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Sunday, June 5, 2011

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष - "बसंत"


                               -अरुण कुमार निगम

कविता में ,गीत मेंबसंत     नजर आता है.
अब तो बसंत का बस
 ,अंत नजर आता है.

जंगल का नाश हुआ
,    गायब पलाश हुआ
सेमल ने दम तोडा
,   आम भी निराश  हुआ.
चोट
लगी वृक्षों को,     घायल आकाश हुआ.
बादल
भी रो न सका     ,  इतना हताश हुआ 
.
 आधुनिक शहर दिक्-दिगंत नजर आता है.
अब तो बसंत का बस
 , अंत नजर आता है.

सोचो तो
   गए साल   , कैसा  अंजाम  हुआ
बाँझ रही अमराई
  ,  पैदा    न   आम  हुआ.
प्याज ने रुलाया
   तो ऐतिहासिक दाम हुआ
दौलत की लालच
  में  सरसों बदनाम हुआ.

मौसम
   महाजन - -सामंत नजर आता है
अब तो बसंत का बस
,अंत नजर आता है.

कोयल न कुहुकेगी
,   बुलबुल न चहकेगी
पायल   न
  झनकेगी ,    चूड़ी न खनकेगी
बिंदिया
     चमकेगी,     सांसें    न महकेगी
होली
       दहकेगी,          गोरी न बहकेगी.

प्रश्न
  भविष्य का,    ज्वलंत नजर आता है
अब तो बसंत का बस
, अंत नजर आता है.


 
 

12 comments:

  1. इस ज्वलंत समस्या पर बहुत खूबसूरती से परिणाम कह दिया है ... सुन्दर प्रस्तुति

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  2. पर्यावरण पर हो रहे अत्याचार को दर्शाती इतनी अच्छी और विचारोत्तेजक कविता आज तक मैंने नहीं पढ़ी थी।

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  3. प्रश्न भविष्य का, ज्वलंत नजर आता है
    अब तो बसंत का बस , अंत नजर आता है

    आज के यथार्थ का बहुत सटीक चित्रण...

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  4. मै समझाता हूँ की पर्यावरण पर इतना प्रभावशाली व्यंग कविता किसी ने नहीं लिखी होगी| बादल भी रो न सका,मौसम महाजन,
    बहुत बढिया शब्द विन्यास है साथ हि पर्यावरण के प्रति संवेदना
    जागो जागो धरती वाशी जागो सटीक संदेश दिया है आपने ....

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  5. बसंत का एहसास कराती सुंदर पंक्तियां.

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  6. kya baat hai ,samyik soch ka pratinidhtwa sunder hai --
    जंगल का नाश हुआ , गायब पलाश हुआ
    सेमल ने दम तोडा , आम भी निराश हुआ.
    चोट लगी वृक्षों को, घायल आकाश हुआ.
    बादल भी रो न सका , इतना हताश हुआ

    shukriya ji .

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  7. सुन्दर रचना...जरुरी चेतना जगाती.

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  8. पर्यावरण ...जैसे ज्वलंत विषय पर इतना सुन्दर खनकता हुआ गीत ..वाह क्या कहना !

    गीत की हर पंक्ति जहाँ एक और वाजिब चिंता से रूबरू कराती है वहीँ दूसरो ओर उसका काव्य सौन्दर्य मन को बरबस ही मुग्ध कर लेता है |

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  9. बहुत प्रभावी रचना .. बदलते पर्यावरण की समस्या को बाखूबी उठाया है इस लाजवाब रचना में ...

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  10. कोयल न कुहुकेगी , बुलबुल न चहकेगी
    पायल न झनकेगी , चूड़ी न खनकेगी
    बिंदिया न चमकेगी, सांसें न महकेगी
    होली न दहकेगी, गोरी न बहकेगी.


    ...एक ज्वलंत समस्या पर बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण ढंग से ध्यान आकर्षित कराया है...कविता के भाव मन को पूरी तरह सराबोर कर देते हैं..बहुत सुन्दर

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  11. कोयल न कुहुकेगी , बुलबुल न चहकेगी
    पायल न झनकेगी , चूड़ी न खनकेगी
    बिंदिया न चमकेगी, सांसें न महकेगी
    होली न दहकेगी, गोरी न बहकेगी.
    प्रश्न भविष्य का, ज्वलंत नजर आता है
    अब तो बसंत का बस , अंत नजर आता है

    बहुत दमदार रचना....

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  12. मानसरोवर रह गया कविताओं में शेष ..........
    अब तो बस बसंत का अंत नजर आता है ......
    आभार इस पर्यावरण सम्मत भाव सौन्दर्य के लिए ..रागात्मक जुड़ाव के लिए प्रकृति के संग .

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