कविता
नहीं बनाई जा सके , कविता खुद बन जाय
कागज पर उतरे नहीं , मन से मन तक जाय
मन से मन तक जाय , वही कविता कहलाये
अनायास उत्पन्न , ह्र्दय का हाल
बताये
युग - परिवर्तन करे , सत्य शाश्वत सच्चाई
कविता खुद बन जाय , जा सके नहीं बनाई ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर,
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
बहुत बढ़िया -
आभार आदरणीय-
भावों की सरिता
ReplyDeleteबह कर जब
मन के सागर में
मिलती है
शब्दों के मोती
से मिल कर
फिर कविता बनती है .
व्यथित से
मन में जब
एक अकुलाहट
उठती है
मन की
कोई लहर जब
थोड़ी सी
लरजती है
मन मंथन
करके फिर
एक कविता बनती है..
अंतस की
गहराई में
जब भाव
आलोडित होते हैं
शब्दों के फिर
जैसे हम
खेल रचा करते हैं
खेल - खेल में ही
शब्दों की
रंगोली सजती है
इन रंगों से ही फिर
एक कविता बनती है ...
बहुत सुंदर प्रस्तुति
कविता खुद बन जाय , जा सके नहीं बनाई ||अरुण जी आपने सही कहा
ReplyDeleteRecentPOST: रंगों के दोहे ,
बहुत ही बढ़िया और सार्थक प्रस्तुति,आभार.
ReplyDelete"स्वस्थ जीवन पर-त्वचा की देखभाल"
कविता बनती है तभी जब हो शब्दों का संगम |
ReplyDeleteसूर्य किरण के पास पहुचें जब अरुण निगम ||
कविता दिवस की बधाई
sarthak kavita sunder kavita
ReplyDeleteआग्रह है मेरे ब्लॉग मैं भी सम्मलित हो
jyoti-khare.blogspot.in
आभार आपका
बहुत सुंदर भाव..... शब्दों का उकेरना सरल कहाँ ?
ReplyDeleteसही कहा आपने- कविता अंतर में अनायास उदित होती है.
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
पधारें "चाँद से करती हूँ बातें "
आहा गुरुदेव श्री बहुत ही सुन्दर कुण्डलिया विश्व कविता पर इससे सुन्दर रचना और क्या हो सकती है, हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteकविता की शंकि को पहचाना है बाखूबी अरुण जी आपने ...
ReplyDeleteबधाई ...
सखी फागुन फिरे, दहरि दुआरी, फागत फूर फुहार ।
ReplyDeleteरे सखि फूर भरे, फुर फुरबारी, सुरभित गंधन धार ॥
भूरि भेस भूषित, भूषन अभरित, बरसाने के धाम ।
रे सखि जोग रहें, कब आवेंगे, घन भँवर बर स्याम ॥
कटि किंकनि कासे, बँसरी धाँसे, मुकुट मौर के पंख ।
हरि चाप प्रभासे , रंग प्रकासे, पिचकारी करि अंक ॥
सखि निकसे साँवर, गिरधर नागर, बृंदाबन कर पार ।
सखी धरे घघरी,सत रंग भरी, खड़ी अगुवन दुआर ॥
उर चुनरी कोरी, ओढ़े गोरी, भरि पिचकारी रंग ।
कर जोरा जोरी, खेलत होरी, साँवरिया के संग ॥
मुख चाँद चकासे, कनक प्रभा से, रागे राग कपोल ।
धरि किसन मुरारे, मल मलिहारे, हे! हे होरी! बोल ॥
sundar aur sarthak prastuti, behatareen lekhan
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और मनमोहक ढ़ंग से कविता की सच्चाई को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।बधाई ....
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