सोचता हूँ
यह घर है या मकान
क्यों हर घड़ी
घुटन-घुटन सी लगती है
मैंने बनाया था
एक बड़ा सा दरवाजा
लगा रखी थी तख्ती
लिखा था जिसपर
जुनूं की जिसको लगी हो
यहाँ चले आये.
बना रखी थी
हवादार बड़ी खिड़कियाँ
कि हवा भी यहाँ आये
तो उसे सुकून मिले.
बना रखी थी छत
कवेलू की
रोशनी भी आये
तो छन-छन कर.
कब, क्यों और कैसे
दीवारें ऊग आई
घर को तब्दील कर दिया
आलीशान मकान में
अंदर तो अंदर
दरवाजे के बाहर भी
खड़ी हो गई दीवारें.
छत भी पक्की हो गई.
भटक गई रोशनी
पलट गई हवा
और मैं बाहर ही रह गया
सोचने के लिए
कि यह
घर है या मकान.
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (मध्य-प्रदेश)
कब, क्यों और कैसे
ReplyDeleteदीवारें ऊग आई
घर को तब्दील कर दिया
आलीशान मकान में
अंदर तो अंदर
दरवाजे के बाहर भी
खड़ी हो गई दीवारें.
.....जो हवा बह रही है ख्वाहिशों से अनजान , उसका असर है
बहुत ही अच्छा लिखे हैं सर!
ReplyDeleteसादर
आपकी पोस्ट पढ़कर किसी का एक शेर याद आ गया:-
ReplyDeleteएक वीराना जहाँ उम्र गुज़ारी मैंने,
तेरी तस्वीर लगा ली है तो घर लगता है.
वाह वाह...
ReplyDeleteअति सुन्दर..
बना रखी थी
हवादार बड़ी खिड़कियाँ
कि हवा भी यहाँ आये
तो उसे सुकून मिले....
बहुत खूब सर...
khoobsoorat udgaar vyakt kiye hai .achchaa laga
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteभावपूर्ण बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर रचना!!!!वाह अरुण जी,,बधाई
ReplyDeletewelcome to new post--जिन्दगीं--
शानदार रचना अरुण भाई....
ReplyDeleteसादर बधाई...
ख़ूबसूरत रचना ! शानदार प्रस्तुती!
ReplyDelete@@ रश्मि प्रभा... has left a new comment on your post "घर......मकान ????":
ReplyDeleteकब, क्यों और कैसे
दीवारें ऊग आई
घर को तब्दील कर दिया
आलीशान मकान में
अंदर तो अंदर
दरवाजे के बाहर भी
खड़ी हो गई दीवारें.
.....जो हवा बह रही है ख्वाहिशों से अनजान , उसका असर है
Posted by रश्मि प्रभा... to अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ) at January 6, 2012 10:10 AM
बहुत ख़ूब!!
ReplyDelete@@@@चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ has left a new comment on your post "घर......मकान ????":
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!!
Posted by चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ to अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ) at January 7, 2012 8:07 AM
बेजोड़ भावाभियक्ति....
ReplyDeleteआज कल घर का एहसास खत्म होता जा रहा है ..मकान ही मिलते हैं ..सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ऊंचे पाए की रचना क्वार्टर कहानी याद आ गई .घर कहाँ बिला गए इस दौर में यहाँ तो सब बेगाने हैं .सबके सब अजनबी से भी हैं हरकारे भी .
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