*अच्छे दिन आ गए* !!!!!
पहले डाकिए की आहट भी किसी प्रेमी या प्रेयसी की आहट से कम नहीं होती थी। लंबी प्रतीक्षा के बाद महकते हुए रंगबिरंगे लिफाफों में शुभकामनाओं को पाकर जो खुशी मिलती थी वह संबंधित त्यौहार या अवसर की खुशी से कमतर नहीं होती थी। लिफाफे के रूप में प्रेषक बिल्कुल सामने खड़ा होता था। हर अक्षर, हर शब्द सम्पूर्ण काया को पुलकित कर देता था। ये शुभकामना संदेश न जाने कितने बरसों से कितने ही लोगों की आलमारी में आज भी किसी खजाने की तरह सुरक्षित रखे हुए होंगे।
तत्कालीन आर्थिक क्षमता के अनुसार शुभकामना पत्र खरीदे जाते थे। प्रगाढ़ता के अनुरूप ही विशेष और साधारण बधाई कार्ड्स खरीदे जाते थे। साथ ही एक छोटा सा पुछल्ला पत्र, किसी सुंदर से लैटर पैड पर रंगीन स्याही से लिखा हुआ भी बधाई कार्ड्स के साथ लिफाफे में बोनस के रूप में जुड़ा रहता था। ये बधाई कार्ड और पत्र, कागज के महज टुकड़े नहीं होते थे बल्कि ये धड़कता हुआ दिल हुआ करते थे। लिखे हुए शब्द स्वयं बोल उठते थे।
आज भी बधाइयाँ का यह सिलसिला बन्द नहीं हुआ है। केवल तरीका बदल गया है। न पत्र, न कार्ड्स....किन्तु बधाइयों के आदान प्रदान का ताँता लगा हुआ है। स्माइली, स्टिकर्स, नेट के बधाई चित्र.....एप के प्रयोग से बनाए गए चित्र.....कॉपी पेस्ट होकर ग्लोबलाइजेशन को सजीव कर रहे हैं। प्रेषक कभी दिल से सोचे - इन संदेशों में कितनी भावनाएँ हैं और कितनी औपचारिकताएँ ? इन बधाई संदेशों का जीवन काल कितना है ? अपने दिल से पूछें, सही जवाब दिल ही देगा। इन ऑनलाइन संदेशों को डिलीट करने में पीड़ा हो रही है या यह परेशानी का सबब बन रहे हैं ? इसका भी सही उत्तर, दिल ही देगा। दिल कभी झूठ नहीं कहता।
खैर ! हम तो आधुनिक युग में जी रहे हैं। हम प्रतिदिन विकास कर रहे हैं। कितने गर्व की बात है कि सैकड़ों हमारे चाहने वाले हैं। बधाई संदेशों की संख्या हमें महान बना रही है। पहले की टाइम टेकिंग प्रोसेस से निजात तो मिली। कार्ड और लिफाफों का खर्च बच गया। भागदौड़ की जिंदगी में समय भी बच गया। हम संस्कारवान बन गए। अच्छे दिन आ गए।
*अरुण कुमार निगम*
पहले डाकिए की आहट भी किसी प्रेमी या प्रेयसी की आहट से कम नहीं होती थी। लंबी प्रतीक्षा के बाद महकते हुए रंगबिरंगे लिफाफों में शुभकामनाओं को पाकर जो खुशी मिलती थी वह संबंधित त्यौहार या अवसर की खुशी से कमतर नहीं होती थी। लिफाफे के रूप में प्रेषक बिल्कुल सामने खड़ा होता था। हर अक्षर, हर शब्द सम्पूर्ण काया को पुलकित कर देता था। ये शुभकामना संदेश न जाने कितने बरसों से कितने ही लोगों की आलमारी में आज भी किसी खजाने की तरह सुरक्षित रखे हुए होंगे।
तत्कालीन आर्थिक क्षमता के अनुसार शुभकामना पत्र खरीदे जाते थे। प्रगाढ़ता के अनुरूप ही विशेष और साधारण बधाई कार्ड्स खरीदे जाते थे। साथ ही एक छोटा सा पुछल्ला पत्र, किसी सुंदर से लैटर पैड पर रंगीन स्याही से लिखा हुआ भी बधाई कार्ड्स के साथ लिफाफे में बोनस के रूप में जुड़ा रहता था। ये बधाई कार्ड और पत्र, कागज के महज टुकड़े नहीं होते थे बल्कि ये धड़कता हुआ दिल हुआ करते थे। लिखे हुए शब्द स्वयं बोल उठते थे।
आज भी बधाइयाँ का यह सिलसिला बन्द नहीं हुआ है। केवल तरीका बदल गया है। न पत्र, न कार्ड्स....किन्तु बधाइयों के आदान प्रदान का ताँता लगा हुआ है। स्माइली, स्टिकर्स, नेट के बधाई चित्र.....एप के प्रयोग से बनाए गए चित्र.....कॉपी पेस्ट होकर ग्लोबलाइजेशन को सजीव कर रहे हैं। प्रेषक कभी दिल से सोचे - इन संदेशों में कितनी भावनाएँ हैं और कितनी औपचारिकताएँ ? इन बधाई संदेशों का जीवन काल कितना है ? अपने दिल से पूछें, सही जवाब दिल ही देगा। इन ऑनलाइन संदेशों को डिलीट करने में पीड़ा हो रही है या यह परेशानी का सबब बन रहे हैं ? इसका भी सही उत्तर, दिल ही देगा। दिल कभी झूठ नहीं कहता।
खैर ! हम तो आधुनिक युग में जी रहे हैं। हम प्रतिदिन विकास कर रहे हैं। कितने गर्व की बात है कि सैकड़ों हमारे चाहने वाले हैं। बधाई संदेशों की संख्या हमें महान बना रही है। पहले की टाइम टेकिंग प्रोसेस से निजात तो मिली। कार्ड और लिफाफों का खर्च बच गया। भागदौड़ की जिंदगी में समय भी बच गया। हम संस्कारवान बन गए। अच्छे दिन आ गए।
*अरुण कुमार निगम*