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Friday, May 22, 2020

"मैं" का मोह

"मैं" का मोह

जिस तरह किसी ब्याहता के हृदय में "मैका-मोह" समाया होता है, उसी तरह इस नश्वर संसार के हर क्षेत्र में "मैं-का" मोह चिरन्तन काल से व्याप्त है। जिसने इस मोह पर विजय प्राप्त कर ली, समझो कि उसने मोक्ष को प्राप्त कर लिया। एक अति बुजुर्ग साहित्यकार की रुग्णता का समाचार मिला तो उनकी खैरियत पूछने उनके घर चला गया। अस्वस्थ होने की हल्की सी छौंक देने के बाद वे दो घण्टे तक अविराम अपनी उपलब्धियाँ ही गिनाते रहे। शायद स्वस्थ व्यक्ति भी इस्टेमिना के मामले में इनसे हार जाए। मैंने ऐसा किया, मैंने वैसा किया। मैंने इसको बनाया, मैंने उसको बनाया। मैंने इतने हजार कविसम्मेलन किये, मुझ पर इतने लोगों ने पी एच डी की, मैं फलानी संस्था का फॉउंडर मेम्बर हूँ, ढेकानी संस्था का संस्थापक हूँ, अमका-ढमका विधा का प्रवर्त्तक हूँ आदि-आदि। सुनकर ऐसा लगने लगा कि इनसे पहले साहित्य का संसार मरुस्थल रहा होगा। श्रीमान जी के प्रयासों से ही वह मरुस्थल, कानन कुंज में परिवर्तित हो पाया और इनके निपट जाने के बाद फिर से यह संसार, मरुभूमि में तब्दील हो जाएगा।

कैसी विडंबना है कि जिस उम्र में इनकी उपलब्धियों को संसार को गिनाना चाहिए उस उम्र में वे स्वयं की उपलब्धियाँ गिना रहे हैं। कहने को तो ऐसे शख्स यह भी कहते नहीं थकते कि नवोदित रचनाकारों के लिए मेरे घर के दरवाज़े चौबीसों घंटे खुले हैं किंतु भूले से भी कोई नवोदित उनके दरवाजे से अंदर चला गया तो सिखाना तो दूर, केवल अपनी उपलब्धियाँ ही गिनाते रहेंगे। वैसे अपनी उपलब्धियाँ गिनाना कोई बुरी बात नहीं है। जरूर गिनाना चाहिए तभी तो नई पीढ़ी उनके सच्चे-झूठे अभूतपूर्व योगदान से परिचित हो पाएगी वरना उनके समकालीन सभी तो खुद "मैं" के मोह में उलझे हुए हैं, भला वे किसी दूसरे की उपलब्धियाँ कैसे गिना पाएंगे ?

"मैं" के मोह की ही तरह कुछ लोगों का "माइक-मोह" भी नहीं छूट पाता। ऐसे लोग समारोह में तभी हाजिरी देते हैं जब उन्हें माइक में बोलने का मौका मिले। चाहे अतिथि के रूप में बुलाये जाएँ, चाहे वक्ता के रूप में, चाहे संचालक के रूप में बुलाये जाएँ। माइक मिलने के चांस हैं तो हाजिरी जरूर देते हैं चाहे जबरदस्ती ठसना क्यों न पड़े और ज्योंहि माइक हाथ में आता है, "मैं" का राग चालू हो जाता है। अगर विमोचन समारोह है तो लेखक गौण हो जाता है और ऐसा लगता है कि मैं-वादी ने ही लेखक को कलम पकड़ना सिखाया था। किसी का सम्मान हो रहा हो तो ऐसा लगता है कि इन्हीं मैं-वादी के सानिध्य में बेचारा गरीब सम्मानित होने योग्य बन पाया है। कभी-कभी शोक सभा तक में मैं का भूत ऐसा हावी रहता है कि दिवंगत ही गौण हो जाता है।

नीरज की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -

जिंदगी-भर तो हुई गुफ्तगू गैरों से मगर,
आज तक हमसे न हमारी मुलाकात हुई।

काश ! हम "मैं" से मिलने की कभी कोशिश तो करें फिर मैं-मैं मैं-मैं करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी और हाँ, "मैं" से संवाद करने के लिए किसी "माइक" की भी जरूरत नहीं पड़ती। "मैं" से साक्षात्कार अगर हो गया तब मैके की याद आएगी -

वो दुनिया मेरे बाबुल का घर (मैका), ये दुनिया ससुराल
जा के बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे

लेखक - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

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