नजदीक घर के
आपके थाना तो है नहीं
बुड्ढा दरोगा
आपका नाना तो है नहीं
तुड़वा के हाथ
पैर करे प्यार आपसे
दिल इतना
बेवकूफ दीवाना तो है नहीं
सूरत पे मर
मिटे अरे वो लोग और थे
झाँसे में
आपके हमें आना तो है नहीं
तालाब छोड़
गाँव का, गमछा धरे चले
काशी में जाके
तुमको नहाना तो है नहीं
सबकी क्षुधा
मिटाने का दावा तो कर दिया
चाँवल का घर
में एक भी दाना तो है नहीं
सत्ता की
बागडोर भी तो उस्तरा ही है
बन्दर के हाथ
इसको थमाना तो है नहीं
अरुण कुमार
निगम
आदित्य नगर,
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
बहुत सुंदर गज़ल
ReplyDeleteअपनी इज्जत अपने हाथ जोंग सँभाले रख..,
ReplyDeleteमर्दानी जनानियों वाला वो जमाना तो है नहीं.....
सत्ता की बागडोर गोले-गोली भी तो नहीं है..,
ऐसे-वैसे को थमा सर पे फुड़वाना तो है नहीँ.....
सत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है
ReplyDeleteबन्दर के हाथ इसको थमाना तो है नहीं ...
लाजवाब ... अरुण जी ... इतना कमाल का व्यंगात्मक शेर आपके ही बस में है ... पूरी गज़ल आफरीन ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (30-04-2014) को ""सत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है " (चर्चा मंच-1598) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट
ReplyDeleteसत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है
ReplyDeleteबन्दर के हाथ इसको थमाना तो है नहीं
आज के हालात पर अच्छा व्यंग किया अरुणजी आपने