Saturday, July 27, 2019

गजल - कहाँ ढूँढें

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जो चैन से सोने दे उस धन को कहाँ ढूँढें
संसार में भटका है उस मन को कहाँ ढूँढें।

वन काट दिए सारे हर सू है पड़ा सूखा
अब पूछ रहे हो तुम सावन को कहाँ ढूँढें।

माँ-बाप की छाया में, बचपन को बिताया था
उस घर को कहाँ ढूँढें आँगन को कहाँ ढूँढें।

पढ़ने की न चिन्ता थी साथी थे खिलौने थे
नादान से भोले से बचपन को कहाँ ढूँढें।

निकले जो घरौंदे से सुख लूट गया कोई
जीवन है मशीनों सा धड़कन को कहाँ ढूँढें।

दर्पण में कई चेहरे देते हैं दिखाई क्यों
दरका तो कहीं होगा टूटन को कहाँ ढूँढें।

ये जीस्त 'अरुण' तुमको किस भीड़ में ले आई
हर शख़्स ये पूछ रहा दुश्मन को कहाँ ढूँढें।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़

Monday, July 8, 2019

गजल

ले के सहारा झूठ का सुल्तान बन गए
ज्यों ताज सिर पे आ गया हैवान बन गए।

आवाम के जज़्बात की तो कद्र ही नहीं
लाठी उठाई हाथ में भगवान बन गए।

सब को बड़ी उम्मीद थी फस्लेबहार की
सपनों के सब्जेबाग़ अब वीरान बन गए।

घर में हमारे आग के शोले भड़क उठे
उनको किया जो इत्तिला नादान बन गए।

किस्मत में तेरी गम लिखा है भोग ले "अरुण"
गदहे भी अब के दौर में विद्वान बन गए।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़