ये गठरी संग न जायेगी, क्यों बोझ बढ़ाते जाता है
इस पार नहीं लेखा-जोखा, उस पार ही तेरा खाता है.
गठरी में जितना जोड़ेगा, नामे होगा उस खाते में
गठरी से जितना बाँटेगा, उतना पायेगा जाते में
दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है.............
कितनी विशाल धरती तेरी, सागर तेरे ,ये वन तेरे
क्यों तेरी प्यास नहीं बुझती, आषाढ़ तेरे, सावन तेरे
तू प्यार लुटाकर देख जरा, कण-कण से तेरा नाता है....................
किस वृक्ष ने खाये खुद के फल, कब छत को देख के बरसा घन
कब भेद-भाव से पवन चली, कब धूप ने देखा धनी-निर्धन
तू देख कमा कर प्रेम-प्यार, क्या कागज के टुकड़े कमाता है................
अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
अब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है................
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
जीवन का सत्य बहुत सरलता से समझाया है सर!
ReplyDeleteसादर
अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
ReplyDeleteअब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है.........शानदार अभिव्यक्ति
किस वृक्ष ने खाये खुद के फल, कब छत को देख के बरसा घन
ReplyDeleteकब भेद-भाव से पवन चली, कब धूप ने देखा धनी-निर्धन
तू देख कमा कर प्रेम-प्यार, क्या कागज के टुकड़े कमाता है....gajab ke bhaav.atiuttam kavita.....vaah
परम शक्ति से परिचय करके ही अपना भाग्य-विधाता बना जा सकता है . अनमोल रचना ..
ReplyDeleteबेहद सार्थक व सटीक प्रस्तुति।
ReplyDeleteअब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
ReplyDeleteअब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
सत्य की ओर ले जाती रचना ..बहुत सुन्दर है
सच है...खाली हाथ आए थे..खाली हाथ जाना है...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..
गठरी में जितना जोड़ेगा, नामे होगा उस खाते में
ReplyDeleteगठरी से जितना बाँटेगा, उतना पायेगा जाते में
दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है.............बेहद उम्दा प्रस्तुति।
जीवन का सच्चा लेखा-झोखा दिखाया आपने .....
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
जीवन के कटु सच की सच्ची अभिवयक्ति......
ReplyDeleteपूरे जीवन का लेखा -जोखा सरलता से बता दिया है आपने ...
ReplyDeletesatya vachan...
Deleteये गठरी संग न जायेगी, क्यों बोझ बढ़ाते जाता है
इस पार नहीं लेखा-जोखा, उस पार ही तेरा खाता है.
shubhkaamnaayen.
ये गठरी संग न जायेगी, क्यों बोझ बढ़ाते जाता है
ReplyDeleteइस पार नहीं लेखा-जोखा, उस पार ही तेरा खाता है....अरुण जी ! बिल्कुल सही कहा ,प्रेरित करती सच्ची अभिव्यक्ति..
aapke blog par sari rachnaye mene padi hai ...bahut hi parbhavshali hai ...aapki post ka intajar rahta hai !!
ReplyDeletesunder sandesh deti prastuti.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
कोशिश करते है, बहुत गंभीर। आभार
ReplyDeleteसटीक पंक्तियाँ रची हैं..... सच तो यही है....
ReplyDeleteगठरी में जितना जोड़ेगा, नामे होगा उस खाते में
ReplyDeleteगठरी से जितना बाँटेगा, उतना पायेगा जाते में
दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है..........
बहुत खूब , लाजबाब ! बहुतेरे कमीने तो कफ़न में भी जेब लगाने का जुगाड़ ढूढ़ रहे है :)
Har ek pankti kamaal ki hai sir..
ReplyDeletekho sa gaya tha padhte hue..
bahut bahut bahut sundar rachna.. :)
सुन्दर रचना आपकी निगम जी बहुत बहुत बधाई हो आपको
ReplyDeleteकितनी विशाल धरती तेरी, सागर तेरे ,ये वन तेरे
ReplyDeleteक्यों तेरी प्यास नहीं बुझती, आषाढ़ तेरे, सावन तेरे
तू प्यार लुटाकर देख जरा, कण-कण से तेरा नाता है....................
Bahut khoob Arun ji .... sach kah ahi pyaar ka saagar khaali nahi hota .... ati sundar ...
सार्थक रचना निगम जी बहुत ही अच्छा लिखा है आपने जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करती खूबसूरत रचना
ReplyDeleteकण कण से तेरा नाता है सच्चिदानंद परंमानंद वाली अभिव्यक्ति है.
ReplyDeleteअरुण भाई आपकी यह कविता सर्वश्रेष्ठ है|इसे राजभाषा मास में
भोपाल सर्किल में पुरष्कृत भी किया गया था.ब्लाग में देकर
आपने उपकार ही किया है.
अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
ReplyDeleteअब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है................
adhyatmik chetana ko jagrit karane wali rachan .....abhar Nigam ji
बिल्कुल सही कहा आपने, आलस्य और पहचान की अक्षमता ही हमारी तड़प और ओढ़ी गयी कठिनाइयों का कारण है. भावनाओं और प्रतिपाद्य से पूर्णतः सहमत. आभार इस प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने, आलस्य और पहचान की अक्षमता ही हमारी तड़प और ओढ़ी गयी कठिनाइयों का कारण है. भावनाओं और प्रतिपाद्य से पूर्णतः सहमत. आभार इस प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteअब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
ReplyDeleteअब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है................
आपकी प्रस्तुति अनुपम,प्रेरक और शिक्षाप्रद है.
पढकर आनन्दित हो गया है मन.
खुबसूरत संग्रहणीय प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार,अरुण जी.
अब आडम्बर को छोड़ जरा, अपने अंतस् मंदिर में जा
ReplyDeleteअब तेल, दिया-बाती तज कर, तू अंतर्मन का दीप जला
उस परम शक्ति से परिचय कर, तू ही तो भाग्य-विधाता है
अंतस् में ही सब कुछ है, हमें महसूस करने की जरूरत है।
एक सशक्त रचना।