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Sunday, September 28, 2025

छत्तीसगढ़ मा छन्द के अलख जगइया - जनकवि कोदूराम "दलित"

 58 वीं पुण्यतिथि पर सादर नमन.........

                                                                              छत्तीसगढ़ मा छन्द के अलख जगइया - जनकवि कोदूराम "दलित" 

छत्तीसगढ़ी कवि सम्मेलन के हर मंच ले दुनिया मा कविता के सब ले छोटे परिभाषा ला सुरता करे जाथे “जइसे मुसुवा निकलथे बिल ले, वइसे कविता निकलथे दिल ले” अउ एकरे संग सुरता करे जाथे ये परिभाषा देवइया जनकवि कोदूराम “दलित” जी ला. दलित जी के जनम ग्राम टिकरी (अर्जुन्दा) मा 05 मार्च 1910 के होइस. उनकर काव्य यात्रा सन् 1926 ले शुरू होईस. छत्तीसगढ़ी अउ


हिन्दी मा उनकर बराबर अधिकार रहिस. गाँव मा बचपना बीते के कारन उनकर कविता मा प्रकृति चित्रण देखे ले लाइक रथे. दलित जी अपन जिनगी मा भारत के गुलामी के बेरा ला देखिन अउ आजादी के बाद के भारत ला घलो देखिन. अंग्रेज मन के शासन काल मा सरकार के विरोध मा बोले के मनाही रहिस, आन्दोलन करइया मन ला पुलिसवाला मन जेल मा बंद कर देवत रहिन. अइसन बेरा मा दलित जी गाँव गाँव मा जा के अपन कविता के माध्यम ले देशवासी मन हे हिरदे मा देशभक्ति के भाव ला जगावत रहिन. दोहा मा देशभक्ति के सन्देश दे के राउत नाचा के माध्यम ले आजादी के आन्दोलन ला मजबूत करत रहिन. आजादी के पहिली के उनकर कविता मन आजादी के आव्हान रहिन. आजादी के बाद दलित जी अपन कविता के माध्यम ले सरकारी योजना मन के भरपूर प्रचार करिन. समाज मा फइले अन्धविश्वास, छुआछूत, अशिक्षा  जइसन कुरीति ला दूर करे बर उनकर कलम मशाल के काम करिस. 

जनकवि कोदूराम “दलित” जी के पहचान छत्तीसगढ़ी कवि के रूप मा होइस हे फेर उनकर हिन्दी भाषा ऊपर घलो समान अधिकार रहिस. लइका मन बर सरल भाषा मा बाल कविता, जनउला, बाल नाटक, क्रिया गीत रचिन. तइहा के ज़माना मा ( सन् पचास के दशक) जब छत्तीसगढ़ी भाषा गाँव देहात के भाषा रहिस कोदूराम दलित जी आकाशवाणी नागपुर, भोपाल, इंदौर मा जा के छत्तीसगढ़ी भाषा मा कविता  अउ कहानी सुनावत रहिन. छत्तीसगढ़ी भाषा ला कविसम्मेलन के मंच मा स्थापित करइया शुरुवाती दौर के कवि मन मा उनला सुरता करे जाही. दलित जी के भाषा सरल, सरस औ सुबोध रहिस. व्याकरण के शुद्धता ऊपर वोमन ज्यादा ध्यान देवत रहिन इही पाय के उनकर ज्यादातर कविता मन मा छन्द के दर्शन होथे. दलित जी के हिन्दी रचना मन घलो छन्दबद्ध हें.   पंडित सुंदरलाल शर्मा के बाद कोनो कवि हर छत्तीसगढ़ मा छन्द ला पुनर्स्थापित करिस हे त वो कवि कोदूराम "दलित" आय. 28 सितम्बर 1967 के दलित जी के निधन होइस। दलित जी के छन्दबद्ध रचना ला छन्द विधान सहित जानीं।

 

दोहा छन्द - दू पद अउ चार चरण के छन्द आय। दुनों पद आपस मा तुकांत होथें अउ पद के अंत गुरु, लघु मात्रा ले होथे। 13 अउ 11 मात्रा मा यति होथे। कोदूराम दलित जी के नीतिपरक दोहा देखव -


संगत सज्जन के करौ, सज्जन सूपा आय।

दाना दाना ला रखै, भूँसा देय उड़ाय।।


दलित जी मूलतः हास्य व्यंग्य के कवि रहिन। उनकर दोहा मा समाज के आडम्बर ऊपर व्यंग्य देखव - 


ढोंगी मन माला जपैं, लम्भा तिलक लगाँय।

मनखे ला छीययँ नहीं, चिंगरी मछरी खाँय।।


बाहिर ले बेपारी मन आके सिधवा छत्तीसगढ़िया ऊपर राज करे लगिन। ये पीरा ला दलित जी व्यंग्य मा लिखिन हें – 


फुटहा लोटा ला धरव, जावव दूसर गाँव।

बेपारी बनके उहाँ, सिप्पा अपन जमाँव।।


टिकरी गाँव के माटी मा जनमे कवि दलित के बचपना गाँवे मा बीतिस। गाँव मा हर चीज के अपन महत्व होथे। गोबर के सदुपयोग कइसे करे जाय, एला बतावत उनकर दोहा देखव –


गरुवा के गोबर बिनौ, घुरवा मा ले जाव।

खूब सड़ो के खेत बर, सुग्घर खाद बनाव।।


छत्तीसगढ़ धान के कटोरा आय। इहाँ के मनखे के मुख्य भोजन बासी आय। दलित जी भला बासी के गुनगान कइसे नइ करतिन – 


बासी मा गुन हे गजब, येला सब मन खाव।

ठठिया भर पसिया पियव, तन ला पुष्ट बनाव।।


दलित जी किसान के बेटा रहिन। किसानी के अनुभव उनकर दोहा मा साफ दिखत हे – 


बरखा कम या जासती, होवय जउने साल।

धान-पान होवय नहीं, पर जाथै अंकाल।।


जनकवि कोदूराम "दलित" जी नवा अविष्कार ला अपनाये के पक्षधर रहिन। ये प्रगतिशीलता कहे जाथे। कवि ला बदलाव के संग चलना पड़थे। देखव उनकर दोहा मा विज्ञान ला अपनाए बर कतिक सुग्घर संदेश हे – 


आइस जुग विज्ञान के, सीख़ौ सब विज्ञान।

सुग्घर आविष्कार कर, करौ जगत कल्यान।।


सोरठा छन्द - ये दोहा के बिल्कुले उल्टा होथे। यहू दू पद अउ चार चरण के छन्द आय। दुनों विषम चरण आपस मा तुकांत होथें अउ विषम चरण के अंत गुरु, लघु मात्रा ले होथे। 11 अउ 13 मात्रा मा यति होथे।


बंदँव बारम्बार, विद्या देवी सरस्वती।

पूरन करहु हमार, ज्ञान यज्ञ मातेस्वरी।।


उल्लाला छन्द - दू पद अउ चार चरण के छन्द आय। विषम अउ सम चरण  या सम अउ सम चरण आपस मा तुकांत होथें अउ हर चरण दोहा के विषम चरण असन होथे। ये छन्द मा 13 अउ 13 मात्रा मा यति होथे।


खेलव मत कोन्हों जुआ, करव न धन बरबाद जी।

आय जुआ के खेलना, बहुत बड़े अपराध जी।। 

 

सरसी छन्द - दू पद अउ चार चरण के छन्द आय। दुनों पद आपस मा तुकांत होथें अउ पद के अंत गुरु, लघु मात्रा ले होथे। 16 अउ 11 मात्रा मा यति होथे। दलित जी सन् 1931 मा दुरुग आइन अउ इहें बस गें। वोमन प्राथमिक शाला के गुरुजी रहिन। उनकर सरसी छन्द मा गुरुजी के पीरा घलो देखे बर मिलथे –


चिटिक प्राथमिक शिक्षक मन के, सुनलो भइया हाल।

महँगाई के मारे निच्चट , बने हवयँ कंगाल।।


गुरुजी मन के हाल बर सरकार ऊपर व्यंग्य देखव –

 

जउन देस मा गुरूजी मन ला, मिलथे कष्ट अपार।

कहै कबीरा तउन देस के , होथे बंठाढार।।


दलित जी अइसन गुरुजी मन ऊपर घलो व्यंग्य करिन जउन मन अपन दायित्व ला बने ढंग ले नइ निभावँय – 


जउन गुरूजी मन लइका ला, अच्छा नहीं पढ़ायँ।

तउन गुरूजी अपन देस के, पक्का दुस्मन आयँ।।


रोला छन्द - चार पद, दू - दू पद मा तुकांत, 11 अउ 13 मात्रा मे यति या हर पद मा कुल 24 मात्रा।

दलित जी के ये रोला छन्द मा बात के महत्ता बताये गेहे –


जग के लोग तमाम, बात मा बस मा आवैं।

बाते मां  अड़हा - सुजान  मन चीन्हें जावैं।।

करो सम्हल के बात, बात मा झगरा बाढ़य।

बने-बुनाये काम,सबो ला  बात  बिगाड़य।।


आज के जमाना मा बेटा-बहू मन अपन ददा दाई ला छोड़ के जावत हें। इही पीरा ला बतावत दलित जी के एक अउ रोला छन्द – 


डउकी के बन जायँ, ददा - दाई नइ भावैं।

छोड़-छाँड़ के उन्हला, अलग पकावैं-खावैं।।

धरम - करम सब भूल, जाँय भकला मन भाई।

बनँय ददा-दाई बर ये कपूत दुखदाई।।


छप्पय छन्द – एक रोला छन्द के बाद एक उल्लाला छन्द रखे ले छप्पय छन्द बनथे। ये छै पद के छन्द होथे। गुरु के महत्ता बतावत दलित जी के छप्पय छन्द देखव –


गुरु हर आय महान, दान विद्या के देथे।

माता-पिता समान, शिष्य ला अपना लेथे।।

मानो गुरु के बात, भलाई गुरु हर करथे।

खूब सिखो के ज्ञान, बुराई गुरु हर हरथे।।

गुरु हरथे अज्ञान ला, गुरु करथे कल्यान जी।

गुरु के आदर नित करो, गुरु हर आय महान जी।।


चौपई छन्द - 15, 15 मात्रा वाले चार पद के छन्द चौपई छन्द कहे जाथे। चारों पद या दू-दू पद आपस मे तुकांत होथें। 


धन धन रे न्यायी भगवान। कहाँ हवय जी आँखी कान।।

नइये ककरो सुरता-चेत। देव आस के भूत-परेत।।

एक्के भारत माँ के पूत। तब कइसे कुछ भइन अछूत।।

दिखगे समदरसीपन तोर। हवस निचट निरदई कठोर।।


चौपाई छन्द - ये 16, 16 मात्रा मे यति वाले चार पद के छन्द आय। एखर एक पद ला अर्द्धाली घलो कहे जाथे। चौपाई बहुत लोकप्रिय छन्द आय। तुलसीदास के राम चरित मानस मा चौपाई के सब ले ज्यादा प्रयोग होय हे। जनकवि कोदूराम "दलित" जी अपन कविता ला साकार घलो करत रहिन। उन प्राथमिक शाला के गुरुजी रहिन। अपन निजी प्रयास मा प्रौढ़ शिक्षा के अभियान चला के  आसपास के गाँव साँझ के जाके प्रौढ़ गाँव वाला मन ला पढ़ावत घलो रहिन। प्रौढ़ शिक्षा ऊपर उनकर एक चौपाई – 


सुनव सुनव सब बहिनी भाई। तुम्हरो बर अब खुलिस पढ़ाई।।

गपसप मा झन समय गँवावव। सुरता करके इसकुल आवव।।

दू दू अक्छर के सीखे मा। दू-दू अक्छर के लीखे मा।।

मूरख हर पंडित हो जाथे। नाम कमाथे आदर पाथे।।

अब तो आइस नवा जमाना।हो गै तुम्हरे राज खजाना।।

आज घलो अनपढ़ रहि जाहू।तो कइसे तुम राज चलाहू।।


पद्धरि छन्द - ये 16, 16 मात्रा मा यति वाले दू पद के छ्न्द आय। एखर शुरुवात मा द्विकल (दू मात्रा वाले शब्द) अउ अंत मा जगण (लघु, गुरु, लघु मात्रा वाले शब्द) आथे। हर दू पद आपस मा तुकांत होथे। दलित जी अपन जागरण गीत मा पद्धरि छन्द के बड़ सुग्घर प्रयोग करिन हें – 


झन सुत सँगवारी जाग जाग। अब तोर देश के खुलिस भाग।।

अड़बड़ दिन मा होइस बिहान। सुबरन बिखेर के उइस भान।।

घनघोर घुप्प अँधियार हटिस। ले दे के पापिन रात कटिस।।

वन उपवन माँ आइस बहार। चारों कोती छाइस बहार।। 


मनहरण घनाक्षरी - कई किसम के घनाक्षरी छन्द होथे जेमा मनहरण घनाक्षरी सब ले ज्यादा प्रसिद्ध छन्द आय। येहर वार्णिक छन्द आय। 16, 15 वर्ण मा यति देके चार डाँड़ आपस मा तुकांत रखे ले मनहरण घनाक्षरी लिखे जाथे। चारों डाँड़ आपस मा तुकांत रहिथे। घनाक्षरी छन्द ला कवित्त घलो कहे जाथे। जनकवि कोदूराम "दलित" जी के ये प्रिय छन्द रहिस। उनकर बहुत अकन रचना मन घनाक्षरी छन्द मा हें। कविता मा गाँव के नान नान चीज ला प्रयोग मा लाना उनकर विशेषता रहिस। ये मनहरण घनाक्षरी मा देखव अइसन अइसन चीज के बरतन हे जउन मन समे के संगेसंग नँदा गिन। चीज के नँदाए के दूसर प्रभाव भाजहा ऊपर पड़थे। चीज के संगेसंग ओकर नाम अउ शब्द मन चलन ले बाहिर होवत जाथें अउ शब्दकोश कम होवत जाथे। तेपाय के असली साहित्यकार मन अइसन चीज के नाम के प्रयोग अपन साहित्य मा करके ओला चलन मा जिन्दा राखथें। ये घनाक्षरी दलित जी अइसने प्रयास आय – 


सूपा ह पसीने-फुने, चलनी चालत जाय

बहाना मूसर ढेंकी, मन कूटें धान-ला।

हँसिया पउले साग, बेलना बेलय रोटी

बहारी बहारे जाँता पिसय पिसान-ला।

फुँकनी फुँकत जाय, चिमटा ह टारे आगी

बहू रोज राँधे-गढ़े, सबो पकवान-ला।

चूल्हा बटलोही डुवा तेलाई तावा-मनन

मिलके तयार करें, खाये के समान-ला।।


जब अपन देश ऊपर कोनो दुश्मन देश हमला कर देथे तब कवि के कलम दुश्मन ला ललकारथे। सन् 1962 मा चीन हर हर देश ऊपर हमला करे रहिस। दलित जी के कलम के ललकार देखव - 


चीनी आक्रमण के विरुद्ध (घनाक्षरी)


अरे बेसरम चीन, समझे रहेन तोला

परोसी के नता-मा, अपन बँद-भाई रे।

का जानी कि कपटी-कुटाली तैं ह एक दिन

डस देबे हम्मन ला, डोमी साँप साहीं रे ।

बघवा के संग जूझे, लगे कोल्हिया निपोर

दीखत हवे कि तोर आइगे हे आई रे।

लड़ाई लड़े के रोग, डाँटे हवै बहुँते तो

रहि ले-ले तोर हम, करबो दवाई रे ।। 


अइसने सन् 1965 मा पाकिस्तान संग जुद्ध होइस। दलित जी के आव्हान ला देखव ये घनाक्षरी मा –

 

चलो जी चलो जी मोर, भारत के वीर चलो

फन्दी पाकिस्तानी ला, हँकालो मार-मार के।

कच्छ के मेड़ों के सबो, चिखलही भुइयाँ ला

पाट डारो उन्हला, जीयत डार-डार के।

सम्हालो बन्दूक बम , तोप तलवार अब

आये है समय मातृ-भूमि के उद्धार के।

धन देके जन देके, लहू अउ सोन देके

करो खूब मदद अपन सरकार के।।


गाँव मे पले-बढ़े के कारण दलित जी अपन रचना मन मा गाँव के दृश्य ला सजीव कर देवत रहिन। उनकर चउमास नाम के कविता घनाक्षरी छन्द मा रचे गेहे। उहाँ के दू दृश्य मा छत्तीसगढ़ के गाँव के सजीव बरनन देखव – 


बाढिन गजब माँछी बत्तर-कीरा "ओ" फांफा,

झिंगरुवा, किरवा, गेंगरुवा, अँसोढिया ।

पानी-मां मउज करें-मेचका भिंदोल घोंघी,

केंकरा केंछुवा जोंक मछरी अउ ढोंड़िया ।।

अँधियारी रतिहा मा अड़बड़ निकलयं,

बड़ बिखहर बिच्छी सांप-चरगोरिया ।

कनखजूरा-पताड़ा सतबूंदिया औ" गोहे,

मुंह लेड़ी धूर नाँग, कँरायत कौड़िया ।।


जनकवि कोदूराम "दलित" के एक प्रसिद्ध रचना "तुलसी के मया मोह राई छाईं उड़गे" मा गोस्वामी तुलसी दास के जनम ले लेके राम चरित मानस गढ़े तक के कहिनी घनाक्षरी छन्द मा रचे गेहे। वो रचना के एक दृश्य देखव कि छत्तीसगढ़ के परिवेश कइसे समाए हे – 


एक दिन आगे तुलसी के सग सारा टूरा,

ठेठरी अउ खुरमी ला गठरी मा धर के।

पहुँचिस बपुरा ह हँफरत-हँफरत,

मँझनी-मँझनिया रेंगत थक मर के।

खाइस पीइस लाल गोंदली के संग भाजी,

फेर ओह कहिस गजब पाँव पर के।

रतनू दीदी ला पठो देते मोर संग भाँटो,

थोरिक हे काम ये दे तीजा-पोरा भर के।।


कुण्डलिया छन्द – ये छै डांड़ के छन्द होथे. पहिली दू  डांड़ दोहा के होथे ओखर बाद एक रोला छन्द रखे जथे. दोहा के चौथा चरण रोला के पहिली चरण बनथे. शुरू के शब्द या शब्द-समूह वइसने के वइसने कुण्डलिया के आखिर मा आना अनिवार्य होते. कोदूराम "दलित" जी  आठ सौ ले ज्यादा कविता लिखिन हें फेर अपन जीवन काल मा एके किताब छपवा पाइन - "सियानी गोठ"। ये किताब कुण्डलिया छन्द के संग्रह हे। कवि गिरिधर कविराय, कुण्डलिया छन्द के जनक कहे जाथें। उनकर परम्परा ला दलित जी, छत्तीसगढ़ मा पुनर्स्थापित करिन हें। साहित्य जगत मा कोदूराम "दलित" जी ला छत्तीसगढ़ के गिरिधर कविराय घलो कहे जाथे। गिरिधर कविराय के जम्मो कुण्डलिया छन्द नीतिपरक हें फेर दलित जी के कुण्डलिया छन्द मा विविधता देखे बर मिलथे। आवव कोदूराम "दलित" जी के कुण्डलिया छन्द के अलग-अलग रंग देखव – 


नीतिपरक कुण्डलिया – राख


नष्ट करो झन राख –ला, राख काम के आय।

परय खेत-मां राख हर , गजब अन्न उपजाय।।

गजब  अन्न  उपजाय, राख मां  फूँको-झारो।

राखे-मां  कपड़ा – बरतन  उज्जर  कर  डारो।।

राख  चुपरथे  तन –मां, साधु,संत, जोगी मन।

राख  दवाई  आय, राख –ला नष्ट करो झन।।


सम सामयिक  - पेपर

पेपर मन –मां रोज तुम, समाचार छपवाव।

पत्रकार संसार ला, मारग सुघर दिखाव।।

मारग सुघर दिखाव, अउर जन-प्रिय हो जाओ।

स्वारथ - बर पेपर-ला, झन पिस्तौल बनाओ।।

पेपर मन से जागृति आ जावय जन-जन मा।

सुग्घर समाचार छपना चाही पेपर-मा।।


पँचसाला योजना  (सरकारी योजना) - 

 

पँचसाला हर योजना, होइन सफल हमार।

बाँध कारखाना सड़क, बनवाइस सरकार।।

बनवाइस सरकार, दिहिन सहयोग सजाबो झन।

अस्पताल बिजली घर इसकुल घलो गइन बन।।

देख हमार प्रगति अचरज, होइस दुनिया ला।

होइन सफल हमार, योजना मन पँचसाला।।


अल्प बचत योजना - (जन जागरण)

अल्प बचत के योजना, रुपया जमा कराव।

सौ के बारे साल मा, पौने दू सौ पाव।।

पौने दू सौ पाव, आयकर पड़ै न देना।

अपन बाल बच्चा के सेर बचा तुम लेना।।

दिही काम के बेरा मा, ठउँका  आफत के।

बनिस योजना तुम्हरे खातिर अल्प बचत के।।


विज्ञान – (आधुनिक विचार)

आइस जुग विज्ञान के , सीखो  सब  विज्ञान।

सुग्घर आविस्कार कर ,  करो जगत कल्यान।।

करो जगत कल्यान, असीस सबो झिन के लो।

तुम्हू जियो अउ दूसर मन ला घलो जियन दो।।

ऋषि मन के विज्ञान , सबो ला सुखी बनाइस।

सीखो सब  विज्ञान,   येकरे जुग अब आइस।।


टेटका – (व्यंग्य) 


मुड़ी हलावय टेटका, अपन टेटकी संग।

जइसन देखय समय ला, तइसन बदलिन रंग।।

तइसन बदलिन रंग, बचाय अपन वो चोला।

लिलय  गटागट जतका, किरवा पाय सबोला।।

भरय पेट तब पान-पतेरा-मां छिप जावय।

ककरो जावय जीव, टेटका मुड़ी हलावय।।


खटारा साइकिल – (हास्य)


अरे खटारा साइकिल, निच्चट गए बुढ़ाय।

बेचे बर ले जाव तो, कोन्हों नहीं बिसाय।।

कोन्हों नहीं बिसाय, खियागें सब पुरजा मन।

सुधरइया मन घलो हार खागें सब्बो झन।।

लगिस जंग अउ उड़िस रंग, सिकुड़िस तन सारा।

पुरगे मूँड़ा तोर, साइकिल अरे खटारा।।


अउ आखिर मा दलित जी के ये कुण्डलिया छन्द, हिन्दी भाषा मा -

नाम -

रह जाना है नाम ही, इस दुनिया में यार।

अतः सभी का कर भला, है इसमें ही सार।।

है इसमें ही सार, यार तू तज के स्वारथ।

अमर रहेगा नाम, किया कर नित परमारथ।।

काया रूपी महल, एक दिन ढह जाना है।

किन्तु सुनाम सदा दुनिया में रह जाना है।।

छत्तीसगढ़ के जनकवि कोदूराम "दलित" जी अपन पहिली कुण्डलिया छन्द संग्रह "सियानी गोठ" (प्रकाशन वर्ष - 1967) मा अपन भूमिका मा लिखे रहिन- "ये बोली (छत्तीसगढ़ी) मा खास करके छन्द बद्ध कविता के अभाव असन हवय, इहाँ के कवि-मन ला चाही कि उन ये अभाव के पूर्ति करें। स्थायी छन्द लिखे डहर जासती ध्यान देवें। ये बोली पूर्वी हिन्दी कहे जाथे। येहर राष्ट्र-भाषा हिन्दी ला अड़बड़ सहयोग दे सकथे। यही सोच के महूँ हर ये बोली मा रचना करे लगे हँव"। 

उंकर निधन 28 सितम्बर 1967 मा होइस, उंकर बाद छत्तीसगढ़ी मा छन्दबद्ध रचना लिखना लगभग बंद होगे। सन् 2015 के दलित जी के बेटा अरुण कुमार निगम हर छत्तीसगढ़ी मा विधान सहित 50 किसम के छन्द के एक संग्रह "छन्द के छ" प्रकाशित करवा के दलित जी के सपना ला पूरा करिन। आजकाल छन्द के छ नाम के ऑनलाइन गुरुकुल मा छत्तीसगढ़ के नवा कवि मन ला छन्द के ज्ञान देवत हें जेमा करीब 300 ले आगर नवा कवि मन छत्तीसगढ़ी भाषा मा कई किसम के छन्द लिखत हें अउ अपन भाषा ला पोठ करत हें। 


आलेख - अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़

Thursday, September 19, 2024

कुण्डलिया छन्द

चंदा में रोटी....


रोटी में चन्दा दिखे, श्वेत घटा में खीर।

नहीं सता सकती हमें, किसी तरह की पीर।।

किसी तरह की पीर, नहीं हम पाला करते।


जैसे हों हालात, स्वयं को ढाला करते।।


इच्छाओं को पाल, कहो तुम किस्मत खोटी।


हम तो हैं खुशहाल, देख चन्दा में रोटी।।


अरुण कुमार निगम

दुर्ग

Friday, February 2, 2024

फरवरी

 "वासंती फरवरी"


कम-उम्र बदन से छरहरी

लाई वसंत फिर फरवरी।


शायर कवियों का दिल लेकर

शब्दों का मलयानिल लेकर

गाती है करमा ब्याह-गीत

पंथी पंडवानी भरथरी

लाई वसंत फिर फरवरी।


गुल में गुलाब का दिवस लिए

इक प्रेम-दिवस भी सरस लिए

है पर्यावरण प्रदूषित पर

बातें इसकी हैं मदभरी

लाई वसंत फिर फरवरी।


इसकी भी अपनी हस्ती है

इसमें मेलों की मस्ती है

नमकीन मधुर कुछ खटमीठी

थोड़ी तीखी कुछ चरपरी

लाई वसंत फिर फरवरी।


यह बारह भाई-बहनों में

इकलौती सजती गहनों में

यूँ आती यूँ चल देती है

बस नजर डाल कर सरसरी

लाई वसंत फिर फरवरी।


सुख शेष कहाँ अब जीवन में

घुट रही साँस वातायन में

कुछ राहत सी दे जाती है

बन स्वप्न-लोक की जलपरी

लाई वसंत फिर फरवरी।


रचनाकार - अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग

छत्तीसगढ़

Monday, November 6, 2023

"सूरत पानीदार रखो जी"

 "सूरत पानीदार रखो जी"

तोहफों की भरमार रखो जी

भाषण लच्छेदार रखो जी


लॉलीपॉप-रेवड़ी जैसे

आकर्षक उपहार रखो जी


जनता चाहे रोये-कलपे

खुश अपना परिवार रखो जी


जोड़-तोड़ में धन फूँको पर

अपनी ही सरकार रखो जी


जय जयकार कराने खातिर

कुछ-बन्दे  तैयार रखो जी


पौने पाँच साल अकड़ो और

तीन माह व्यवहार रखो जी


तिनके काम नहीं आएंगे

हाथों में पतवार रखो जी


कौन कसौटी पर कसता है

वादों का अंबार रखो जी


अरुण रहे कैसी भी सीरत

सूरत पानीदार रखो जी


रचना - अरुण कुमार निगम 

Thursday, August 17, 2023

एक ग़ज़ल

 एक ग़ज़ल :


सदन को यूँ सँभाला जा रहा है 

हर इक मुद्दे को टाला जा रहा है


रक़ीबों ने किया है जुर्म फिर भी

हमारा नाम उछाला जा रहा है


बचेगा किस तरह दंगों का ज़ख़्मी

नमक घावों पे डाला जा रहा है


सभा में भीड़ है दुर्योधनों की

युधिष्ठिर को निकाला जा रहा है


इधर गायें भटकती हैं सड़क पर

उधर कुत्तों को पाला जा रहा है


सुबह अखबार में खबरों को पढ़ के 

हलक़ से क्या निवाला जा रहा है?


लिखे अशआर क्या दो-चार सच पर

"अरुण" का घर खँगाला जा रहा है


- अरुण कुमार निगम

Monday, January 23, 2023

"स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ी सुराजी काव्य और साहित्य का योगदान"

 "स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ी सुराजी काव्य और साहित्य का योगदान"


अंग्रेजों ने व्यापार करने के बहाने भारत की पुण्य धरा पर कदम रखे और अपने पैर पसारते गये। देश गुलाम हो गया। अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ता गया और बढ़ता ही गया। जब अत्याचार अति की सीमा को लाँघने लगता है तब क्रांति का उदय होता है, विद्रोह जन्म लेने लगता है। भारत के अनेक अंचलों से विद्रोह की चिंगारी विराट रूप धारण करने लगी। 


छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं रहा। वर्ष 1818 में बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में गैंद सिंह के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। वर्ष 1857 से छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो गयी थी । सोनखान के जमींदार वीरनारायण सिंह ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का ऐलान किया था। तत्पश्चात अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अपने प्राणों को हथेली में रख कर इस महासमर में कूद गए थे। 


वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर ब्रिटेन ने भारत की मर्जी के खिलाफ भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय कांग्रेस के नेताओं से बिना पूछे भारत को जर्मनी के खिलाफ युद्ध में झोंक दिया था। गाँधी जी ने इसका विरोध किया था और घोषणा कर दी कि हम इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ नहीं देंगे। उन्होंने देश को यह नारा दिया था - 


ब्रिटिश युद्ध प्रयत्न में, जन-धन देना भूल है।

सफल युद्ध अवरोध वर, सत्य अहिंसा मूल है।


छत्तीसगढ़ के स्वभाव में कभी भी आक्रामकता नहीं रही। छत्तीसगढ़ की जनता पर गाँधी जी का बहुत अधिक प्रभाव रहा है। यहाँ की शांति-प्रिय जनता सत्य और अहिंसा को अपनाती रही है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सत्याग्रह करते हुए जेल जाते रहे। स्वतंत्रता के आंदोलन में छत्तीसगढ़ के कलम के सिपाही तमाम साहित्यकार भी कूद गए। कलम ही उनकी तलवार थी। जन-जागरण के गीत रचे गए। राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए नाटकों का मंचन होने लगा। अक्षर-अक्षर चिंगारी बनकर ब्रिटिश शासन का विरोध करने लगे। 


छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य में सन् 1501 से सन् 1900 तक का काल "भक्तिकाल" था अतः इस अवधि का सुराजी साहित्य उपलब्ध नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य का आधुनिक काल सन् 1901 से माना गया है जिसे तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है।

शैशव काल (सन 1901-1925 तक) - इस काल में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. सुंदरलाल शर्मा ने अनेक आंदोलनों पर छत्तीसगढ़ी भाषा में काव्य रचनाएँ कीं। 


शैशव काल के साहित्यकार पं. लोचन प्रसाद पांडे ने साम्प्रदायिक सौहार्द्रता स्थापित करने का आग्रह करते हुए स्वराज लेंगे का नारा बुलंद किया था - 


हिन्दू तुरुक एक हो, कुच्छु करा बिचार गा।

दुख झन भोगा रात दिन, करा देश उद्धार गा।।  


अपन भुजा के बल मं रह के, सब स्वतंत्र हो जावा गा।

हक्क न अपन जान दा सोझे, "स्वराज लेंगे" गावा गा।।


अब जो करिहा सुना तुंहर सब, धरम-करम बच जाही गा।

भारत मालामाल होय दुख-दारिद पास न आही गा।।

(लोचन प्रसाद पांडे)


कवि गिरिवरदास वैष्णव जी सामाजिक क्रांतिकारी कवि थे। अंग्रेजों के शासन के खिलाफ लिखते थे -

उनका प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह "छत्तीसगढ़ी सुराज" के नाम से प्रकाशित हुआ था। उनकी कविताओं में समाज की झलकियाँ मिलती है। समाज के अंधविश्वास, जातिगत ऊँच-नीच, छुआछूत, सामंत प्रथा इत्यादि के विरोध में लिखते थे।


अंगरेजवन मन हमला ठगके

हमर देस मा राज कर् या।

हम कइसे नालायक बेटा

उंखरे आ मान कर् या।

(कवि गिरिवरदास वैष्णव) 


(ब) विकास काल - (सन् 1926 से सन् 1950 तक)


आज हम स्वतंत्र हैं। सार्वजनिक रूप से कुछ भी कह लेते हैं, लिख लेते हैं लेकिन स्वतंत्रता के पहले ब्रिटिश शासनकाल में देशप्रेम की बातें करना या देशभक्ति पर कुछ लिखना दंडनीय अपराध हुआ करता था। वन्देमातारम् , जय हिन्द जैसे नारे लगाने पर गोलियाँ चल जाती थीं, लाठियाँ बरस जाती थीं। जेलों में ठूँस दिया जाता था। ऐसे कठिन काल में साहित्यकारों ने जो कुछ भी लिखा वह उनके अदम्य साहस का परिचायक है। 


इस काल में गाँधीवादी विचारधारा के कवियों तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने ही देश की आजादी पर रचनाएँ रचीं। गाँधीवादी विचारधारा के कवि कोदूराम "दलित" हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषा पर समान अधिकार रखते थे। वे पक्के गाँधीवादी थे। छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य में स्वतंत्रता आंदोलन के संबंध में उन्होंने ही सर्वाधिक कविताएँ लिखीं। 


वे प्राथमिक शाला के अध्यापक थे। वे अपने विद्यार्थियों की टोली लेकर गाँव-गाँव में जाते थे और राउत दोहों के माध्यम से देशभक्ति की भावना जगाया करते थे। 

राऊत नाचा के दोहे -


सत्य-अहिंसा के राम-बान

गाँधी जी मारिस तान-तान।


हमर तिरंगा झंडा भैया, फहरावै आसमान रे
येकर शान रखे खातिर हम देबो अपन परान रे

हमर तिरंगा झंडा भैया, फहरावै आसमान रे
चलो चलो संगी हम गाबो ,जन गण मन के गान रे


होले गीत


गाँधी के गुन गाबो, लाल

गाँधी के गुन गाबो, अरे भइया हो

गाँधी के गुन गाबो लाल

देस आजाद कराबो लाल….

देस आजाद कराबो, अरे भइया हो

गाँधी के गुन गाबो लाल


परदेशी गोरा आइन हें

भूरी चांटी-जस छाइन हें

उन्हला मार भगाबो, लाल

उन्हला मार भगाबो, अरे भइया हो

गाँधी के गुन गाबो, लाल



सत्याग्रह - 

अब हम सत्याग्रह करबो

कसो कसौटी-मा अउ देखो

हम्मन खरा उतरबो

अब हम सत्याग्रह करबो.


चलो जेल सँगवारी - 

बड़  सिधवा बेपारी बन के, हमर  देश  मा  आइस
हमर-तुम्हर मा फूट डार के, राज-पाट हथियाइस
अब सब झन मन जानिन कि ये आय  लुटेरा भारी
अपन देश आजाद करे बर, चलो जेल संगवारी।

कतको झिन मन चल देइन अब, आइस हमरो बारी।।


स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ ही साथ अंग्रेजों के दमनकारी नियमों के खिलाफ अनेक आंदोलन और सत्याग्रह भी होते रहे। उन्हीं में से एक आंदोलन "स्वदेशी आंदोलन" था जिसमें विदेशी वस्त्रों की होली जलायी गयी । तकली, चरखा और हथकरघा के बने खादी के वस्त्रों अपनाने का संकल्प लिया गया। 


कवित्त

सूत कातिहौं वो दाई, महूँ गाँधी बबा साहीं

ले दे मोर बर पोनी चरखा अउ तकली

हाथ करघा मा बुनवाहूँ मैं सुग्घर खादी

बार देहूँ होले-मा बिदेसी वस्त्र नकली


खादी के वस्त्र न केवल अंग्रेजों की अर्थ-व्यवस्था पर प्रहार थे बल्कि रोजगार का सशक्त माध्यम भी बने। गरीब से गरीब परिवार भी तकली और पोनी का प्रयोग कर सकता था 


तकली

सूत कातबो भइया आव

अपन-अपन तकली ले लाव

भूलो  मत  बापू के बात

करो कताई तुम दिन-रात

छोड़ो आलस कातो सूत

भगिही बेकारी के भूत।।


दलित जी की रचनाओं में आजादी के विभिन्न आयाम मिलते हैं, इसीलिए तो कहा जाता है कि जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। अंग्रेजों की सेना में भारतीय सिपाही भी थे। दलित जी ने उनकी अंतरात्मा को जगाने के लिए भी कविताएँ लिखीं।


सिपाही से -

हम ला झन मार सिपाही, हम ला झन मार सिपाही

एक्के महतारी के हम-तैं पूत आन रे भाई

हम ला झन मार सिपाही


लड़त हवन हन हम्मन सुराज लाने बर खूब लड़ाई

हवन पुजारी सत्य-अहिंसा के बापू जी साहीं

सत्याग्रही हमन चिटको गोरा ला नहीं डराईं

हम ला झन मार सिपाही


उन्होंने आजादी-आंदोलन के सिपाहियों के जोश को बढ़ाने के लिए लिखा - 


वीर सिपाही - 

हम वीर सिपाही अउ प्रताप के वंशज मन

का हुँड़रा कोल्हिया मन ला घलो डराबो जी ?

का इनकर डर मा हम घर मा खुसरे रहिबो?

अउ अपन देश के अउ नुकसान कराबो जी ?


अब तो हम ठाने हन इनकर सँग जूझे के

धरके बन्दूक सबो चेलिक मन जाबो जी

अउ कुदा-कुदा के अउहा-तउहा लगे हाँत

इन बँड़वा हुँड़रा मन ला मार गिराबो जी।


जनकवि कोदूराम "दलित" ने आजादी के बाद भी नव-सृजन के अनेक गीत लिखे। कविता के माध्यम से उन्होंने गाँधी जी का आभार भी प्रकट किया - 


धन्य बबा गाँधी! -

कर-कर के सत्याग्रह गोरा-शासन ला झकझोरे
तोर प्रताप देख के चर्चिल, रहिगे दाँत निपोरे
चरखा-तकली चला-चला के, खद्दर पहिने ओढ़े
धन्य बबा गाँधी! सुराज ला लेये तब्भे छोड़े।


दलित जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा में जितनी सशक्त रचनाएँ लिखीं, उतनी ही सशक्त रचनाएँ उन्होंने हिन्दी में भी लिखीं - 


पहनो केसरिया बाना 

बढ़ो बढ़ो ए भारत वीरों ऋषियों की प्यारी संतान स्वतंत्रता के महासमर में हो जाओ सहर्ष बलिदान।

धर्म-युद्ध में मरना भी है अमर स्वर्ग-पद को पाना रणभेरी बज चुकी वीरवर पहनो केसरिया बाना।।


वीर सैनिक 

भारत के वीर पुत्र हम सब सैनिक बन जाएंगे 

अब दुखिया भारत माता के सब कष्ट मिटाएंगे।।


हम चरखा रूपी चक्र सुदर्शन फेरा करते हैं 

रण-क्षेत्र में निर्भय दुश्मन को घेरा करते हैं 

इसके जरिए हम बैरियो का गला उड़ाएंगे

अब दुखिया भारत माता के सब कष्ट मिटाएंगे।।


रहे न कोई भूखा-नंगा

कहा सयानों ने सच ही है, आजादी से जीना अच्छा।

किंतु गुलामी में जिंदा रहने से मर जाना है अच्छा।।


(कवि कोदूराम "दलित")


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्रांतिकारी कवि कुंज बिहारी चौबे जब स्टेट हाई स्कूल राजनाँदगाँव में कक्षा चौथी में थे तब किसी अंग्रेज अधिकारी के शाला निरिक्षण के समय कक्षा के मॉनिटर के द्वारा अधिकारी का स्वागत गाड सेव द् एंथम के साथ सेल्यूट के साथ किया जाता था, जब अंग्रेज अधिकारी को सम्मान करने की बारी मॉनिटर होने की वजह से उन्हें करनी पड़ी तो वे वंदें मातरम कह उनके अभिवादन किये, जिससे सब हतप्रभ हो अंग्रेज अधिकारी के क्रोध का शिकार होना पड़ा फिर भी वे "वंदेमातरम" बोलते रहे। जब वे कक्षा आठवीं पहुचे तब उन्होंने शाला में फहराते यूनियन जेक को उतार के तिरंगा फहरा दिया था। दूसरे दिन सुबह प्रिंसिपल का ध्यान लहराते तिरंगे की ओर गया तब उन्होंने छात्रों की पिटाई करते हुए पूछताछ की कि किसने तिरंगा फहराया है ? तब निडरता से कुंज बिहारी चौबे ने कहा कि मेरे बेकसूर साथियों को आप क्यों मार रहे हैं? जो दण्ड देना चाहते हैं, मुझे दीजिए। तिरंगा मैंने ही फहराया है। बेंत से उनकी बेदाम पिटाई की गयी पर वे वंदेमातरम और महात्मा गांधी की जय के नारे लगाते रहे, उनका साथ सभी छात्रों ने दिया। इस प्रकरण में उन्हें स्कूल से निष्कासित कर राजनाँदगाँव विरासत की सीमा से बेदखल होने की सजा मिली। कुंजबिहारी लाल के समर्थन में छात्रों ने स्कूल आना बंद कर दिया तब तत्कालीन राजनाँदगाँव विरासत के राजा के द्वारा कुंज बिहारी चौबे  के निष्कासन को रद्द करना पड़ा।


क्रांतिकारी कवि कुंजबिहारी लाल चौबे की कविता देखिए - 


आँखी मा हमर धुर्रा झोंक दिये, 

मुड़ी मा थोप दिये मोहनी।

अरे बैरी जानेन तोला हितवा ,

गँवायेन हम दूनों, दूध-दोहनी।।

पीठ ला नहीं तैंहर पेट ला मारके, 

करे जी पहिली बोहनी।

फेर हाड़ा गोड़ा ला हमर टोरे,

फोरे हमर माड़ी कोहनी।

गरीब मन के हित करत हौं कहिके,

दुनियॉं मा पीटे ढिंढोरा ।

तैं हर ठग डारे हमला रे गोरा।।


कुंज बिहारी चौबे जी की एक और कविता जो बहुत मशहूर हुई है - 

अजी अंग्रेज ! तंय हमला बनाए कंगला 

सात समुंदर विलायत ले आके 

हमला बना देहे भिखारी जी ।  

हमला नचाए तैं बेंदरा बरोबर 

बन गए तैं मदारी जी।

चीथ चीथ के तंय हमर चेथी के मांस ला 

अपन बर तैंहर टेकाये बंगला….

चिथरा पहिरथन, कथरी ला दसाथन

पेज-पसिया पी के अघाथन जी

चिरहा कमरा अउ टुटहा खुमरी मा

घिलर-घिलर के कमाथन जी।

हमरे रकत ला चुहक के रे गोरा!, 

लाल करे अपन अंग ला……...


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार हरि ठाकुर ने भी अपने विद्यार्थी जीवन में रायपुर के सेंटपॉल स्कूल में अपने साथी रामकृष्ण गुप्ता के साथ अगस्त 1942 में तिरंगा फहरा दिया था। उन्होंने सितंबर 1942 में चर्चिल के पुतले का भी दहन कर दिया था इसीलिए उनके साहित्य में भी आजादी की ऊष्मा अलग से महसूस की जा सकती है। 


बनिया बन आइन अंगरेज। मेटिन धरम, नेम, परहेज।।

देस हमर सुख के सागर। बनिस पाप-दुख के गागर।।


करिन फिरंगी छल-बल-कल। फूट डार के करिन निबल।।

बढ़िन फिरंगी पाँव पसार। हमरे खा के देइन डकार।।


करिन देस के सत्यानास। भारत माता भइस उदास।।

करिन फिरंगी अत्याचार। मचिस देस में हाहाकार।।

(कवि हरि ठाकुर)


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार केयूर भूषण ने छत्तीसगढ़ की जनता को जगाते हुए कहा - 


रहे समुंदर के पार, करे सोरा सिंगार 

धरे एटमी हथियार, करे दुनिया बिहार 

जेकर मानुष के अहार, हवै सोना के बैपार 

चिटिक जागव जी उन ला चीन्हव जी। 

(साहित्यकार केयूर भूषण)


कवि प्यारेलाल गुप्त की कविता में उस दौर में भारतीय जनता की भावनाएँ परिलक्षित होती हैं कि किस तरह से लोग देश-हित में धन, स्वर्ण, गहने ही नहीं बल्कि अपना रक्त-दान करने के लिए भी बड़ी ही उदारता के साथ उमड़ पड़े थे। उनकी एक मार्मिक रचना - 


माँ! ये कानन के झुमका लाके मैं दे दिहों

माँ! जम्मो जोरे रुपैया महूँ दे दिहों

माँ! कोष भारत के रक्षा के खुले हे जिहाँ

सारी बस्ती के मनखे जुरे हे जिहाँ

लहू दिए बर झगरथें जिहाँ

नोट-सोना अउ गहना बरसथे जिहाँ।

माँ! ये सोनहा कड़ा तहूँ चलके दे

जउन दुश्मन के छाती के गोली बने।

(कवि प्यारेलाल गुप्त)


कवि द्वारिकाप्रसाद तिवारी "विप्र" ने बहनों से आह्वान किया था कि वे अपने बच्चों को देश प्रेम के गीत सुनाएँ, उन्हें वीर बनाएँ ताकि बच्चों के मुख से जय-हिंद का नारा सहज ही निकल पड़े - 


अब सुनिहा दीदी हमर एकठन गोठ ओ

अब आए हे घड़ी अलवर पोठ ओ 

लइकन ला अब वीर बनावा 

रोज सुदेसी गीत सुनावा

अब जैहिंद कहत मा उघरै 

सब लइकन के ओंठ ओ।

अब सुनिहा दीदी हमर एकठन गोठ ओ।।

(कवि द्वारिकाप्रसाद तिवारी "विप्र")


असहयोग आंदोलन के दिनों में कवि बद्री विशाल परमानंद के क्रांतिकारी भजन, विभिन्न पार्टियों में गाये जाते थे। उनके खुद के नाम से अलग-अलग स्थानों पर लगभग 80 भजन-मंडलियाँ हुआ करती थीं - 


चण्डिके जगदम्बे ज्वाला,

भारत की रखना लाज

हम उमड़ पड़े हैं आज

बचाने लाज हिन्द माता की

तेरे सजे सिपाही केसरिया बाना की

(कवि बद्री विशाल परमानंद)


कवि लाला फूलचंद श्रीवास्तव ने मुहावरों का प्रयोग करते हुए अंग्रेजों की क्रूरता का वर्णन किया था - 


माँस लहू ल अंग्रेज पी दिन, हाड़ा रहिगे साँचा।

बाघ के गारा बइला बँधाये, कंस ममा घर भाँचा।।

सत अहिंसा बीज गँवाके, गोली मार गिराइन

पाप के खातिर गुड नठागे, भूत अइसन बौराइन।।

(कवि लाला फूलचंद श्रीवास्तव)


कवि दशरथ लाल निषाद ने शहीद वीर नारायण सिंह की शौर्य गाथा सुनाकर सभी को जगाने का प्रयास किया - 


अपन जम्मो धन बांट के, वीर नारायण कहै ललकार  

सेवा भाव के ढोंग मढ़ा के, अंग्रेज होगिन हें मक्कार।

जागव जागव गा सबो लइकन अउ सियान ....। 

(कवि दशरथ लाल निषाद)


कवि पुरुषोत्तम लाल ने अपनी मातृभूमि के प्रति आभार व्यक्त करते हुए उसे गुलामी के बंधनों से मुक्त कराने का संकल्प लिया - 


अइसन हमला पोसें पाले ओइसन आबो एक दिन काम बंधन ले मुक्ता के तुम ला , करबो कोटि कोटि परनाम । 

(कवि पुरुषोत्तम लाल)


कवि शेषनाथ शर्मा 'शील' अपनी हिन्दी की कविताओं से जन जागरण करते रहे - 

बाजुएं शिथिल हुईं 

कि हन्त धर्म सो गया ? 

या कि आर्य महाप्राण 

प्राणहीन हो गया ? 

देश को करो प्रबुद्ध, प्राण बाँटते चलो .

तुम बढ़ो बढ़े चलो ....।

(कवि शेषनाथ शर्मा 'शील')


छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के अलावा अनेक आंचलिक भाषाओं के साहित्यकारों ने भी आजादी के आंदोलन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था - 


मुरिया पाटा गीत


इरखा बइर कुवर नहीं

मारा पेटा कियर नहीं

मया प्रेम से रहू माता

तुचो जय-जय माता,तुचो जय-जय माता।

देश काजे जिउक सीखूँ, देश काजे मरुक सीखूँ

तुचो जय-जय गाऊँ माता

भारत माता, भारत माता

तुचो जय-जय गाऊँ माता

(कवि - अज्ञात)


कवि ठाकुर पूरन सिंह ने हल्बी में गीत गाकर स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगायी थी - 


स्वतंत्र रलो अमचो भारत

एक हजार बरस आगे, हरिक पदिम देश ये रलो

तेलेबे कहानी जागे

सत धरम ले तोर लता, रजो धरम चो छाप

सरगुन ने गोटी धान ने, पोल निकरते रला पाप।


(कवि ठाकुर पूरन सिंह)


गोंड़ी कविता

हम भारत के गोंड़ बइगा, भारत ले रे

हम भैया छाती अड़ाबो

हम तो खून बहाबो, भारत ख्यार।

अंगरेजन ला मार भगाबोन भारत ले रे।

हम भारत के भाई-बहिनी मिलके करबो रक्षा

अंगरेजन ला मार भगाबोन

करबो अपन रक्षा भैया, भारत ख्यार।

हम भारत के गोंड़ बइगा, 

कर देबो जान निछावर भैया,भारत ख्यार।

अंगरेजन ला मार भगाबोन भारत ले रे।

(कवि - अज्ञात)


आजादी आंदोलन के दौरान जन-जागरण हेतु अनेक पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता रहा है। मुख्य पत्र-पत्रिकाओं के नाम निम्नानुसार हैं - 

1900 में छत्तीसगढ़ मित्र, हिन्द केशरी, स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट (माधवराव सप्रे)

1908 - राष्ट्रबन्धु (ठाकुर प्यारेलाल)

1915-सूर्योदय (कन्हैया लाल शर्मा)

1921-अरुणोदय (ठाकुर प्यारे लाल)

1935-उत्थान (रविशंकर शुक्ल)


आजादी आंदोलन से संबंधित साहित्य प्रकाशन -

कोदूराम "दलित" - हमर देश (पाण्डुलिपि)

द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र - गाँधी गीत, सुराजी गीत

गिरिवरदास वैष्णव - छत्तीसगढ़ी सुराज (1930)

पं. रामदयाल तिवारी - गाँधी मीमांसा

खूबचन्द बघेल - ऊँच-नीच (नाटक)

केयूर भूषण - नागपुर जेल में


इस प्रकार भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ी सुराजी काव्य और साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 


आलेख - अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर दुर्ग (छत्तीसगढ़)

संपर्क - 9907174334