जुगनुओं को क्या पड़ी है ?
दिन चुनावी चल रहे हैं
मोम में सब ढल रहे है।
प्रेम-प्याला है दिखावा
वस्तुतः सब छल रहे हैं।
छातियों की नाप छोड़ो
मूँग ही तो दल रहे हैं।
आस्तीनों में न जाने
साँप कितने पल रहे हैं।
घूमते कुछ हाथ जोड़े
हाथ भी कुछ मल रहे हैं।
जुगनुओं को क्या पड़ी है
बुझ रहे कुछ जल रहे हैं।
बोतलें मुँह तक छलकतीं
और प्यासे नल रहे हैं।
शेर उनको मान लें क्यों
अब कहाँ जंगल रहे हैं।
यकबयक चंदन बने, जो
कल तलक काजल रहे हैं।
अनुभवी हैं हाशिये पर
जो कभी पीपल रहे हैं।
नव ‘अरुण’ निस्तेज होकर
प्रात होते ढल रहे हैं।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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