(चित्र ओबीओ से साभार)
कुकुभ
छन्द – पहला दृश्य
एक
सरीखी प्रात: संध्या,जीवन की सच्चाई रे
एक
सूर्य को आमंत्रण दे , दूजी करे विदाई रे
कालचक्र
की आवा-जाही, देती किसे दिखाई रे
तालमेल
का ताना-बाना, सुन्दर बुनना भाई रे
कुकुभ
छन्द – दूसरा दृश्य
दादा
की बाँहों में खेले , बड़भागी वह पोता है
एकल
परिवारों में पोता , मन ही मन में रोता है
हर घर
की यह बात नहीं पर , अक्सर ऐसा होता है
सुविधाओं
की दौड़-भाग में,जीवन-सुख क्यों खोता है
कुकुभ
छन्द – तीसरा दृश्य
पोता
कूदे , दादा थामे , यही भरोसा कहलाता
यही
भरोसा जोड़े रखता , मन से मन का हर नाता
ना मन
में संदेह जरा-सा, और नहीं डर का साया
देख
चित्र को मेरे मन में , यारों बस इतना आया
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढिया-
ReplyDeleteबहुत सुन्दर १
ReplyDeleteमैं भी ब्रह्माण्ड का महत्वपूर्ण अंग हूँ l