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Friday, April 26, 2019

दुमदार दोहे -

दुमदार दोहे -

गर्मी का मौसम रहे, सिर पर रहे चुनाव।
अल्लू-खल्लू भी अकड़, गजब दिखाएँ ताव।।
राज आपस के खोलें
वचन सब कड़ुवे बोलें।।1।।

मंचों के भाषण लगें, ज्यों लू-झोंके गर्म।
इनकी गर्मी देखकर, ऋतु को आई शर्म।।
अजेंडा चुगली-चारी
भीड़ भाड़े की भारी।।2।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Thursday, April 4, 2019

एक गजल

जुगनुओं को क्या पड़ी है ?

दिन चुनावी चल रहे हैं
मोम में सब ढल रहे है।

प्रेम-प्याला है दिखावा
वस्तुतः सब छल रहे हैं।

छातियों की नाप छोड़ो
मूँग ही तो दल रहे हैं।

आस्तीनों में न जाने
साँप कितने पल रहे हैं।

घूमते कुछ हाथ जोड़े
हाथ भी कुछ मल रहे हैं।

जुगनुओं को क्या पड़ी है
बुझ रहे कुछ जल रहे हैं।

बोतलें मुँह तक छलकतीं
और प्यासे नल रहे हैं।

शेर उनको मान लें क्यों
अब कहाँ जंगल रहे हैं।

यकबयक चंदन बने, जो
कल तलक काजल रहे हैं।

अनुभवी हैं हाशिये पर
जो कभी पीपल रहे हैं।

नव ‘अरुण’ निस्तेज होकर
प्रात होते ढल रहे हैं।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, April 1, 2019

अप्रैल फूल

छत्तीसगढ़ निवासी, देश के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार श्री वीरेंद्र सरल के सानिध्य से अनायास खिला एक फूल - “अप्रैल फूल” एक अप्रैल को रेडियो सिलोन से एक गीत प्रसारित होता था - एप्रिल फूल बनाया,तुमको गुस्सा आया तो मेरा क्या कसूर, जमाने का कसूर जिसने दस्तूर बनाया….. इस गीत को सुनने से तीन प्रकार का ज्ञान मिलता है। पहला यह कि अप्रैल फूल “बनाया” जाता है। ये अलग बात है कि कैसे बनाया जाता है इसकी रेसिपी इस गीत से पता नहीं चलती। दूसरा यह कि यह फूल गुस्सा पैदा करता है। इस फूल का बायोलॉजिकल नाम पता नहीं चल पाने के कारण गुण-धर्म भी खोजे नहीं जा सके हैं। तीसरा और महत्वपूर्ण ज्ञान यह कि कोई न कोई इस दस्तूर का जन्मदाता है जो कसूरवार है। गूगल सर्च से ज्ञात होता है कि यह दस्तूर मूलतः पश्चिमी देशों का है, बेशक वही कसूरवार होंगे मगर हमें इससे क्या ? हम तो पश्चिमी देशों के दस्तूर को अपने विकास और सभ्य होने का पर्याय मानते हैं। अंधानुकरण से हमें कब परहेज है ? पश्चिम ने कहा - अप्रैल फूल, हमने भी कह दिया - ओक्के । अरे भाई विदेश से आया है तो हमारा अतिथि ही हुआ न… फिर अतिथि देवो भव का धर्म भी तो निभाना है। विकिपीडिया में अप्रैल फूल के जन्म के कई किस्से हैं, किसे सच माने? फिर हम कम ज्ञानी थोड़े ही हैं, अपने तर्क भी तो लगा सकते हैं। 01 अप्रैल का दिन ही क्यों तय हुआ होगा ? आप अपने तर्क लगाइए। मैं तो तमाम उम्र एक बैंकर रहा इसीलिए मेरे तर्क बैंकिंग से प्रभावित तो होंगे ही। वित्तीय वर्ष 01 अप्रैल से शुरू होता है और 31 मार्च को समाप्त होता है। इस पूरे वर्ष में वित्तीय के अलावा अनेक धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक और राजनैतिक घटनाएँ भी तो घटती हैं। शायद इन्हीं में कोई न कोई घटक जरूर होगा जो 01 अप्रैल के शुभारंभ का कारक होगा। धार्मिक पर कुछ न कहा जाए तो ही अच्छा है। बड़े बड़े बाबाओं ने विगत वर्षों में इस दस्तूर का स्वच्छंदता से निर्वाह किया और यथोचित ऑडिट होने के बाद इनकी वार्षिक लेखबन्दी भी हो चुकी है। जब अगले ऑडिट में कोई नया प्रकरण आएगा तब देखा जाएगा। “सामाजिक” को भी छोड़िए, कितने ही बुजुर्ग माँ-बाप, अपनी संतान के अप्रैल फूल को सीने से लगाये वृद्धाश्रमों में तकिए गीले कर रहे हैं। आज का दिन भावुक होने का भी नहीं है। “साहित्यिक” में लगता तो नहीं कि अप्रैल फूल टाइप की कोई चीज मिल पाएगी लेकिन जरा गौर से देखें तो इस दस्तूर ने यहाँ भी अपनी गहरी पैठ जमा रखी है। प्रतिभाएँ “एक मई” बनी हुई हैं और पुरस्कार, माई कोठी के धान की तरह छेरछेरा पर्व पर अंधाधुन्ध दान किये जा रहे हैं। अंधाधुन्ध से एक मुहावरा याद आ गया - अंधा बाँटे रेवड़ी, अपन-अपन को देय। हाँ, इस दस्तूर को अक्षुण्ण रखने में राजनैतिक घटको का सबसे बड़ा योगदान अवश्य दिखता है। राजनेता तो साल के तीन सौ पैंसठ दिन अप्रैल फूल बनाते रहते हैं और हम बनते भी रहते हैं। गुस्सा भी आता है मगर पीना पड़ता है। गरल को कंठ में धारण कर शिव नीलकंठ हो गए, नेताओं पर अप्रकट किया गया गुस्सा हमारे साँवलेपन का एक प्रमुख कारण हो सकता है इसीलिए फेयर एंड लवली और उसी तरह के सखि-उत्पाद भी बेअसर हो जाते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि गोरेपन का दावा करने वाली ये बड़ी बड़ी कम्पनियाँ भी अप्रैल फूल नहीं बना रही हैं ? डिजिटल इंडिया के दौर में कभी मैसेज आता है कि अमुक लिंक को क्लिक करें, करोड़पति बन जाइए। कभी कॉल आ जाता है कि हम अमुक बैंक से बोल रहे हैं, आपका ए टी एम ब्लॉक होने वाला है, इसे चालू रखने के लिए पासवर्ड बताएँ। इन लोगों पर विश्वास करते देर नहीं और बैंक खाता साफ, अप्रैल फूल बनाने का यह हाई टेक तरीका है और बदस्तूर जारी है। अप्रैल फूल, कैसा फूल है ? एक परत उघाड़ो तो दूसरी परत खुल जाती है। दूसरी परत उघाड़ो तो तीसरी खुल जाती है। यह जरूर पत्ता गोभी की प्रजाति का ही फूल होगा। वाह रे दस्तूर ! वाह रे अप्रैल फूल !! उपन्यासकार होता तो तुम्हारी महिमा पर बहुत कुछ लिखता। मूलतः कवि हूँ। व्यंग्यकार वीरेंद्र सरल जी ने अपने व्यंग्य-संग्रह “बुद्धिमान की मूर्खता” की पी डी एफ प्रति पढ़ने के लिए भेजी है। कुल 23 व्यंग्य में से अभी केवल 11 लेख ही पढ़े हैं। पता नहीं इनके कब और किस पन्ने के व्यंग के कीड़े ने मुझे काट लिया, कविता करते करते शायद व्यंग्य टाइप कुछ लिख बैठा हूँ। भाई वीरेन्द्र जी मैं बुद्धिमानी में मूर्खता कर बैठा या मूर्खता में बुद्धिमानी हो गई, आप ही बताइए। अगर मूर्खता भी हो गई तो क्या गम है ? आज का तो मौका भी है, दस्तूर भी है। अरुण कुमार निगम आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)