"छत्तीसगढ़ी कविताओं में किसान और खेतिहर मजदूर की पीड़ा"
प्रशंसा "मुक्त-कण्ठ" से होती है तो पीड़ा को "हृदय" से महसूस किया जाता है। जिनके लिए न तालियाँ बजीं, न थालियाँ बजीं, न शंख फूँके गए, न दीप जलाए गए, न बिना किसी आग्रह के पटाखे फोड़े गए और न ही आतिशबाजियाँ की गईं। आज कुछ कविताओं के अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जिनमें छत्तीसगढ़ी भाषा के कवियों ने किसान और खेतिहर मजदूर की पीड़ा को हृदय से महसूस किया है। ये पंक्तियाँ ही किसान और खेतिहर मजदूरों के सम्मान में काव्यांजलि स्वरूप समर्पित हैं।
लॉकडाउन के दौरान अमीर हो या गरीब, एक मात्र "भोजन" ही सबके जीवन सहारा रह गया है। भोजन में अनाज और सब्जियाँ ही प्रमुख हैं। ये बात और है कि पाक-कला में निपुण लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार डिशेज़ तैयार करके क्षुधा को शांत कर रहे हैं किन्तु खरीफ और रबी की फसलें और सब्जियाँ ही इन डिशेज़ के मूल में हैं। यदि कोई दुग्ध का उदाहरण सोच रहा है तो बता दूँ कि दुग्ध-उत्पादन भी कृषि उद्योग का ही अंग है। बकरी-पालन, मुर्गी-पालन और मछली पालन भी कृषि उत्पादन के अंतर्गत ही आते हैं। इस प्रकार मानव-जीवन का अस्तित्व आज केवल और केवल किसानों के कारण ही बचा हुआ है। सारी मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पाद गोदामों में कैद होकर रह गए।
अब तो किसान को धरती का भगवान मानने में किसी को भी हिचक नहीं होनी चाहिए। जो भगवान बन कर आज मानव जीवन की रक्षा कर रहा है, उसके दुःखों से कौन द्रवित होता है ? उसके सुख के लिए कौन सोचता है ? सियासत इन किसानों पर तब मेहरबान होती है, जब चुनाव सामने होते हैं। संकट के समय भी इन किसानों के लिए न ताली बजती है, न थाली बजती है, न शंख फूँके जाते हैं और न ही दीप जलाए जाते हैं। किसान की पीड़ा को केवल संवेदनशील जनता, कवि, साहित्यकार और पत्रकार ही महसूस कर सकते हैं। पत्रकार किसानों के मुद्दों को सामने लाते हैं तो कवि और साहित्यकार किसानों की पीड़ा को स्वर देते हैं। कवि ही हैं जो कविता करते समय किसान को अपने अंतर्मन में जीते हैं।
आइए आज छत्तीसगढ़ी भाषा के कुछ बहुत पुराने और कुछ बिल्कुल नए कवियों की उन कविताओं पर दृष्टिपात करें जिनमें किसान या कहिए कि भुइयाँ के भगवान की पीड़ा को अपनी कविताओं में शब्दांकित करने का प्रयास हुआ है -
जनकवि कोदूराम "दलित" के सार छन्द के अंश -
जाड़-घाम,बरखा के दु:ख -सुख ,सहय किसान बिचारा।
दाई-ददा असन वो डारय, सबके मुंह-मा चारा।।
पहिनय,ओढ़य कमरा-खुमरी, चिरहा असन लिंगोटी।
पीयय पसिया-पेज,खाय कनकी-कोंढ़ा के रोटी।।
जेकर लहू-पसीना लक्खों रंग-महल सिरजावय।
सब-ला सुखी देख,जे छितका कुरिया-मा सुख पावय।।
कवि गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया की फ़िल्म मया-मंजरी में उनके लिखे, उन्हीं के गाए और उन्हीं पर फिल्माए गए इस गीत देखें (यह फ़िल्म अभी तक रिलीज़ नहीं हो पाई है)
तँय भुइयाँ के भगवान रे भइया, भुइयाँ के भगवान
अन उपजैया परसय जीतय जोगी जति किसान रे भइया
झाँझ घाम बरखा जाड़ा सह बजुर बने तोर काया
खेतखार गाँव दुनिया तोरे तँय सरधा के छाया
तोरे मेहनत के फल फूल मा फूले सकल जहान...
भिखमंगा ये जग के आगू एक सिर्फ तँय दाता
करम धरम ईमान संग तोर साथी एक विधाता
तोर तपस्या दुख पीरा मा जागे देस महान…..
लक्ष्मण मस्तुरिया जी के एक अन्य गीत में किसान की पीड़ा कुछ इस तरह से व्यक्त की गई है -
सोन उगाथंव माटी खाथंव, मान ला दे के हाँसी पाथंव
बेरा आँटत उमर पहागे, सुनत गारी कान पिरागे
अतिया देखत आँसू आगे, भूँसा के भुर्री गुंगवागे
मस्तुरिया जी के इस गीत में किसान अपने पुत्र को भी किसान बनने के लिए प्रेरित किया जा रहा है -
मोर राजा दुलरुवा बेटा तँय नाँगरिहा बन जाबे
सुख दुख के बंजर मा भइया बिखहर मोखरा काँटा हे
भाग मा तोरे करतब करे बर परती भुइयाँ भाँठा हे
पानी पियाए बर धरती ला बदरिया बन जाबे
कवि गीतकार हरि ठाकुर जी ने खेतों को खलिहान में बदलने ली पीड़ा देखी, खेतों के मालिक को मजदूरी करते देखा। किसानों की कर्ज में डूबते हुए देखा तो उनके अंतस का दर्द शब्दों में इस तरह प्रतिबिंबित हुआ -
सबे खेत ला बना दिन खदान
किसान अब का करही
कहाँ बोही काहां लूही धान
किसान अब का करही
काली तक मालिक वो रहिस मसहूर
बनके वो बैठे हे दिखे मजदूर।
लागा बोड़ी में बुड़गे किसान
संतकवि पवन दीवान को ठहाके मार कर हँसते हुए सबने सुना और देखा लेकिन उनके भावुक हृदय में सिसकती हुई कृषक की पीड़ा को कितनों ने देखा ? महंगाई से जूझते किसान, उनकी कृषिभूमि पर गैर कृषकों का कब्जा …..सदैव के लिए अनुत्तरित प्रश्न - कइसे करै किसान ?
सब चीज महंगी होगे, छुटे चहत परान।
करलई हे भगवान बतावव कइसे करै किसान।।
जोत जोत के मरै किसनहा, दूसर बनगे राजा।
हमर पेट हर ऊंखर होगे, बर बिहाव के बाजा।।
खेत सुखाके पानी गिरही, कइसे फुलबो फरबो ना।
कवि मुरली चंद्रकार ने सबका पेट भरने वाले किसान के भूखे पेट से साक्षात्कार किया तब देखा कि उसकी छाती पर सवार क्रूर समय, यमराज की भाँति आसीन है -
तोरेच कमई मा सबो भुकरत हे
बनियां बेपारी येहूँ डकरत हे
बीता भर पेट के खातिर तोला
विधि ह गढ़ दिस किसान ||
जियत भरके खटिया गोरसी
चोंगी माखुर मा निपटे रे बरसी
छाती में तोर जम-राजा अस
चढ़े हावे संझा बिहान ||
कवि रघुवीर अग्रवाल "पथिक" के कृषक और खेतिहर मजदूर को कठोर परिश्रम करने के बावजूद भूख से मरते हुए देखा -
बस उही किसम, जेला जग कथै अन्नदाता
जे मन चारा दे पेट जगत के भरत हवैं
ये धरती के बेटा किसान, बनिहार आज
बड़ मिहनत करके घलो, भूख मा मरत हवैं।
कवि बलदाऊ राम साहू ने शोषित कृषक के श्रम को पानी के मोल बिकते देखा, उनके श्रम को रौंदकर फलते-फूलते कोचिया और व्यापारी को देखा, साथ ही भूमिस्वामी को भूमिहीन होते देखा तब कवि की पीड़ा शब्दों में कुछ इस तरह से ढली -
किसान के पसीना के नइये मोल
कोचिया मन के गाल हर लाल होगे।
जेला कहन दाऊ किसान अउ मालिक हम मन
उही मन अब इहाँ नौकर अउ बनिहार होगे।
कवि बुधराम यादव, कर्ज में डूबे किसान की पीड़ा को महसूस करते हुए कहते हैं -
खेती-पाती पाला परगे, मुड़ चढ़गे करजा-बोड़ी
बारी बखरी खेत हे गिरवी, बेचा गंय बैला-जोड़ी।
चिंता म चतुराई घट गय, फांदा धरे किसान।।
अब आइए, छन्द के छ परिवार के कुछ चिरपरिचित और कुछ अपरिचित कवियों के मन की पीड़ा को बिना किसी भूमिका के महसूस करें। इनकी सशक्त लेखनी ही इनकी प्रतिभा का परिचय दे रही है -
छन्दकार चोवाराम "बादल " (मनहरण घनाक्षरी)
काँटा खूँटी बीन-बान, काँदी-दूबी छोल चान, डिपरा ला खंती खन, खेत सिरजाय जी ।
घुरुवा के खातू पाल, सरे गोबर माटी चाल, राखड़ ल बोरी बोरी, छींच बगराय जी ।
बिजहा जुगाड़ करे, बोरी बोरा नाप धरे, नाँगर सुधार करे, जोखा ल मढ़ाय जी ।
सबो के तैयारी करे, राहेर ओन्हारी धरे ,बरखा असाड़ के ला , किसान बलाय जी ।
छन्दकार - आशा देशमुख (गीतिका छंद)
हाँथ जोड़व मुड़ नवावँव ,भूमि के भगवान हो।
गुन तुँहर कतका गिनावँव ,कर्म पूत किसान हो।
आज तुँहरे दुख सुनैया ,नइ मिलय संसार मा।
सब अपन मा ही लगे हे ,एक होय हज़ार मा।
ये जगत के आसरा हव ,दीन जीव मितान हो।
गुन तुँहर कतका गिनावँव,भूमि पूत किसान हो।3।
छन्दकार - दिलीप कुमार वर्मा (रोला छंद)
कहाँ किसानी खेल, परे जाँगर ला पेरे।
कतको हपट कमाय, तभो दुख भारी घेरे।।
दिन-दिन हो बदहाल, सोर कोनो नइ लेवय।
कइसे करय किसान, करज काला ओ देवय।।
छन्दकार कन्हैया साहू 'अमित' (सुजान छंद)
जग के उठाय भार खाँध, धन्य तोर काम।
लाँघन मरै किसान, भरय, सेठ के गुदाम।।
करजा करै कमाय गजब, आस घात जोर।
लहुटें सबो दलाल, फसल, लेगजँय बटोर।।
छन्दकार सुखदेव सिंह अहिलेश्वर - (उल्लाला छन्द)
हालात नइ सुधरे आज ले, काबर हमर किसान के।
सुध लेही आखिर कोन हा, भुइयाँ के भगवान के।।
छन्दकार मोहनलाल वर्मा (विष्णुपद छन्द)
लागा बोड़ी के संसो मा, देख किसान मरे।
होवत नइये फसल थोरको, जी के काय करे।।
छन्दकार अजय अमृतांशु (सरसी छ्न्द)
पेट ह खाली जीही कइसे, रोवत हवय किसान।
नरक सहीं जिनगी हा होगे, होही कभू बिहान।।
छन्दकार - हेमलाल साहू (कुकुभ छन्द)
धरती दर्रा फाटत हावय, कइसे करबो हम बोनी।
नई सुहावै दाना पानी, कइसे धोवत अनहोनी।।
छन्दकार - ज्ञानुदास मानिकपुरी (घनाक्षरी)
नाँगर बइला साथ, चूहय पसीना माथ
सुआ ददरिया गात, उठत बिहान हे।
खाके चटनी बासी ला, मिटाके औ थकासी ला
भजके अविनासी ला, बुता मा परान हे।
गरमी या होवय जाड़ा, तीपे तन चाहे हाड़ा
मूड़ मा बोह के भारा, चलत किसान हे।
करजा लदे हे भारी, जिनगी मा अँधियारी
भूल के दुनियादारी, होठ मुसकान हे।
छन्दकार - दुर्गाशंकर इजारदार (घनाक्षरी छन्द)
घाम जाड़ बरसात, सबो दिन मुसकात,
करम करत हावै, देख ले किसान जी,
करम ल भगवान, करम धरम मान,
पसीना ला अपन तो, माने हे मितान जी,
सहि के जी भूख प्यास, रहिथे जी उपवास,
अन्न उपजाय बर , देथे वो धियान जी,
सनिच्चर इतवार, नइ चिन्हे दिनवार,
भुइंया के सेवा बर, उठथे बिहान जी !
छन्दकार - जगदीश "हीरा" साहू (हरिगीतिका छन्द)
कर मेहनत दिनरात जे, उपजाय खेती धान के।
सेवा करे परिवार मिल, धरती अपन सब मान के।।
समझे जतन पइसा रखे, हँव बैंक मा वो सोंचथे।
मिलके सबो रखवार मन, गिधवा बने सब नोंचथे।।1।।
छन्दकार - डॉ. मीता अग्रवाल (सरसी छन्द)
माटी के कोरा मा उपजे, किसम किसम के धान।
अन्न-धन्न भंडार भरे बर, मिहनत करय किसान।।
काम बुता कर बासी खावय,तनिक अकन सुसताय।
खेत ख़ार ला बने जतन के,संझा बेरा आय।।
छन्दकार - राम कुमार साहू (सरसी छंद)
करजा बोड़ी मूँड़ लदाये, रोवय देख किसान।
चिंता मन मा एके रहिथे, कइसे होही धान।।
सिधवा मनखे सुन नइ पावय,ताना पीरा ताय।
कोनों फाँसी डोरी झूलय,मँहुरा जहर ल खाय।।
छन्दकार - पोखन लाल जायसवाल (दोहा छन्द)
लाँघन कोनो मत रहय , चिंता करय किसान ।
लहू पछीना छीत के , उपजावय सब धान ।।
करजा बोड़ी बाढ़गे ,बाढ़े बेटी हाय ।
कतका होही धान हा , चिंता हवय समाय ।।
गहना ला गहना धरे , ताकत साहूकार ।
करजा देख खवाय का ,भूखन हे परिवार।।
अरुण कुमार निगम (लवंगलता सवैया)
किसान हवे भगवान बरोबर चाँउर दार गहूँ सिरजावय ।
सबो मनखे मन पेट भरें गरुवा बइला मन प्रान बचावय।
चुगे चिड़िया धनहा-दुनका मुसुवा खलिहान म रार मचावय ।
सदा दुख पाय तभो बपुरा सब ला खुस देख सदा हरसावय।
आलेख - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
चित्र - श्री असकरन दास जोगी की फेसबुक से साभार
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
सुन्दर रचनाएँ।
ReplyDelete