आम गज़ल .....
आम हूँ बौरा रहा हूँ
पीर में मुस्का रहा हूँ ।
मैं नहीं दिखता बजट में
हर गज़ट पलटा रहा हूँ ।
फल रसीले बाँट कर बस
चोट को सहला रहा हूँ ।
गुठलियाँ किसने गिनी हैं
रस मधुर बरसा रहा हूँ ।
होम में जल कर, सभी की
कामना पहुँचा रहा हूँ ।
द्वार पर तोरण बना मैं
घर में खुशियाँ ला रहा हूँ ।
कौन पानी सींचता है
जी रहा खुद गा रहा हूँ ।
मीत उनको “कल” मुबारक
“आज” मैं जीता रहा हूँ ।
“खास” का अस्तित्व रखने
“आम” मैं कहला रहा हूँ ।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2603 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आभार
Deletesundar gajal arun ji badhai
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteतरवे नमोsस्तु
ReplyDelete(वृक्ष को नमस्कार हो)
छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे ।
फलान्यपि परार्थाय वृक्षा: सत्पुरुषा इव ॥
सरलार्थ : -- वृक्ष सज्जनों की भांति स्वयं धुप में रहते हैं, दूसरों को छाया करते है व् फल देते हैं अत: वृक्ष को नमस्कार हो ।