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Sunday, April 8, 2012

खिलने को तरसती हैं.............



बजती नहीं है बाँसुरी,  रूठी हैं उंगलियाँ
मयपान कर रही हैं  ,  रंगीन तितलियाँ.

क्या बात है ,   बाजार  बड़े  सूनसान  हैं
सजने लगी हैं आजकल श्मशान की गलियाँ.

बरसात अपने साथ लिये,   बाढ़ आ गई
जो बच गया,उस पे गिरीं आज बिजलियाँ.

बागों में बड़ी शान से,   हैं खार हँस रहे
खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.

मेले की उस भीड़ में,   मालूम क्या देखा ?
कुछ जिस्म बिक रहे थे,मानों हों मछलियाँ.

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)

20 comments:

  1. मेले की उस भीड़ में, मालूम क्या देखा ?
    कुछ जिस्म बिक रहे थे,मानों हों मछलियाँ.
    वाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,सार्थक अच्छी प्रस्तुति........
    निगम जी,..क्या बात है,बहुत दिनों से मेरे पोस्ट पर नही आ रहे
    जबकि मै नियमित रूप से आपके पोस्ट पर आता हूँ,..आइये स्वागत है,....

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....

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  2. उल्टा-पुल्टा है शुरू, मौत साल दर साल ।

    जीवन को दफना चुकी, खूब बजावे गाल ।



    खूब बजावे गाल, धूप में दाल गलावे ।

    समय-पौध जंजाल, माल-मदिरा उपजावे ।



    रविकर कैसी लाश, मामला समझे सुल्टा ।

    पट्टा को दुहराय, मौत को ढोती उल्टा ।।

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  3. वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब

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  4. .....अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं..जबर्दस्त!!

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  5. बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
    खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.

    बहुत खूब .... अच्छी गजल

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  6. बहुत बढ़िया सर!



    सादर

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  7. बरसात अपने साथ लिये, बाढ़ आ गई
    जो बच गया,उस पे गिरीं आज बिजलियाँ...

    जबरदस्त शेर है अरुण जी ... मज़ा आ गया इसके बागी तेवर देख के ... लाजवाब गज़ल है ...

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  8. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  9. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  10. बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
    खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.

    गहन मर्म इन शब्दों में...

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  11. शानदार अंदाज के साथ शानदार रचना

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  12. अपना अंदाज व वजूद छोड़ती संजीदा गजल ... शुक्रिया जी /

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  13. वाह...

    बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
    खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.

    बहुत बढ़िया गज़ल सर.
    सादर.

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  14. वाह...

    बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
    खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.

    बहुत बढ़िया गज़ल सर.
    सादर.

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  15. बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
    खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.

    सच्ची मगर तकलीफ़देह अभिव्यक्ति ...!

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  16. बरसात अपने साथ लिये, बाढ़ आ गई
    जो बच गया,उस पे गिरीं आज बिजलियाँ.

    काफ़ी दिनों बाद एक अच्छी सी गज़ल पढ़ने को मिली ... भूख को मिटती हुई और भूख को बढाती हुई भी ! नर्मदा के जल को नमन !
    शुक्रिया जनाब !!

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  17. .बहुत बढ़िया ग़ज़ल .नए प्रतीक ,चुभते से अर्थ .

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  18. बहुत ही तीखा और सटीक लेखन.
    दिल को कचोटता हुआ.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,अरुण जी.

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