कुण्डलिया छंद
साँझा चूल्हा खो गया,रहा न अब वो
स्वाद
शहर लीलते खेत नित , बंजर करती
खाद
बंजर करती खाद , गुमे मिट्टी
के बरतन
भूख खड़ी बन प्रश्न , हाय कैसा परिवर्तन
जीवन एक पतंग , और महंगाई
माँझा
रहा न अब वो स्वाद,खो गया चूल्हा साँझा ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर,
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (27 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
सुन्दर और सटीक !
ReplyDeleteसुंदर कविता।
ReplyDeleteबधाई।
............
एक विनम्र निवेदन: प्लीज़ वोट करें, सपोर्ट करें!
ज़माना बदल रहा है सर!
ReplyDeleteसादर
ReplyDeleteअपनापन है ना कहीं , स्वाद कहाँ से आय
महंगाई नित बढ़ रही , कौन कहाँ से खाय
कौन कहाँ से खाय ,रिश्वत ही कर्म बचा है
अनाचार है सब जगह , बस यही धर्म बचा है
बंजर हो गए गाँव , न दिखता कोई उपवन
चूल्हे हो गए अलग , कहाँ है अब अपनापन ?
:):) कोशिश की है .... आपकी कुंडलियाँ पढ़ कर मन करता है कि कुछ ऐसा ही लिखा जाए .... पर आता नहीं है लिखना । त्रुटियों के लिए पहले ही क्षमाप्रार्थी हूँ :)
कौन जानता है अब मिट्टी के बर्तनों और मिट्टीवाले साँझा चूल्हों का सोंधा स्वाद ,सारे नकली स्वाद जिह्वा पर चढ़े हैं!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteन साझे चूल्हे रहे न जीवन ...
ReplyDeleteसच है अरुणजी ! जब प्रजातंत्र ही चकनाचूर हो गया तो सहकारिता कहाँ ?
ReplyDeleteआपने लिखा....हमने पढ़ा
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 28/04/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
बहुत बढ़िया,सटीक लालबाब प्रस्तुति !!!
ReplyDeleteRecent post: तुम्हारा चेहरा ,
बहुत ही सुन्दर लाजबाब प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeletesuperb
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना! मेरी बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteसच है समय बदल गया.. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,
ReplyDeleteरहा न अब वो स्वाद,खो गया चूल्हा साँझा ...बहुत बढ़िया..अब कहां रह गया ये सब
ReplyDeleteअब कहां वो दिन पुरानी मस्तियां
ReplyDeleteखो गए रिश्ते पुरानी बस्तियां ...
यही तो विकास की त्रासदी है..खोना..
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