और बिट्टू के ये चार दिन कुछ न कुछ खाते हुये ही बीते हैं. यहाँ हमने स्वादिष्ट भोजन के साथ ही कुछ परम्परागत व्यंजनों का आनंद भी लिया. बेल का शरबत हमने पहली
पिया. यह ग्रीष्म ऋतु के लिये बड़ा ही लाभदायक होता है. फरा के साथ बादाम और लहसुन की
खट्टी चटनी भी हमारे लिये नया व्यंजन थी. मूंग की दाल के दही बड़े जैसा एक व्यंजन (
रात को भिगोई हुई मूंग की दाल को पीस कर चौसेला /चीला बनाया जाता है, उसके छोटे-छोटे
टुकड़े करके दही में डुबा कर रखा जाता है. फिर नमक और मिर्च डाल कर खाया जाता है.) घर
के आम का स्वादिष्ट अचार ,सत्तू की पूड़ियाँ और घर में बनाये गये
शुद्ध खोवे के पेड़े हम कभी भी भूल नहीं पायेंगे.
तीसरे दिन शाम को चार बजे रविकरजी
ने हमें धनबाद रेल्वे स्टेशन छोड़ दिया. भाभीजी ने रास्ते के लिये सत्तू की पूड़ियाँ, शीशी भर आम का अचार और शुद्ध खोवे के पेड़े पैक कर दिये.
हम ब्लैक डायमंड एक्सप्रेस द्वारा धनबाद से आसनसोल के लिये रवाना हुये, जहाँ से साउथ बिहार एक्सप्रेस में बैठ कर बिट्टू के साथ दुर्ग आ गये. दुर्ग
में भी बिट्टू की मम्मी तरह तरह के स्वादिष्ट पारम्परिक व्यंजन बना बना कर खिलाती रही
फिर कुछ दिनों तक वहीं विश्राम किया. इसी कारण मैं काफी दिनों तक ब्लॉग जगत से दूर
रहा. अब पुन: जबलपुर आ गया हूँ. धनबाद में रविकर जी के सानिध्य में बीते हुये मधुर
पल मेरे जीवन में सदा अविस्मरणीय रहेंगे.
यह भी याद रहेगा कि रविकर जी के साथ बैठ कर ओबीओ की जिस चित्र-काव्य
प्रतियोगिता में हमने अपने छंद प्रेषित किये थे उसके तीन विजेताओं में दो विजेता रविकर
जी और मैं रहे.
निर्णय :
‘चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -१४' का निर्णय अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
रविकर जी के साथ बिताए पलों की, खूबशूरत यादें,,,,
ReplyDeleteOBO चित्र काव्य प्रतियोगिता में आप और रविकर विजेता चुने जाने की बहुत२ बधाई शुभकामनाए,,,
RECENT POST .... काव्यान्जलि ...: अकेलापन,,,,,
बढ़िया संस्मरण आदरणीय अरुण भईया....
ReplyDeleteआप दोनों को ओ बी ओ की प्रतियोगिता में विजेता होने पर सादर बधाई।
प्रतियोगिता में विजयी होने के लिए आपको और रविकर जी को बधाई।
ReplyDeleteरविकर जी के साथ बिताए पलों का पुनः स्मरण अच्छा लगा।
बढ़िया संस्मरण ....आपको और रविकर जी दोनों को बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
अरुण भाई इतना सुन्दर वर्णन एवं चित्रण
ReplyDeleteसारा कुछ आँख के सामने दृश्य मान थे
आपकी इस वृतांत का मजा अपनी श्रीमती को
पढ़ कर सुनाया|बहुत ही आनंद आया आदरणीय भाभी जी
और रविकर भाई साहब का का शुक्रिया
स्वादिस्ट पकवान का वर्णन इतना बढ़िया है की
पढ़ कर घर में बनाया जा सकता है
ओ.बी.ओ.में विजेता होने की हार्दिक बधाई
बधाई बधाई.....
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़ कर.
सादर
बढ़िया संस्मरण ...तस्वीरें नहीं ली क्या??
ReplyDeleteआभार.फोटो तो लगाई है मगर पता नहीं क्यों गायब हो जा रही हैं.एडिट करने के बाद कुछ देर रहती है,फिर से गायब हो जाती हैं.कोई तो उपाय बताये !!!!!!!!!
Deleteप्रतियोगिता में विजयी होने के लिए आपको और रविकर जी को बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
बढ़िया संस्मरण .... रविकर जी की मेजबानी प्रभावित कर गयी ...
ReplyDeleteसरल दिल वालों कों सरल दिल वाले मिल जाते हैं ... आपका संस्मरण बहुत अच्छा लगा ...
ReplyDeleteप्रतियोगिता में विजयी होने पे बधाई ...
वाह आपके इस संस्मरण के जरिये हमने भी रविकर जी के आतिथ्य का लाभ उठा लिया ।
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