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Sunday, March 17, 2019

याद किया करना तर्पन में

पिता उवाच ….

मैं क्या जानूँ गंगा-जमुना, सरस्वती है मेरे मन में
मैं ही जानूँ कब बहती है, यह अन्तस् के सूने वन में।।

पारस हूँ, पाषाण समझ कर
रौंद गए वे स्वर्ण हो गए
उनमें से कुछ तो दुर्योधन
कुछ कुन्ती कुछ कर्ण हो गए।
मैं बस बंशी रहा फूँकता, चारागाहों में निर्जन में
मैं क्या जानूँ गंगा-जमुना, सरस्वती है मेरे मन में।।

तुम सब अमृत बाँट चुके जब,
मेरे हिस्से बचा हलाहल
तुम भविष्य के पीछे भागे
और बन गया मैं बीता कल।
नील-गगन में तुम्हें उड़ाने, बँधा रहा मैं सूनेपन में
मैं क्या जानूँ गंगा-जमुना, सरस्वती है मेरे मन में।।

तुम क्या जानो गोद उठा कर
अधरों को मृदुहास दिया था
बिदा किया था डोली में तो
मैंने ही बनवास दिया था।
परम्पराएँ बची रहीं तो याद किया करना तर्पन में
मैं क्या जानूँ गंगा-जमुना, सरस्वती है मेरे मन में

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (18-03-2019) को "उभरे पूँजीदार" (चर्चा अंक-3278) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह ...
    हर छंद लाजवाब ... दिल से दोहराता है मन आपकी रचना को अरुण जी ...
    बधाई ...

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  3. This comment has been removed by the author.

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