गई दुपहरी साँझ हो गई
अब तो जाने दो भाई !
दूर गाँव में मेरा घर है
राह देख रही माई !
साथ तुम्हारे बहुत रहा
छल मिले, न छलिया बना हृदय
सरल-सहज था मेरा मन
मैंने समझा मेरा है तनय.
मृगतृष्णा पर विश्वास किया
वह मेरे हाथ नहीं आई........................
मेरे अपने अपने न बने
सच जीवन के सपने न बने
उपवन में फूल खिलाये थे
वे फूल मिले पर धूल सने
बस साथ चली है सुख-दु:ख में
मेरे ही तन की परछाई......................................
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)
मन की व्यथा को खूबसूरती से लिखा है ..
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसादर.
मृगतृष्णा कब हाथ आती है , उसी से उबारने के लिए राह तकती है माई
ReplyDeleteवाह सर!
ReplyDeleteतन की परछाई ..जीवन नैया पार लगाई..बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteदूर गाँव में मेरा घर है
ReplyDeleteराह देख रही माई !
इतनी प्यारी बात...
बेमिसाल रचना है!
Each line is quotable!
Regards,
सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमेरे अपने अपने न बने
ReplyDeleteसच जीवन के सपने न बने
उपवन में फूल खिलाये थे
वे फूल मिले पर धूल सने ...
बहुत खूब अरुण जी ... अनुपम प्रस्तुति ... मधुर गीत है ...
sir... kafi achchha likha उपवन में फूल खिलाये थे
ReplyDeleteवे फूल मिले पर धूल सने..
बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाह आदरणीय अरुण भईया....
ReplyDeleteसादर बधाई.
बेहतरीन प्रस्तुति सर ... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
//उपवन में फूल खिलाये थे
ReplyDeleteवे फूल मिले पर धूल सने
//बस साथ चली है सुख-दु:ख में
मेरे ही तन की परछाई...
kamaal sir.. ekdum kamaal..
aapki kavitaao mein jo achook lay milti hai .. uska kaayal hun main.. itna aanand aata hai padhne mein ki bas kya kahiye.. :)
भावपूर्ण कविता के लिए आभार.....
ReplyDeleteaise kaise jane de....duniyadari ke abhi bahut se path padhne hain...suna hai na zindgi ki saanjh tak....antim saans tak padhna/seekhna padta hai.
ReplyDeletesunder prastuti.
गई दुपहरी साँझ हो गई
ReplyDeleteअब तो जाने दो भाई !
दूर गाँव में मेरा घर है
राह देख रही माई !................एक माँ का इंतज़ार ...आपकी लेखनी ने जीवंत कर दिया हर एहसास को
इस गीत में 'माई' से आशय उस परम् आत्मा से है जिसका हम अंश हैं.वो दुनियाँ मेरे बाबुल का घर,ये दुनियाँ ससुराल वाली पृष्ठ भूमि पर यह गीत रचा गया है
Deleteये आपकी आत्माभिव्यक्ति की अकांक्षा को प्रदर्शित करता है।
ReplyDeleteवाह! बहुत खूब लिखा है आपने! लाजवाब प्रस्तुती!
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुती!..बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteमेरे अपने अपने न बने
ReplyDeleteसच जीवन के सपने न बने
उपवन में फूल खिलाये थे
वे फूल मिले पर धूल सने ...
माई से बढ़कर समझने वाला कोई नहीं होता...
भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
ऐसी आध्यात्मिक बाते दिल को छू लेने वाली
ReplyDeleteक्या बात है अरुण भाई
अति सुन्दर.... भाव पूर्ण अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteकृपया इसे भी पढ़े-
नेता, कुत्ता और वेश्या
Awesomeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee
ReplyDeleteसाथ तुम्हारे बहुत रहा
ReplyDeleteछल मिले, न छलिया बना हृदय
सरल-सहज था मेरा मन
मैंने समझा मेरा है तनय.
मृगतृष्णा पर विश्वास किया
वह मेरे हाथ नहीं आई........................
mn ki vytha ki spsht jhalk bilkul jeevant rachana Nigam sahab badhai sweekaren.
बस साथ चली है सुख-दु:ख में
ReplyDeleteमेरे ही तन की परछाई...............
Gahan Bhav... Sach ko Ukerti Panktiyan....
कभी कभी तो अपनी परछाई भी सस्थ छोड जाती है. अरुण जी बहुत सुंदर भावनात्मक प्रस्तुति.
ReplyDeleteमेरे अपने अपने न बने
ReplyDeleteसच जीवन के सपने न बने
उपवन में फूल खिलाये थे
वे फूल मिले पर धूल सने
बस साथ चली है सुख-दुख में
मेरे ही तन की परछाई
अपनी परछाई ही सदैव साथ रहती है लेकिन अंधेरे में वह भी साथ छोड़ देती है।
अपनों की तो बात ही निराली है !
बस साथ चली है सुख-दु:ख में
ReplyDeleteमेरे ही तन की परछाई........
सुन्दर रचना जीवन की सचाइयों अनुभूतियों से रु -बा -रु .
आपकी कविता में मौलिकता का दर्शन सन्निहित है । कविता अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।
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