रेत के महल यहाँ हैं , द्वार काँच के
किस तरह जीयें यहाँ हैं , यार काँच के.
पत्थरों की मूर्तियों की भीड़ है यहाँ
आग में झुलसते हुये नीड़ हैं यहाँ
व्यापार पत्थरों के, अभिसार काँच के........
विषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
पाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
कर्तव्य लौह के अरे ! अधिकार काँच के...........
श्यामली सुबह यहाँ की, काली दोपहर
है निगल रही समूचे , गाँव और शहर
कब तलक सहेजेंगे , भिनसार काँच के................
सड़ी-गली व्यवस्था , कब तक सहेंगे हम
बन के कठपुतलियाँ, कब तक रहेंगे हम
आओ तोड़ डालें , हम हर द्वार काँच के...............................
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)
सड़ी-गली व्यवस्था , कब तक सहेंगे हम
ReplyDeleteबन के कठपुतलियाँ, कब तक रहेंगे हम
आओ तोड़ डालें , हम हर द्वार काँच के...............................
बहुत सुंदर.....!!
निगम लगे गमगीन से, हर्ष करे संघर्ष ।
ReplyDeleteहुआ विषादी जब दबंग, हो कैसे उत्कर्ष ।
हो कैसे उत्कर्ष, अरुण क्यूँ मारे चक्कर ।
मेघों का आतंक, तड़ित की जालिम टक्कर ।
टूट-फूट मन-कन्च, पञ्च तत्वों को झटका ।
सुख-शान्ति सौहार्द, ग़मों ने गप-गप गटका ।।
देखी श्यामल सुबह जब, हर्ष कहाँ से आय
Deleteदलदली भूमि खंड हो, नींव ना रखी जाय
नींव ना रखी जाय ,आइये मिल कर पाटें
आपस में रख मेल,परस्पर सुख-दु:ख बाँटें
झूठे आश्वासन , उसे मारन दें शेखी
कुछ हम ही अब करें, करें ना देखा देखी.
विषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
ReplyDeleteपाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
कर्तव्य लौह के अरे ! अधिकार काँच के...........
Waah...Bahut Hi Sunder
पत्थरों की मूर्तियों की भीड़ है यहाँ
ReplyDeleteआग में झुलसते हुये नीड़ हैं यहाँ
व्यापार पत्थरों के, अभिसार काँच के.......और यही रहेगा अभी
वाह वाह अरुण जी.........
ReplyDeleteश्यामली सुबह यहाँ की, काली दोपहर
है निगल रही समूचे , गाँव और शहर
कब तलक सहेजेंगे , भिनसार काँच के................
बहुत बढ़िया............................
सादर.
सटीक प्रहार करती सुंदर रचना
ReplyDeleteसड़ी-गली व्यवस्था , कब तक सहेंगे हम
ReplyDeleteबन के कठपुतलियाँ, कब तक रहेंगे हम
आओ तोड़ डालें , हम हर द्वार काँच के,
सुंदर सटीक पंक्तियाँ,मन को झकझोरती बेहतरीन प्रस्तुति,..निगम जी,
सड़ी-गली व्यवस्था पर गहरी ,सटीक
ReplyDeleteऔर समय के अनुकूल चोट .....
शुभकामनाएँ !
सर मेरी वाह-वाही स्पाम में गयी शायद......खोजिये ना प्लीस.
ReplyDeleteपत्थरों की मूर्तियों की भीड़ है यहाँ
Deleteआग में झुलसते हुये नीड़ हैं यहाँ
व्यापार पत्थरों के, अभिसार काँच के........
विषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
पाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
बहुत बहुत सुंदर रचना सर.
वाह! जी वाह!
ReplyDeleteविषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
ReplyDeleteपाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा....वाह:अरुण जी !.. बहुत सुन्दर रचना..
पत्थरों की मूर्तियों की भीड़ है यहाँ
ReplyDeleteआग में झुलसते हुये नीड़ हैं यहाँ
विषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
पाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
बहुत ही सुंदर...
वाह !
ReplyDeleteविषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
ReplyDeleteपाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
कर्तव्य लौह के अरे ! अधिकार काँच के...........
क्या बात है. बहुत सुंदर.
विषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
ReplyDeleteपाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
कर्तव्य लौह के अरे ! अधिकार काँच के...........
vakai nigam sahab bilkul yatharth chitran kr diya apne ...badhai
वाह अरुण जी कोई जबाब नहीं इस रचना का क्या करार व्यंग किया है आज की सरकार पर सटीक
ReplyDeleteआपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.in/2012/04/847.html
चर्चा - 847:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
श्यामली सुबह यहाँ की, काली दोपहर
ReplyDeleteहै निगल रही समूचे, गाँव और शहर
कब तलक सहेजेंगे ,भिनसार काँच के.........
बहुत सुंदर....
वाह बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति
ReplyDeleteआज शुक्रवार
ReplyDeleteचर्चा मंच पर
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति ||
charchamanch.blogspot.com
वाह! जी वाह! बहुत ख़ूब
ReplyDeleteउल्फ़त का असर देखेंगे!
वाह! जी वाह! बहुत ख़ूब
ReplyDeleteउल्फ़त का असर देखेंगे!
रेत के महल यहाँ हैं , द्वार काँच के
ReplyDeleteकिस तरह जीयें यहाँ हैं , यार काँच के.
सुंदर अभिव्यक्ति....
शुभकामनायें आपको .
सड़ी-गली व्यवस्था , कब तक सहेंगे हम
ReplyDeleteबन के कठपुतलियाँ, कब तक रहेंगे हम
ak urjawan rachana ke sath shashakt lalkar , hr pankti smarneey badhai nigam sahab ,
विषधरों की छाँव में है, न्याय सो रहा
ReplyDeleteपाप की काली घटा में, सूर्य खो रहा
कर्तव्य लौह के अरे ! अधिकार काँच के
खूब कहा है निगम जी. आपका आभार.