देवी होकर चरण चूमती हो क्यों मेरे
अपने चरणों में मुझको मर जाने दो
व्यर्थ भिगोती हो अपनी कजरारी पलकें
मेरे नयनों में सागर भर जाने दो.
तुमने जिस यौवन देहरी पर कदम धरा है
उस मधुबन की कलियाँ अब खिलने वाली हैं
बासंती - सपनीले पथ पर कदम धरो तुम
हर पग पर खुशियाँ तुमको मिलने वाली हैं.
यह ऋतुराज समर्पित तुमको – रहो महकते
मैं हूँ सूखा फूल – मुझे झर जाने दो.
व्यर्थ भिगोती हो अपनी कजरारी पलकें
मेरे नयनों में सागर भर जाने दो.
मैं कारण हूँ यदि तुम्हारी नम पलकों का
तो मेरा मिट जाना ही प्रायश्चित होगा
अपने हाथों से मेरा अस्तित्व मिटा दो
कुछ भी समझो, मुझे भुलाना निश्चित होगा.
मुस्काकर तुम मुझे विदा दो , मेरी देवी !
अंतिम बेला – मनचाहा कर जाने दो.
व्यर्थ भिगोती हो अपनी कजरारी पलकें
मेरे नयनों में सागर भर जाने दो.
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छतीसगढ़.