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Friday, July 13, 2018

एक गजल - कुर्सी (अरुण कुमार निगम)

बहर
221 1222, 221 1222

कुछ काम नहीं करता, हर बार मिली कुर्सी
मंत्री का भतीजा है, उपहार मिली कुर्सी।।

गत सत्तर सालों में, कई रोग मिले तन को
जाँचा जो चिकित्सक ने, बीमार मिली कुर्सी।।

पाँवो को हुआ गठिया, है पीठ भी टेढ़ी-सी
लकवा हुआ हाथों को, लाचार मिली कुर्सी।।

फिर भी इसे पाने को, हर शख्स मचलता है
सेवा तो बहाना है, व्यापार मिली कुर्सी।।

कुछ पा न सके इसको, इक उम्र गँवा के भी
कुछ खास घरानों में, अधिकार मिली कुर्सी।।

है नाव सियासत की, उस पार खजाना है
जो लूट सके लूटे, पतवार मिली कुर्सी।।

जनता के खजाने को, क्या खूब लुटाती है
कहता है "अरुण" दिल से, दिलदार मिली कुर्सी।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

4 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, समान अधिकार, अनशन, जतिन दास और १३ जुलाई “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. जो लूट सके लूटे, पतवार मिली कुर्सी।।
    -यही हो रहा है.

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-07-2018) को "आमन्त्रण स्वीकार करें" (चर्चा अंक-3033) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत बढ़िया गुरुदेव ।

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