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Sunday, February 22, 2015

कुकुभ छन्द














  

(चित्र ओबीओ से साभार) 
 
कुकुभ छन्द – पहला दृश्य 

एक सरीखी प्रात: संध्या,जीवन की सच्चाई रे
एक सूर्य को आमंत्रण दे , दूजी करे विदाई रे
कालचक्र की आवा-जाही, देती किसे दिखाई रे
तालमेल का ताना-बाना, सुन्दर बुनना भाई रे  

कुकुभ छन्द – दूसरा दृश्य 

दादा  की   बाँहों में  खेले , बड़भागी  वह पोता है
एकल  परिवारों में  पोता , मन ही मन में रोता है
हर घर की यह बात नहीं पर , अक्सर ऐसा होता है
सुविधाओं की दौड़-भाग में,जीवन-सुख क्यों खोता है  

कुकुभ छन्द – तीसरा दृश्य

पोता  कूदे , दादा  थामे , यही  भरोसा  कहलाता
यही भरोसा जोड़े रखता , मन से मन का हर नाता
ना मन में संदेह जरा-सा, और नहीं  डर का साया
देख चित्र को  मेरे मन में , यारों बस इतना आया


अरुण कुमार निगम

3 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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