कुण्डलिया
छन्द:
पहचाना जाता
नहीं, अब पलाश का फूल
इस कलयुग
के दौर में, मनुज रहा
है भूल
मनुज रहा
है भूल, काट कर सारे जंगल
कंकरीट
में बैठ, ढूँढता अरे सुमङ्गल
तोड़ रहा
है नित्य, अरुण
कुदरत से नाता
अब पलाश
का फूल, नहीं पहचाना जाता।।
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "अनजान से रास्ते, हम और आप... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-04-2017) को
ReplyDelete"चलो कविता बनाएँ" (चर्चा अंक-2620)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'