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जो चैन से सोने दे उस धन को कहाँ ढूँढें
संसार में भटका है उस मन को कहाँ ढूँढें।
वन काट दिए सारे हर सू है पड़ा सूखा
अब पूछ रहे हो तुम सावन को कहाँ ढूँढें।
माँ-बाप की छाया में, बचपन को बिताया था
उस घर को कहाँ ढूँढें आँगन को कहाँ ढूँढें।
पढ़ने की न चिन्ता थी साथी थे खिलौने थे
नादान से भोले से बचपन को कहाँ ढूँढें।
निकले जो घरौंदे से सुख लूट गया कोई
जीवन है मशीनों सा धड़कन को कहाँ ढूँढें।
दर्पण में कई चेहरे देते हैं दिखाई क्यों
दरका तो कहीं होगा टूटन को कहाँ ढूँढें।
ये जीस्त 'अरुण' तुमको किस भीड़ में ले आई
हर शख़्स ये पूछ रहा दुश्मन को कहाँ ढूँढें।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़
बहुत ही खूबसूरत हमेशा की तरह
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