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Monday, March 6, 2017

आम गज़ल .....

आम गज़ल .....

आम हूँ बौरा रहा हूँ
पीर में मुस्का रहा हूँ ।

मैं नहीं दिखता बजट में
हर गज़ट पलटा रहा हूँ ।

फल रसीले बाँट कर बस
चोट को सहला रहा हूँ ।

गुठलियाँ किसने गिनी हैं
रस मधुर बरसा रहा हूँ ।

होम में जल कर, सभी की
कामना पहुँचा रहा हूँ ।

द्वार पर तोरण बना मैं
घर में खुशियाँ ला रहा हूँ ।

कौन पानी सींचता है
जी रहा खुद गा रहा हूँ ।

मीत उनको “कल” मुबारक
“आज” मैं जीता रहा हूँ ।

“खास” का अस्तित्व रखने
“आम” मैं कहला रहा हूँ ।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)