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Thursday, February 14, 2019

“प्रेम सप्ताह का अंत (वेलेंटाइन डे) बनाम जोड़ों का दर्द”

आलेख -

“प्रेम सप्ताह का अंत (वेलेंटाइन डे) बनाम जोड़ों का दर्द”

एक फिल्मी गीत याद आ रहा है -

सोमवार को हम मिले, मंगलवार को नैन
बुध को मेरी नींद गई, जुमेरात को चैन
शुक्र शनि कटे मुश्किल से,आज है ऐतवार
सात दिनों में हो गया जैसे सात जनम का प्यार।।

अब इससे ज्यादा शॉर्टकट और भला क्या हो सकता है ?

गुलजार साहब ने लिखा -

हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू
हाथ से छू के इसे, रिश्तों का इल्जाम न दो
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।।

गीतकार भरत व्यास के शब्दों में कहें तो,

पिया आधी है प्यार की भाषा
आधी रहने दो मन की अभिलाषा
आधे छलके नयन आधे ढलके नयन
आधी पलकों की भी है बरसात आधी
आधा है चंद्रमा…..

कबीर दास जी ने भी तो कहा है -

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

इश्क़, मोहब्बत, प्यार, उल्फ़त, प्रीति, प्रणय, प्रेम सारे पर्यायवाची तो आधे शब्द को लेकर ही बने हैं। कहा भी जाता है कि प्रेम आधा ही होता है। अब अंग्रेजी के LOVE को ही देख लें V अक्षर इसीलिए डाला गया है ताकि “लव्ह” के उच्चारण में आधापन कायम रहे वरना LAW स्पेलिंग भी बना कर उच्चारण “लव” रखा जा सकता था लेकिन LAW कहने से प्रेम का संचार कहाँ हो पाता ? कानून का डंडा डराता रहता। शायद इसीलिए प्रेम के love स्पेलिंग को मान्यता दी गई होगी।

छत्तीसगढ़ राज्य की भाषा छत्तीसगढ़ी इस मामले में सम्पन्न है। इस भाषा में प्रेम का पर्यायवाची शब्द है “मया”, अर्थात आधे अक्षर को तिलांजलि। मया में पूर्णता है, इसीलिए यहाँ सात जन्मों की वेलिडिटी तय नहीं की गई है, मया को जन्म जन्मांतर का बंधन कहा गया है। मेरे अपने एक गीत में यही पूर्णता कही गई है-

हमर मया मा दू आखर हे, इही हमर चिन्हारी जी
तुम्हर प्रेम के ढाई आखर ऊपर परही भारी जी।।

तुम्हर प्रेम बस सात जनम के, मया जनम-जन्मांतर के
प्रीत किए दुःख होवै संगी, मया मूल सुख-सागर के।।

छत्तीसगढ़ के जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया जी ने तो मया को परिभाषित ही कर दिया है -

मया नइ चीन्हे जी देसी-बिदेसी, मया के मोल न तोल
जात-बिजात न जाने रे मया, मया मयारुक बोल।।

गीतों में वर्णित प्रेम को यहीं विराम देते हुए अब आज के यथार्थ के धरातल पर चला जाय। गुलाब, प्रस्ताव,चॉकलेट, टेडी बियर, प्रॉमिस, चुम्बन-आलिंगन, वेलेंटाइन डे के सात चोंचलों में किसी मार्केटिंग कम्पनी के सुनियोजित विज्ञापन का आभास होता है। शायद टेडीबियर निर्माता या चॉकलेट कंपनी की चाल हो सकती है कि उनके उत्पाद की बिक्री बढ़े ! चुम्बन और आलिंगन को वासना से मुक्त नहीं कहा जा सकता, यह हमारी संस्कृति से खिलवाड़ के अलावा कुछ नहीं है। प्रस्ताव और प्रॉमिस भी एक दिवस का मौसमी बुखार है, चढ़ता है और तुरंत उतर जाता है। इन सभी क्रियाकलापों की अंत्येष्टि 14 फरवरी को हो जाती है।

आज सोशल मीडिया पर “मातृ-पितृ सेवा दिवस” की बधाइयों का दौर भी चल रहा है, भले ही यह वेलेंटाइन के समानांतर एक अच्छे भाव को लेकर चालू किया गया है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं दिख रहे हैं। मातृ-पितृ सेवा के तो साल में 365 दिन हैं फिर इसे वन डे इंटरनेशनल क्यों बनाया जा रहा है ? क्या आनेवाले समय में मातृ-पितृ सेवा दिवस एक दिन की फार्मेलिटी नहीं बन जायेगा ? वैसे भी माता पिता के प्रति सेवा भाव अब बिरला ही नजर आता है। ऐसा दिवस मनाने से 14 सितंबर के राजभाषा दिवस के रूप में रह जाएगा। सब कर रहे हैं इसीलिए हम भी करें, ऐसा सोचकर करने से हमारी मौलिक सोच मर जाएगी। हमारी तर्क शक्ति मर जाएगी। इस तरह के दिवस मनाने से पहले इन्हें तर्क की कसौटी पर कसें, भीड़ के साथ मत भागें।

जब आलेख लिखने बैठा था तो सोचा था कि वेलेंटाइन डे पर कुछ व्यंग लिखूँ लेकिन मन का दर्द उतर आया। हाँ ! दर्द शब्द से प्रेमी जोड़ों का दर्द याद आया गया। इस आधुनिक दिवस को मनाने के लिए प्रेमी जोड़ों को बहुत दर्द सहना पड़ता है। । प्रेम के दर्द को छिड़ कर कई  प्रकार के दर्द सहने पड़ते हैं। आकर्षक पैकिंग में रोज़ की पीड़ा (गुलाब कहने से सस्तेपन का भान होता है अतः रोज़ कहना ही ठीक रहेगा), महंगे चॉकलेट की पीड़ा (बच्चों वाली चॉकलेट देके लल्लू कौन कहलाना पसंद करेगा), प्रपोज़ की पीड़ा ( महंगा होटल या बाप की कार में लांग ड्राइव ले जाने के कारण पेट्रोल व्यय) आदि आदि।

मुहावरा भी तो है - “सस्ता रोये बार-बार, महंगा रोये एक बार”. बाग बगीचे में प्रपोज़ करना सस्ता जरूर पड़ता है लेकिन पुलिस का जब डंडा पड़ता है तब ये माध्यम बहुत महंगा पड़ जाता है। अगर महंगे होटल में न जाकर किसी मॉल का प्रोग्राम बनाया जाए तो वहाँ का स्वल्पाहार बहुत महंगा पड़ जाता है और दुर्भाग्य से वहाँ प्रेमिका के भाई या बाप से सामना हो गया तब तो अस्पताल का खर्च भी शामिल हो जाता है। कुल मिला कर वेलेंटाइन हफ्ते में प्रेमी - जोड़ों को बहुत दर्द सहना पड़ता है। लेख शायद लम्बा हो गया है, मुझे भी लिखते लिखते उम्र-जनित जोड़ों का दर्द होने लगा है। इसीलिए कलम को यहीं विराम देता हूँ।

लेखक - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-02-2019) को “प्रेम सप्ताह का अंत" (चर्चा अंक-3248) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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