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Saturday, May 2, 2020

छत्तीसगढ़ी कविताओं में मजदूर


"श्रमिक दिवस की शुभकामनाएँ"

छत्तीसगढ़ी कविताओं में मजदूर - 

छत्तीसगढ़ी किसानों और मजदूरों का प्रदेश है। यहाँ के कवियों ने किसानों और मजदूरों की संवेदनाओं को महसूस किया है और उन्हें अपनी कविताओं और गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इन कविताओं और गीतों में कर्म की आराधना है, श्रम पर गर्व है तो साथ ही जीवन की विषमताओं से उपजी पीड़ा भी है। आइए आज मजदूर दिवस पर छत्तीसगढ़ी भाषा के कुछ चिर परिचित और कुछ अपरिचित कवियों की कविताओं के कुछ अंश देखें -  

सबसे पहले जनकवि कोदूराम "दलित" के सार छन्द को देखें कि मजदूर किस तरह अभावों में रहकर दूसरों को सुखी देखकर हर्षित होता है - 

जेकर लहू-पसीना लक्खों रंग-महल सिरजावय।
सब-ला सुखी देख जे छितका, कुरिया-मा सुख पावय।।

दलित जी के इस कुण्डलिया छन्द में एक श्रमिक की जीवन-चर्या सूर्य की तरह देखी गई है - 

उठाय बिहिनिया सुरुज हर, दिन भर रेंगत जाय
लगय थकासी खूब तो, संझा कुन सुस्ताय।
संझा कुन सुस्ताय, रात भर सूतय कस के
बड़े फजर उठ जाय, फेर रेंगय हँस हँस के
कमिया दिन भर काम,करय टूटत ले कन्हिया
सुरजे साहीं सुतय रात भर, उठय बिहिनिया।।

जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया तो छत्तीसगढ़ी गीतों के बेताज बादशाह हैं। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध गीत "चल जोही जुरमिल कमाबो रे" में मजदूरों द्वारा किये गए जनहित के निर्माण कार्यों का वर्णन बहुत ही सुंदरता से किया है - 

धरती धरम ओकरे जेमन जाँगर पेर खाहीं
आज के जुग मा बइठे खवइया धारे-धार जाहीं।

गंगरेल बाँधेन पइरी ल बाँधेन, हसदो ल लेहेन रोक
खरखरा खारुन रुद्री के पानी, खेती म देहेन झोंक
महानदी ल गाँव-गाँव पहुँचाबो रे, करम खुलगे
पथरा म पानी ओगराबो, माटी म सोना उपजाबो।

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रणेता और सुप्रसिद्ध गीतकार श्री हरि ठाकुर की दो पंक्तियाँ ही यहाँ के मजदूरों के गौरवशाली इतिहास को बताने के लिए पर्याप्त हैं। उन्होंने बताया कि मालिक किस तरह से आज मजदूर बन गए हैं - 

काली तक मालिक वो रहिस मसहूर 
बनके वो बैठे हे दिखे मजदूर। 

दुर्ग के कवि श्री बलदाऊ राम साहू ने इन्हों भावों को छत्तीसगढ़ी गजल के एक शेर में व्यक्त किया है - 

जेला कहन दाऊ किसान अउ मालिक हम मन
उही मन ह अब इहाँ नौकर अउ बनिहार होगे

छत्तीसगढ़ी भाषा में चरगोड़िया विधा के प्रवर्तक श्री रघुवीर अग्रवाल "पथिक" ने अपने चरगोड़िया में शिष्ट व्यंग्य का प्रयोग करते हुए कुछ इस तरह से सचेत किया है - 

दू रुपिया मा चाँउर खाके, झन अलाल बनबे भइया
नून निचट फोकट मा पाके, झन अलाल बनबे भइया
तोर तरक्की बर सरकार, बहावत हे धन के गंगा
वो गंगा मा रोज नहा के, झन अलाल बनबे भइया।

गंडई के कवि पीसी लाल यादव जी जो लोक संस्कृति के विद्वान माने जाते हैं, ने भी अपने गीत में पथिक जी की तरह ही अपने स्वाभिमान को बचाये रखने का संदेश दिया है - 

ये हाथ ह नोहर लमाये बर, जाँगर-जिनगी हे कमाए बर
माँगन-मरना एक बरोबर, बेरा नोहय बिरथा पहाए बर।
जाँगर-बाँहा के बल म भइया, पथरा म पानी ओगरथे
करम भूमि म फल पाए बर, महिनत करे ल परथे।

नवागढ़, बेमेतरा के छंदविद श्री रमेश कुमार सिंह चौहान जो छन्द के छ परिवार के वरिष्ठ सदस्य होने के साथ-साथ अनेक विधाओं पर अच्छी पकड़ रखते हैं, के नवगीत का एक अंश देखिए जिसमें महिला मजदूर की संवेदनाओं को मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया गया है - 

अभी अभी खेत ले कमा के आये हे बहू
ताकत रहिस ओखर बेटवा, अब चुहकत हे लहू
लाँघन भूखन सहिथे, लइका ला पीयाय बिन, 
दाई ला खुदे कहाँ सुहाथे……

अब आइए, छन्द के छ परिवार के कुछ छंदकारों के छत्तीसगढ़ी छन्दों में मजदूर की व्यथा-कथा देखें - 

एन टी पी सी कोरबा की वरिष्ठ छन्द-साधिका श्रीमती आशा देशमुख ने भुजंगप्रयात छंद में मजदूर की सुंदर और सरल परिभाषा लिख दी है - 

करे काम वो हाथ मजबूत होथे।
करम बाँचथे जेन श्रमदूत होथे।
अबड़ होत सिधवा कहव झन अनाड़ी।
करे काम निशदिन मजूरी दिहाड़ी।।

भाटापारा के वरिष्ठ छन्द-साधक श्री  कन्हैया साहू "अमित" ने अपने दोहा गीत में श्रमिक की वंदना कुछ तरह से की है - 

जय हे जाँगर जोश के, जुग-जुग ले जयकार।
सिरतों सिरजन हार तैं, पायलगी  बनिहार।

खेत-खार नाँगर-बखर, माटी बसे परान।
कुदरा रापा संग मा,  इही मोर पहिचान ।।
लहू पछीना ओलहा, बंजर खिले बहार।
सिरतों सिरजन हार तैं....

डोंड़की, बिल्हा के वरिष्ठ छन्द-साधक श्री असकरन दास जोगी ने अपने कुण्डलिया छंद में एक श्रमिक के रूप में आत्म-परिचय दिया है

हम सिरजाथन विश्व ला,जांगर पेरन रोज |
धरती के हम पूत अन,नोहन राजा भोज ||
नोहन राजा भोज,महल बँगला नइ चाही |
सुम्मत के दिन लान,तभे चोला कल पाही ||
कभू रोय हच पूछ,कहाँ कब लाँघन जाथन |
जांगर पेरन रोज,विश्व ला हम सिरजाथन ||

बाल्को कोरबा में कार्यरत वरिष्ठ छन्द-साधक श्री जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया" ने गीतिका छंद में इतिहास को खँगाल कर देखा कि मजदूर परायी आग में जलते हुए सुख से हमेशा वंचित रह हैं - 

हे गजब मजबूर ये, मजदूर मन हर आज रे।
पेट बर दाना नहीं, गिरगे मुड़ी मा गाज रे।।
आज रहि-रहि के जले, पर के लगाये आग मा।
देख लौ इतिहास इंखर, सुख कहाँ हे भाग मा।।

सहसपुर लोहारा के वरिष्ठ छन्द-साधक श्री बोधन राम निषादराज ने अपने रूपमाला छन्द में एक मजदूर के भावों को प्रकट किया है -

हाँव मँय मजदूर संगी, काम  करथौं  जोर।
पेट पालत दिन पहावँव, देश हित अउ मोर।
कर गुजारा रात दिन मँय, मेहनत कर आँव।।
रातकुन के पेज पसिया,खाय माथ नवाँव।।

जांजगीर में रेलवे विभाग में कार्यरत छन्द-साधक श्री सुरेश पैगवार
ने सार छन्द में एक श्रमिक का परिचय देकर उसकी पीड़ा को स्वर कुछ इस तरह से दिया है - 

जुग-जुग नव निरमान करे बर, जाँगर पेर कमाथौं।
माटी मा मैं उपजे बाढ़े, माटी के गुन गाथौं।।

ऊँच-ऊँच ये  महल अटारी,  सबला महीं बनाथौं।
खेत-खार मा अन्न उगा के,   सबला महीं खवाथौं।
दुख-पीरा ला सहि के भइया, कौड़ी दाम ल पाथौं।
आँसू पी के पेट पोंस के, धरम ल अपन निभाथौं।।

डोंगरगाँव के वरिष्ठ छन्द-साधक श्री महेंद्र कुमार बघेल ने लावणी छंद में माथे पर स्वेद बूँदों और हाथ के छालों को एक श्रमिक की वर्दी बताया है - 
         
कुकरा बासत बड़े बिहनिया,सबले पहिली उठ जावँय।
धरम मान महिनत ला संगी, ये जाॅंगर टोर कमावँय।।

घाम मँझनिया होवय चाहे, बादर पानी अउ सरदी।
माथ पसीना हाथ फफोला, इही हरे तन के वरदी ।।

बालोद के नवोदित छन्द-साधक श्री नेमेन्द्र कुमार गजेंद्र ने शक्ति छंद में मजदूर की विवशता को स्वर दिए हैं - 

कमा टोर जांगर भरत पेट हे,
कभू भूख चोला चढ़त भेंट हे।
खड़े घाम मा देख मजदूर हे,
करे का बिचारा ह मजबूर हे।

कबीरधाम के नवोदित छन्द-साधक श्री द्वारिका प्रसाद लहरे ने लावणी छंद में एक मजदूर का परिचय देते हुए उसकी पीड़ा को रेखांकित किया है - 

मँय मजदूरी करथौं भइया, दुनिया ला सिरजाये हँव।
पेज-पसइया पी के मँय हा, जाँगर सदा चलाये हँव।।

गारा पखरा जोरे टोरे, तन ला अपन तपाये हँव।
गाँव गली अउ शहर घलो ला, संगी महीं बसाये हँव।।

चित्र में जिस मजदूर को आप देख रहे हैं इनका नाम असकरण दास जोगी है और इन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में 50 प्रकार के भारतीय छन्दों में रचनाएँ की हैं। "छन्द के छ - परिवार को इन पर गर्व है।

संकलनकर्त्ता - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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