बजती नहीं है बाँसुरी, रूठी हैं उंगलियाँ
मयपान कर रही हैं , रंगीन तितलियाँ.
क्या बात है , बाजार बड़े सूनसान हैं
सजने लगी हैं आजकल श्मशान की गलियाँ.
बरसात अपने साथ लिये, बाढ़ आ गई
जो बच गया,उस पे गिरीं आज बिजलियाँ.
बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.
मेले की उस भीड़ में, मालूम क्या देखा ?
कुछ जिस्म बिक रहे थे,मानों हों मछलियाँ.
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)
मेले की उस भीड़ में, मालूम क्या देखा ?
ReplyDeleteकुछ जिस्म बिक रहे थे,मानों हों मछलियाँ.
वाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,सार्थक अच्छी प्रस्तुति........
निगम जी,..क्या बात है,बहुत दिनों से मेरे पोस्ट पर नही आ रहे
जबकि मै नियमित रूप से आपके पोस्ट पर आता हूँ,..आइये स्वागत है,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....
उल्टा-पुल्टा है शुरू, मौत साल दर साल ।
ReplyDeleteजीवन को दफना चुकी, खूब बजावे गाल ।
खूब बजावे गाल, धूप में दाल गलावे ।
समय-पौध जंजाल, माल-मदिरा उपजावे ।
रविकर कैसी लाश, मामला समझे सुल्टा ।
पट्टा को दुहराय, मौत को ढोती उल्टा ।।
वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
ReplyDelete.....अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं..जबर्दस्त!!
ReplyDeleteबागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
ReplyDeleteखिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.
बहुत खूब .... अच्छी गजल
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
बरसात अपने साथ लिये, बाढ़ आ गई
ReplyDeleteजो बच गया,उस पे गिरीं आज बिजलियाँ...
जबरदस्त शेर है अरुण जी ... मज़ा आ गया इसके बागी तेवर देख के ... लाजवाब गज़ल है ...
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
ReplyDeleteखिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.
गहन मर्म इन शब्दों में...
शानदार अंदाज के साथ शानदार रचना
ReplyDeleteअपना अंदाज व वजूद छोड़ती संजीदा गजल ... शुक्रिया जी /
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.
बहुत बढ़िया गज़ल सर.
सादर.
वाह...
ReplyDeleteबागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
खिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.
बहुत बढ़िया गज़ल सर.
सादर.
बागों में बड़ी शान से, हैं खार हँस रहे
ReplyDeleteखिलने को तरसती हैं मासूम-सी कलियाँ.
सच्ची मगर तकलीफ़देह अभिव्यक्ति ...!
बरसात अपने साथ लिये, बाढ़ आ गई
ReplyDeleteजो बच गया,उस पे गिरीं आज बिजलियाँ.
काफ़ी दिनों बाद एक अच्छी सी गज़ल पढ़ने को मिली ... भूख को मिटती हुई और भूख को बढाती हुई भी ! नर्मदा के जल को नमन !
शुक्रिया जनाब !!
.बहुत बढ़िया ग़ज़ल .नए प्रतीक ,चुभते से अर्थ .
ReplyDeletejabardast gazal.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ग़ज़ल ।
ReplyDeleteबहुत ही तीखा और सटीक लेखन.
ReplyDeleteदिल को कचोटता हुआ.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,अरुण जी.