प्रकृति-सौंदर्य के कुशल चितेरे, छायावाद के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत की जयंती पर
कुछ अरुण-दोहे :
पतझर जैसा हो गया, जब ऋतुराज वसंत।
अरुण! भला कैसे बने, अब कवि कोई पंत।।
वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
बहुमंजिला इमारतें, खातीं नित्य प्रभात।
प्रथम रश्मि अब हो गई, एक पुरानी बात।।
विधवा-सी प्राची दिखे, हुई प्रतीची बाँझ।
अम्लों से झुलसा हुआ, रूप छुपाती साँझ।।
खग का कलरव खो गया, चहुँदिश फैला शोर
सावन जर्जर हो गया, व्याकुल दादुर मोर।।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-05-2019) को "आपस में सुर मिलाना" (चर्चा अंक- 3343) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'